दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की शराब घोटाला केस में गिरफ्तारी के बाद सियासी पारा हाई है. अरविंद केजरीवाल तिहाड़ जेल चले गए हैं और वहीं से सरकार चलाने की बात कह रहे हैं. दिल्ली में बने ताजा हालात को लेकर केजरीवाल सरकार के मंत्री और विधायक मुख्यमंत्री आवास पहुंचे, यह कहा कि उन्हें सीएम पद से इस्तीफा नहीं देना चाहिए, वह जेल से ही सरकार चलाएं. आम आदमी पार्टी के तीन बड़े नेता मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और संजय सिंह पहले से ही जेल में हैं.
अब आतिशी सिंह और सौरभ भारद्वाज ने भी शराब घोटाले में अपनी गिरफ्तारी की आशंका जता दी है. आम आदमी पार्टी के नेता लगातार यह दावा कर रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) हमारी पार्टी को खत्म करने पर तुली हुई है. अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या किसी पार्टी को खत्म करना इतना आसान है? क्या ऐसा कभी पहले हुआ है जिसमें आम आदमी पार्टी की तर्ज पर किसी नई-नवेली पार्टी ने अस्तित्व में आने के बाद थोड़े ही समय में सत्ता तक का सफर तय किया हो और फिर जल्दी ही सियासी नेपथ्य में चली गई हो?
आम आदमी पार्टी से पहले भी किसी राजनीतिक पार्टी के अस्तित्व में आने के साथ ही सूबे की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने का एक उदाहरण असम में मिलता है. असम में आम आदमी पार्टी की तर्ज पर ही आंदोलन से निकली एक पार्टी असम गण परिषद (एजीपी) गठन के तुरंत बाद हुए चुनावों में बड़ी जीत के साथ सत्ता में आ गई थी. हालांकि, यह पार्टी इसके बाद अपनी चमक खोती चली गई और इस समय भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार में गठबंधन सहयोगी है. एजीपी कैसे कमजोर होती चली गई, इसकी चर्चा से पहले बात करते हैं पार्टी के गठन की और उस समय के हालात की.
असम गण परिषद गठन कब और कहां हुआ?
असम गण परिषद के गठन का ऐलान 1985 के असम चुनाव से ठीक पहले गोलाघाट में हुआ. 15 अगस्त 1985 को असम आंदोलन की अगुवाई कर रहे ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन,ऑल असम गण संग्राम परिषद ने केंद्र सरकार के साथ असम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते के साथ ही असम में आंदोलन थम गया और चुनाव का रास्ता साफ हो गया. इस आंदोलन में सक्रिय रहे प्रफुल्ल कुमार महंत ने अपनी पार्टी बनाने का मन बनाया. असम के ही गोलाघाट में 13 और 14 अक्टूबर 1985 को हुए गोलाघाट सम्मेलन में असम गण परिषद नाम से राजनीतिक पार्टी के गठन का ऐलान हुआ था.
गठन का बैकग्राउंड क्या था?
आम आदमी पार्टी जिस तरह अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से निकली, कुछ इसी तर्ज पर एजीपी के गठन का आधार भी एक आंदोलन था. पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के मुक्ति संग्राम को कुचलने के लिए पाकिस्तान सरकार बर्बर कार्रवाई कर रही थी, भारत में घुसपैठ बढ़ गई थी और घुसपैठ का यह सिलसिला 1971 में बांग्लादेश गठन के बाद भी चलता रहा. बांग्लादेश की सीमा से लगते इलाकों में बड़ी तादाद में घुसपैठियों की बस्तियां बसती जा रही थीं. डेमोग्राफी बदलने लगी तो असमिया मूल के लोगों को यह डर सताने लगा कि कहीं वह अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक बनकर न रह जाएं.
इसे लेकर लोगों का डर और असंतोष असम आंदोलन के रूप में सामने आया जिसकी शुरुआत 1978 से मानी जाती है लेकिन 1979 में इसने जोर पकड़ा. 1979 में असम की तत्कालीन सरकार को बर्खास्त कर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. असम 1985 तक आंदोलन की आग में जलता रहा. असम समझौते के बाद 1985 में चुनाव हुए और इन चुनावों में सक्रिय भागीदारी के लिए असमिया अस्मिता की बुनियाद पर एजीपी का गठन हुआ था. अपने पहले ही चुनाव में एजीपी ने बड़ी जीत के साथ सूबे में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई और पार्टी के प्रमुख प्रफुल्ल महंत मुख्यमंत्री बने.
आज क्या है एजीपी की स्थिति?
प्रफुल्ल के नाम तब सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री का रिकॉर्ड भी दर्ज हो गया था. 1991 में एजीपी को सत्ता गंवानी पड़ी लेकिन पार्टी ने 1996 का चुनाव जीतकर फिर से सत्ता में वापसी कर ली और प्रफुल्ल महंत दूसरी बार मुख्यमंत्री बने लेकिन इसके बाद पार्टी के प्रदर्शन का ग्राफ गिरता चला गया. आंदोलन से निकली पार्टी राजनीतिक हैसियत चली गई. 2001 के चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट गई और फिलहाल, पार्टी के 10 विधायक हैं. लोकसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व शून्य है और राज्यसभा में एक सांसद हैं. कभी अपने बूते सरकार चला चुकी पार्टी अब बीजेपी के सहयोगी दल की भूमिका में है.
कैसे कमजोर होती गई एजीपी?
नेताओं के आपसी मनमुटाव, कई बार टूट और प्रफुल्ल महंत सरकार के समय भ्रष्टाचार के लगे आरोप से आंदोलन की उपज एजीपी कमजोर होती चली गई, अपनी राजनीतिक हैसियत खोती चली गई और एजीपी को पहली टूट का सामना 1991 में ही करना पड़ा था. तब प्रफुल्ल महंत की पहली सरकार में गृह मंत्री रहे भृगु कुमार फुकान, पूर्व केंद्रीय मंत्री दिनेश गोस्वामी, बृंदाबन गोस्वामी, पुलकेश बरुआ ने एजीपी से किनारा कर नूतन असम गण परिषद नाम से अपनी पार्टी बना ली. यह दल 1992 में अस्तित्व में आया.
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साल 1996 में प्रफुल्ल महंत जब दूसरी बार सीएम बने, साल 2000 में फिर से एजीपी को टूट का सामना करना पड़ा. अतुल बोरा ने तृणमूल गण परिषद नाम से पार्टी बनाई. 2001 में जब कांग्रेस सत्ता में आई, प्रफुल्ल सरकार के दौरान भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए कई मुद्दे उठाए. एजीपी के सबसे बड़े नेता प्रफुल्ल भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे तो उन्हें पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी भी छोड़नी पड़ी.
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प्रफुल्ल को 2005 में पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में एजीपी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. अपनी ही बनाई पार्टी से निष्कासित किए जाने के बाद प्रफुल्ल ने असम गण परिषद (प्रोग्रेसिव) नाम से नई पार्टी बना ली. 2008 में एजीपी से निकली सभी पार्टियां फिर से साथ आईं लेकिन यह मर्जर भी एजीपी की किस्मत नहीं बदल सका और पार्टी की सीटें विधानसभा में घटती ही चली गईं. बाद में बीजेपी असमिया अस्मिता की पिच पर मजबूती से उतर आई और इसका नुकसान भी एजीपी को हुआ.
बिकेश तिवारी