रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उत्तर कोरियाई लीडर किम जोंग उन की कथित तौर पर रूसी शहर व्लादिवोस्तोक में मुलाकात हुई. इस मीटिंग में क्या हुआ, ये तो सीक्रेट है, लेकिन इस बीच व्लादिवोस्तोक शहर जरूर चर्चा में आ गया.
कई बार हो चुका तनाव
रूस के पूर्व में स्थित ये शहर मॉस्को के लिए काफी जरूरी है. लेकिन कहते हैं न कि हर कीमती चीज पर किसी न किसी की नजर रहती है. तो कुछ ऐसा ही व्लादिवोस्तोक शहर के साथ भी हुआ. लंबे समय से चीन रह-रहकर इस पर अपना दावा करता है. यहां तक कि दोनों देशों के आम लोग भी सोशल मीडिया पर इसके लिए लड़-भिड़ चुके. हां, ये बात जरूर है कि बाकी देशों की तरह चीन रूस पर हावी नहीं हो सका.
कोविड से पहले बढ़ने लगी थी मूवमेंट
साल 2020 में चीन के लोगों ने सोशल मीडिया पर व्लादिवोस्तोक को आजाद कराने की मुहिम छेड़ दी. वे आरोप लगा रहे थे कि रूस ने सालों पहले चुपचाप ये शहर उनसे हड़प लिया. हालांकि अपने ही लोगों के इस दावे पर चीन के विदेश मंत्रालय ने तब चुप्पी साधे रखी. तब उसका भारत से भी लद्दाख में तनाव गहराया हुआ था. कोरोना वायरस को लेकर दुनिया उसपर इलजाम लगा रही थी, लिहाजा ये वक्त और लड़ने का नहीं था.
चीन का साम्राज्य था किसी समय
व्लादिवोस्तोक पर एक समय में चीन की राजशाही चलती थी. तब वहां चिंग साम्राज्य का राज था और शहर का नाम भी हिशेनवई था. साल 1839 में पहले अफीम युद्ध के समय जब ब्रिटेन ने हमला किया तो इस शहर को कब्जे में लेकर उसका नाम पोर्ट मे कर दिया गया.
पूरब का राजा नाम दिया गया
नामकरण का ये सिलसिला रुका नहीं. तीन साल बाद अफीम के लिए एक बार फिर लड़ाई हुई. इस दौरान रूस हमलावर था. चीन को हराते हुए उसने कई सारे शहर अपने हिस्से कर लिए. व्लादिवोस्तोक इनमें से एक था. साल 1860 में रूस की मिलिट्री ने इस शहर को बसाया और नाम दिया व्लादिवोस्तोक, जिसका मतलब है पूरब का राजा.
ये रूस के प्रिमोर्स्की क्राय की प्रशासनिक राजधानी है. इसके बाद से शहर का रूप-रंग बदल गया. फिलहाल ये शहर प्रशांत महासागर में रूस के सैनिक बेड़े का एक बेस है. व्यापार का काफी हिस्सा व्लादिवोस्तोक पोर्ट से होकर गुजरता है.
कई बार बदल चुकी है सत्ता
पढ़ने पर साफ लगता है कि शहर तो चीन का ही था, जिसे धोखे से रूस ने ले लिया, लेकिन कहानी में यहां पेंच है. यहां की फार ईस्टर्न फेडरल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता अर्टिअम ल्यूकिन ने दावा किया कि व्लादिवोस्तोक पहले रूस का ही था, लेकिन 17वीं सदी में चीन ने चुपचाप यहां अपने लोग बसाने शुरू कर दिए. फिर धीरे से इसपर अपना दावा भी कर दिया. काफी तनाव के बाद चिंग राजशाही और रूस के बीच संधि हुई, जिसमें शहर चीन को मिल गया. इसे ट्रीटी ऑफ नरचिंन्स्क कहते हैं. इसी दौरान ट्रीटी ऑफ पेकिंग भी हुई थी, जो ब्रिटिश कब्जे से जुड़ी थी.
रूस ने भले ही चीन से संधि कर ली, लेकिन अपने शहर को भूला नहीं. दूसरे अफीम युद्ध के समय इसलिए ही उसने वापस इसपर अपना कब्जा कर लिया. चीन ब्रिटिश और फ्रेंच हमलों से थका हुआ था, रूस के सामने ज्यादा टिक नहीं सका.
व्यापार के लिहाज से काफी अहम
कुल मिलाकर समुद्री रास्ता होने की वजह से इस शहर पर रूस और चीन दोनों अपना दावा करते रहे. कुछ सालों के लिए ब्रिटेन ने भी इसपर राज किया. इतने हाथों से गुजरने की वजह से शहर की वास्तुकला और वहां के खानपान पर सबकी छाप दिखती है.
बीते कुछ सालों में यहां चीन की बड़ी आबादी आ चुकी
रूस के इस शहर को विकसित करने के लिए चीन ने अरबों डॉलर का निवेश किया. इसकी आड़ में भारी संख्या में यहां चीनी अधिकारी और मजदूर आने और बसने लगे. यहां तक कि चीन खानपान के लिए अलग मार्केट तक खड़े हो चुके हैं. इसपर डिप्लोमेट्स डरे हुए हैं कि आने वाले समय में चीन कहीं इसी बात का हवाला देकर शहर कब्जाने की कोशिश न करने लगे.
नक्शे में भी हो चुका है बदलाव
उसका ये खौफ पूरी तरह गलत भी नहीं. चीन जिस तरह से अपने आसपास की सारी जमीनें हड़पना चाहता है, ये हो भी सकता है. हाल में चीन के विस्तावादी मंसूबे एक बार फिर सामने आए, जब नया मैप जारी करते हुए उसने कई देशों समेत रूस को भी नहीं छोड़ा. बोल्शोई उस्सुरीस्की नाम का रशियन द्वीप भी चीन में दिखता है. रूस का विदेश मंत्रालय इसपर एतराज भी जता चुका.
कितनी आबादी से चीन के लोगों की
रूस में चीनियों की सबसे बड़ी आबादी मॉस्को और व्लादिवोस्तोक में है. वैसे इस देश में कुल कितने चीनी हैं, इसपर रूस की सरकार और एक्सपर्ट अलग दावा करते हैं. साल 2010 में वहां हुई जनगणना के मुताबिक पूरे देश में केवल 30 हजार चीनी लोग हैं. वहीं चीन पर स्टडी कर रहे एक्सपर्ट इसे 5 मिलियन बताते हुए ये तक कहते हैं कि साल 2050 में ये बढ़कर 10 मिलियन हो जाएंगे.
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