इन दिनों कई देशों में लड़ाइयां छिड़ी हुई हैं. वहीं बहुत से देश ऐसे भी हैं, जो जंग की आग पर ठंडा पानी डालने को तैयार हैं. रूस-यूक्रेन जंग हो, या इजरायल-ईरान की, मध्यस्थता के लिए एकदम से कई देश तैयार दिखते हैं. कई तो ग्लोबल पीसमेकर की तरह उभर चुके, जिनका काम ही बीच-बचाव करना है. क्या ये काम वे पूरी तरह से नैतिकता के नाते करते हैं, या युद्ध सुलझाना भी किसी पावर गेम का हिस्सा है?
कैसे छोटे-से देश ने सुलझाया ताकतवर दुश्मनों के बीच मुद्दा
दशकों से हिंसा और आरोपों में जीते इजरायल और फिलिस्तीन- दो ऐसे स्ट्रक्चर हैं, जिनका सीधा हल किसी को नहीं सूझता. नब्बे के दशक में तो ऐसा लगने लगा कि इनकी लड़ाइयां मिडिल ईस्ट से होते हुए पूरी दुनिया को तबाह कर देंगी. तभी सामने आया एक ऐसा देश, जिसकी कुलजमा आबादी भी करोड़ से काफी नीचे है. नॉर्वे!
यहां की सरकार ने चुपचाप दोनों पक्षों को ओस्लो बुलाया. महीनों तक बिना कैमरों, बिना प्रेस कॉन्फ्रेंस के गुप्त बातचीत चली. ओस्लो में दोनों पक्षों को माहौल और भरोसा दोनों ही मिला. ओस्लो समझौता उसी वक्त की देन है. इजरायल ने पेलेस्टाइन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (पीएलओ) को वेस्ट बैंक के प्रतिनिधि के तौर पर अपना लिया. नॉर्वे चुप्पा देश से अचानक एक ग्लोबल पीसमेकर की तरह उभरा.
इतनी मेहनत और रिर्सोस खर्च करके नॉर्वे को क्या मिला? क्या ये महज नैतिक फर्ज था, या इसकी परत में छिपी कोई रणनीति?
ये फायदे हुए
समझौते ने नॉर्वे को एक छोटे देश से उठाकर ग्लोबल पीसमेकर बना दिया. इसके बाद उसने श्रीलंका, सूडान, कोलंबिया, फिलीस्तीन-हमास जैसे कई विवादों में मध्यस्थता की. आज इस देश की पहचान एक तटस्थ मीडिएटर की तरह है, जो अपने-आप में बड़ी बात है. महीनों तक गुप्त बातचीत के लिए अपनी जमीन देकर नॉर्वे ने साबित कर दिया कि वो भरोसेमंद हो सकता है. इसके बाद से वहां लगातार शांति पर बातचीत होने लगी.
नोबेल पीस प्राइज का एलान भी यहीं से होता है. वैसे तो इसकी शुरुआत पहले ही हो चुकी थी, लेकिन अब इस पुरस्कार का प्रतीकात्मक असर कई गुना बढ़ गया. ओस्लो समझौते के बाद नॉर्वे की डिप्लोमैटिक टीम को दुनिया भर के विवादित क्षेत्रों में बुलाया जाने लगा, जो मौका पहले बड़े देशों जैसे अमेरिका को मिलता था.
यूएन भी मानने लगा सुझाव
इंटरनेशनल संस्थाओं जैसे यूएन और यूरोपियन यूनियन में भी उसकी जमीन मजबूत हुई. उसे बड़े ओहदे और जिम्मे मिलने लगे. कुल मिलाकर, बड़ी सैन्य ताकत हुए बिना भी इस देश ने दिखा दिया कि न्यूट्रल छवि को भी कैसे शक्ति की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. मिडिल ईस्ट में एनर्जी जैसे बड़े मुद्दे पर बात के लिए भी नॉर्वे को न्यौता मिलता है.
कई बार मध्यस्थता करते हुए देशों को वो जानकारी या एक्सेस मिल जाता है, जो आम वक्त में मुमकिन नहीं.
- कतर ने तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते की मेजबानी की थी. बदले में कतर को अफगानिस्तान के कई आर्थिक और राजनयिक मामलों में सीधा दखल मिला.
- तीन साल पहले रूस और यूक्रेन अनाज की डील में यूएन के साथ तुर्की ने भी मध्यस्थता की. इससे ब्लैक सी में इस्तांबुल की पहुंच बढ़ी.
अमेरिका भी अक्सर मीडिएटर बना रहा. लेकिन यहां उसका रोल दूसरों से कुछ अलग होता है. वो शांति की बात करते हुए भी चाहे-अनचाहे किसी एक के पक्ष में दिखता है. हालांकि इसके बाद भी ग्लोबल नैतिक ठेकेदार की उसकी इमेज लगातार चमकती ही गई. सत्तर के आखिर में मिस्र और इजरायल के बीच सुलह से अरब देशों को यूएस पर भरोसा होने लगा. हाल की बात करें तो यूक्रेन-रूस जंग में अमेरिका ने यूक्रेन की भारी मदद की, लेकिन बीच-बीच में वो मध्यस्थ के रोल में आ जाता है ताकि हथियारों की सप्लाई करने वाला न लगे, बल्कि दुनिया उसे शांति दूत की तरह ही देखती रहे.
कब-कब की वॉशिंगटन ने मध्यस्थता
- मिस्र और इजरायल में कैंप डेविड समझौता कराया. इसके बाद मिस्र ने इजरायल को मान्यता दी और इजरायल ने उसे सिनाई प्रायद्वीप लौटा दिया.
- नॉर्वे में ओस्लो प्रोसेस हुई तो खुफिया तौर पर लेकिन बाद में अमेरिका उसे खुले मंच पर लेकर आया और सपोर्ट दिया.
- उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका समेत छह देशों ने न्यूक्लियर मुद्दे पर बात की. समझौते भी हुई लेकिन बाद में टूट गए.
- ओबामा प्रशासन ने ईरान से गुप्त और खुली बात की और परमाणु डील की. बदले में तेहरान को पाबंदियों में कुछ छूट मिली.
क्या मीडिएटर बनने में कोई खर्च भी
कई बार देशों को मध्यस्थता में पैसे खर्च करने पड़ते हैं और ये खर्च काफी बड़ा भी हो सकता है. जैसे बातचीत करवाने के लिए किसी न्यूट्रल जगह की व्यवस्था करना, जहां सेफ्टी भी मिल सके. मध्यस्थों की टीम होती है, जिसके आने-जाने, रहने और कई तरह के खर्च होते हैं. ये सब भी मीडिएटर देश उठाता है.
कई मामले ऐसे भी हैं, जहां मध्यस्थ देश, दोनों पक्षों को शांत करने के लिए आर्थिक मदद भी देते हैं. बाद में पैसे सीधे नहीं मिलते, लेकिन रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट तय है. जैसे भरोसा जीतने की वजह से मीडिएटर देश को दोनों देशों में सीधी पहुंच मिल जाती है. बहुत सी आर्थिक डील्स पक्की होती हैं. साथ ही डिप्लोमेटिक या कई बार सैन्य मौजूदगी का भी रास्ता खुलता है. इसका दूसरा एंगल भी है. अगर सुलह न हो सकी तो ये पैसे डूब जाते हैं.
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