बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव हैं. एनडीए के खिलाफ रणनीति और सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर चर्चा के लिए गुरुवार को पटना में महागठबंधन की एक अहम बैठक हुई. इस दौरान बेहतर समन्वय के लिए कोऑर्डिनेशन कमेटी का गठन किया गया. इस कमेटी की जिम्मेदारी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को सौंपी गई.
हालांकि, महागठबंधन के सभी घटक दल तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री फेस घोषित करने के मामले में एकमत नहीं दिखे. इस बैठक में तेजस्वी को सीएम कैंडिडेट घोषित करने की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हो सकी.
तेजस्वी के सीएम चेहरे पर संशय बरकरार
महागठबंधन की इस बैठक से पहले यह उम्मीद जताई जा रही थी कि तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
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सूत्रों के अनुसार, तेजस्वी यादव को सीएम चेहरा घोषित करने को लेकर सभी दलों के बीच सहमति नहीं बन सकी. ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस, आरजेडी के साथ सीट बंटवारे से पहले तेजस्वी को सीएम उम्मीदवार बनाए जाने के पक्ष में नहीं है?
महागठबंधन की दूसरी बैठक 24 अप्रैल को कांग्रेस के प्रदेश मुख्यालय में होने वाली है, जिसमें सीटों के बंटवारे और सीएम उम्मीदवार के नाम पर फिर से चर्चा हो सकती है.
कांग्रेस की दबाव की राजनीति क्या है?
फिलहाल, सीटों के बंटवारे को लेकर आरजेडी और कांग्रेस के बीच शीर्ष स्तर पर बातचीत शुरू हो चुकी है.
2020 के विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे के तहत आरजेडी ने 144 सीटों पर और कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि बाकी 29 सीटें वाम दलों को दी गई थीं. जब नतीजे आए तो आरजेडी 75 सीटों के साथ महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा और वो सिर्फ 19 सीटें ही जीत सकी, जिससे तेजस्वी यादव सरकार बनाने में विफल रहे.
कांग्रेस का स्ट्राइक रेट सिर्फ 27% रहा और शायद यही वजह है कि आरजेडी इस बार कांग्रेस को इतनी सीटें देने के पक्ष में नहीं है. सूत्रों के अनुसार, इस बार आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद कांग्रेस को केवल 50 सीटें देने के पक्ष में हैं, जबकि कांग्रेस 70 से ज्यादा सीटों की मांग कर रही है.
सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस 5-6 सीटें कम पर भी राजी हो सकती है, लेकिन उसकी शर्त यह है कि उसे इस बार ऐसी सीटें दी जाएं जहां वो मजबूत स्थिति में है या जहां उसकी जीत की संभावना ज्यादा है.
2020 में कांग्रेस इस बात से नाराज थी कि लालू प्रसाद ने उसे 30 ऐसी सीटें दी थीं जहां आरजेडी खुद पिछले 4-5 चुनाव हारती रही थी. इस बार कांग्रेस ऐसी गलती दोहराने के मूड में नहीं है.
कांग्रेस की 'गिव एंड टेक' पॉलिसी
2020 में कांग्रेस ने जो 70 सीटें स्वीकार की थीं, उसका बड़ा कारण यह था कि उस समय के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने कांग्रेस के लिए मजबूत सीटों के लिए RJD पर ज्यादा दबाव नहीं बनाया था. अखिलेश को लालू प्रसाद का बेहद करीबी माना जाता है.
अखिलेश प्रसाद सिंह ने लालू प्रसाद से बातचीत कर 70 सीटें तो हासिल कर ली थीं, लेकिन इनमें से अधिकांश सीटें ऐसी थीं जहां कांग्रेस कभी भी मजबूत नहीं रही और आरजेडी भी कई बार हार चुकी थी. इसी वजह से कांग्रेस केवल 19 सीटें ही जीत सकी.
अखिलेश प्रसाद सिंह की कमजोर रणनीति के कारण आगामी चुनाव से पहले कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें पद से हटा दिया और राजेश राम को नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया. साथ ही राज्य प्रभारी मोहन प्रकाश को हटाकर राहुल गांधी के करीबी कृष्णा अल्लावरू को यह जिम्मेदारी सौंपी गई.
अखिलेश प्रसाद सिंह की विदाई के तुरंत बाद बिहार कांग्रेस की नई टीम ने आरजेडी के खिलाफ सख्त रुख अपनाया और 'नो कॉम्प्रोमाइज' की पॉलिसी पर काम करना शुरू कर दिया.
कृष्णा अल्लावरू और राजेश राम ने साफ कर दिया है कि इस बार कांग्रेस आरजेडी की 'बी टीम' बनकर चुनाव नहीं लड़ेगी. शायद यही वजह है कि कांग्रेस सीट बंटवारे से पहले तेजस्वी यादव को सीएम चेहरा घोषित करने के पक्ष में नहीं है.
महागठबंधन की पहली बैठक के बाद जब प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, तब तेजस्वी यादव के नाम की घोषणा पर पूछे गए सवालों पर कृष्णा अल्लावरू ने चुप्पी साध ली.
कांग्रेस के इस सख्त रुख ने आरजेडी को साफ संदेश दे दिया कि जब तक कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें और वो भी अपनी पसंद की सीटें नहीं मिलतीं, तब तक तेजस्वी को महागठबंधन का मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाया जाएगा. तेजस्वी के नाम की घोषणा को टालना कांग्रेस की एक रणनीति है जिससे वो आरजेडी पर दबाव बना सके.
क्या आरजेडी कांग्रेस को नाराज कर सकती है?
यह तो साफ है कि कांग्रेस दबाव की राजनीति कर रही है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आरजेडी कांग्रेस को नाराज कर सकती है?
बिहार की राजनीतिक गलियों में यह चर्चा भी है कि यदि कांग्रेस को इस बार 70 सीटें नहीं मिलीं तो वो महागठबंधन से अलग होकर अकेले चुनाव लड़ सकती है. कुछ ऐसा ही हाल ही में दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला था, जब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन नहीं हुआ और दोनों को नुकसान उठाना पड़ा.
दिल्ली में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई और आम आदमी पार्टी को भी करारी हार का सामना करना पड़ा. नतीजा यह हुआ कि 27 साल बाद दिल्ली में फिर से बीजेपी की सरकार बन गई.
आरजेडी को भी इस बात का अहसास है कि अगर कांग्रेस अलग होकर चुनाव लड़ती है तो इससे उसे भी भारी नुकसान हो सकता है.
2010 के बिहार विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण हैं. जब कांग्रेस और आरजेडी ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, तब आरजेडी सिर्फ 22 सीटें जीत पाई थी और कांग्रेस सिर्फ 4 सीटों पर सिमट गई थी.
यह फैक्ट आरजेडी भी जानती है कि अगर कांग्रेस पर ज्यादा दबाव बनाया गया तो वो अलग चुनाव लड़ सकती है और इससे नुकसान दोनों को होगा.
इसी वजह से कांग्रेस का बदला हुआ रुख इस बार आरजेडी के लिए भी एक चुनौती बन गया है. अब लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे कांग्रेस को 70 से कम सीटें देकर भी नाराज ना करें.
अगर लालू और तेजस्वी यह संतुलन बिठाने में सफल होते हैं तो कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बनी रहेगी और तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद के चेहरे के रूप में समर्थन भी मिल जाएगा.
रोहित कुमार सिंह