रानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र को कविता में उतारते हुए कवियत्री सुभद्रा कुमार चौहान शुरुआती कुछ पंक्तियों में उस वक्त के भारत का खाका खींचती हैं. पहली पंक्ति में वह राजाओं और उनके राज्यों का हाल बयां करती हैं और दूसरी पंक्ति वह सीधे दिल्ली की ओर इशारा करती हैं. तीसरी पंक्ति में वह गुलामी को महसूस करने की बात लिखती हैं और चौथी पंक्ति में वह 'क्रांति की लौ', फिर कविता यहां से अपना वजूद पाती है कि 'चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी...'
पहले आप इस कविता की शुरुआती पंक्तियां देखिए...
'सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो
झांसी वाली रानी थी॥'
दूसरी पंक्ति में सुभद्रा कुमारी चौहान ने जिसे 'बूढ़ा भारत' कहा है, असल में वह आखिरी मुगल बादशाह, लालकिले में तख्तनशीं बहादुर शाह जफर है. जिस तलवार को पुरानी बताया गया है, वह उसी मुगलिया सल्तनत की पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही शमशीर है, जिसे सबसे पहले बाबर ने फिराया, जिसे हुमायूं ने हासिल किया, जिसे अकबर ने शान से थामा, और धीरे-धीरे दिल्ली से दक्कन तक मुगल सल्तनत का परचम लहराने लगा.
खैर... यहां विषय यह नहीं है कि कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता का काव्य सौंदर्य कैसा है? यहां बात ये भी नहीं है कि बाबर से लेकर बहादुर शाह जफर तक मुगल सल्तनत की हुकूमत का दौर कैसा रहा? लेकिन... उस दौर को लेकर आज भी किस तरह का माहौल बना हुआ है या फिर किस तरह की सोच ने लोगों के जेहन में अपना घर बनाया हुआ है, इस बारे में बहुत तफसील से बात करता है, नाटक Sons Of Babur... (बाबर की औलादें)
अभिनेता और रंगकर्मी टॉम ऑल्टर को श्रद्धांजलि
रविवार शाम मंडी हाउस स्थित LTG ऑडिटोरिम एक बार फिर गवाह बना, दिग्गज अभिनेता और रंगकर्मी रहे टॉम ऑल्टर साहब की अदाकारी का. 22 जून उनकी मुबारक पैदाइश का दिन होता है और उनकी इसी जयंती के मौके पर बतौर उन्हें श्रद्धांजलि Sons Of Babur... नाटक का मंचन हुआ. दर्शकों के लिए ये शाम सौगात से कम नहीं थी क्योंकि 2017 में दुनिया से रुखसत हो चुके टॉम ऑल्टर साहब की अदाकारी को मंच पर जीवंत होते देखना उनके हिस्से आया.
पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद का लिखा नाटक
नाटक Sons of Babur को साल 2010 में सलमान खुर्शीद (पूर्व विदेश मंत्री) ने लिखा था. मूलतः यह नाटक इंग्लिश में था, जिसे हिंदी में रूपांतरित कर मंच पर उतारा गया और जब इसे पेश करने की बारी आई, नाटक में अपनी जमीन, अपने वतन से दूर कर दिए गए आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर का मेन लीड निभाने के लिए टॉम साहब से बेहतर कोई चेहरा नहीं हो सकता था, और उन्होंने इस किरदार को लगातार कई सालों तक निभाया भी. टॉम अल्टर अक्सर हिंदी फिल्मों और सीरियल्स में अंग्रेज अफसर की भूमिकाएं निभाते देखे गए हैं, वजह रही उनका एंग्लो-इंडियन लुक, एक्सेंट और बॉडी लैंग्वेज... लेकिन टॉम अल्टर की अदाकारी का जादू सिर्फ इतने तक ही सीमित नहीं था, उनके बुलंद पाया काम के बहुत से नजीर नाट्य और मंच के गुलिस्तां में गुल बनकर बिखरे हुए हैं.
बहादुर शाह जफर के किरदार में टॉम ऑल्टर
वह हिंदी, उर्दू यहां तक की संस्कृत संवाद भी खूबसूरती और प्रभावशाली ढंग से बोलते थे. मुगल शासकों और शहजादों के किरदारों में तो वह ऐसे फबते थे कि मानों मंच पर ही सही, लेकिन असल में उनका दौर लौट आया है. Sons of Babur में टॉम अल्टर भारत से निर्वासित और रंगून में आखिरी वक्त काट रहे बहादुर शाह जफर की समस्त तकलीफों के साथ सामने आते हैं. सिर्फ लुंगी लपेटे, मटमैला कुर्ता पहने और एक लालटेन की हल्की रोशनी के सहारे एक चारपायी पर जिंदगी गुजारता ऐसा शख्स जो कभी हिंदोस्तां का बादशाह था, और जिसकी रगों में खून दौड़ रहा था बाबर का...
देखने वाले की नजर में लालटेन एक प्रतीक बन जाती है, उसकी हल्की रोशनी मुगल सल्तनत के बुझते चिराग का प्रतीक है. वह जफर की भी बची चंद सांसों की कहानी कह रहा है. उनके बदन पर बचे हुए चंद कपड़े गवाह हैं कि जिस सल्तनत का परचम कभी दक्कन के आसमान तक फहरता था, वह खुद अब पैबंद लगे पैहरनों में खुद को बचाए रख रहा है. वो अकेला कमरा दरबार के लुट जाने और चारपायी, तख्त के हाथ से निकल जाने का प्रतीक बन जाती है. जफर के किरदार को बहुत बारीकी से गढ़ा गया है और सीमित प्रॉप्स के जरिए बड़े मूक तरीके से हिंदुस्तान और इसके बादशाह की कहानी कह दी गई है.
मंच पर नजर आए टॉम ऑल्टर
नाटक में टॉम ऑल्टर साहब के जफर के किरदार वाले हिस्से को प्रोजेक्टर के जरिए प्ले किया गया और बाकी किरदारों ने अपने हिस्से का अभिनय मंच पर किया. हालांकि अब बहादुर शाह जफर का किरदार, डॉ. एम सईद आलम निभाते हैं, जो कि इस मशहूर नाटक के निर्देशक भी हैं.
ये है प्ले की कहानी
सलमान खुर्शीद की किताब सन्स ऑफ बाबर: ए प्ले इन सर्च ऑफ इंडिया (2008) पर आधारित और डॉ. एम सईद आलम द्वारा निर्देशित इस नाटक का कथानक कुछ ऐसा है, इतिहास का एक छात्र रुद्रांशु सेनगुप्ता (जो बंगाली है, उसके बंगाली होने से ही नाटक की गंभीरता के बीच हास्य भी है) मुगल इतिहास पर एक नाटक लिखना चाहता है, जिसकी रिसर्च के लिए वह रंगून जाना चाहता है, लेकिन उसे इसकी परमिशन नहीं मिलती है. अपने जुनून में वह ऐसा डूब जाता है कि एक शाम वह लाइब्रेरी पहुंचता है तो वहां उसे अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर दिखाई देते हैं. इस दौरान वह उनसे तमाम सवाल करता है. इतिहास में जो दर्ज है, उस बारे में पूछता है और सच जानना चाहता है.
रुद्रांशु ने जफर से जो भी सवाल पूछे नाटक की आगे बढ़ती कहानी ही उसका जवाब है. यह नाटक सिर्फ एक अभिनय नहीं है, बल्कि मंच के जरिए मुगल सल्तन के उत्थान और पतन की दास्तान है. वह बताता है कि किसी भी शासक को सिर्फ एक पहलू से नहीं देखा जा सकता है. जैसे हाल के कुछ दिनों में औरंगजेब एक क्रूर शासक के तौर पर पहचाना गया है, लेकिन नाटक में औरंगजेब 92 वर्ष का एक लाचार-बेजार बूढ़ा है, जो अपनी तमाम गलतियों को भी स्वीकार कर रहा है. वह अपने बेटे को एक हारे हुए सुल्तान की तरह खत लिख रहा है और उन सारी घटनाओं का जिक्र करता है, जो उसकी जिंदगी का हिस्सा रहीं.
मुगल इतिहास का दर्शन है नाटक
यहां यह भी बताना जरूरी लगता है कि, जिस जाजिम या दरी पर औरंगजेब खत लिखता नजर आ रहा है, कभी एक जमाने पर उसी जगह पर उसका पूर्वज बाबर भी बैठा खत लिख रहा था. जो हिंदुस्तान के लोगों को अजीब कहता है, इतने अजीब कि वे बिना बर्फ के ही शराब गटक लेते हैं. खैर... ध्यान से देखिए तो ये एक सीन बड़ी आसानी से ये बात कहता है कि इतिहास किस तरह खुद को दोहराता है, हालांकि स्थितियां अलग-अलग हो सकती हैं.
रुद्रांशु एक के बाद एक सवाल करता जाता है और जफर के जवाब फ्लैश बैक में ले जाते हैं, जहां इतिहास की तमाम घटनाएं मंच पर जिंदा हो रही होती हैं. कैसे हुमायूं कम उम्र में चल बसा और अकबर को बैरम खां ने न सिर्फ बड़ा किया, बल्कि उसे कम उम्र में ही सल्तनत सौंप कर उसका संरक्षक बना रहा, तमाम युद्ध जीते, सीमाएं बढ़ाईं, लेकिन बैरम खां का अंत बेरहमी से हुआ. उसकी सीख, जवान हो चुके अकबर की सोच से मिलती नहीं थीं. लिहाजा वह हज पर भेजे गए.
अकबर का दौर गया तो जहांगीर का समय आया, फिर शाहजहां का दौर आ गया. नाटक शाहजहां के ताजमहल बनाने के कसीदे काढ़ने के बजाय उसका भी वो दूसरा सच सामने रखता है जिस पर बात नहीं होती. आखिर में वह भी औरंगजेब के हाथों बेबस होता है. नाटक शाहजहां के ताजमहल की रोमांटिक कहानी के बजाय उनके सिंहासन हथियाने की बात को लेकर आता है. ‘मुगल कैसे हिंदुस्तानी बने’ की खोज में यह नाटक मुगल इतिहास की बार-बार दोहराई जाने वाली कहानियों के बीच से एक सधी हुई, सीधी और संतुलित कहानी को निकाल लाता है, जिसमें विवाद की गुंजाइश बहुत कम बचती है और बजाय इसके वह दर्शकों की सोच के दायरे को बढ़ाता है.
...लेकिन औरंगजेब के किरदार से थोड़ा शिकवा
हालांकि औरंगजेब के कैरेक्टर को इतना नर्म दिखाना, थोड़ा सा अखर सकता है. इस बारे में टिप्पणी करते हुए खुद सईद आलम भी कहते हैं कि जफर जब औरंगजेब का बचाव करते हैं कि 'औरंगजेब ने कई मंदिर भी बनवाए' तो इसे वह जफर का सही जवाब नहीं मानते, क्योंकि यह कोई तर्क नहीं हो सकता. बनवाना और तोड़ना दोनों ही अलग-अलग बातें हैं. एक को तोड़ना और इसके बदले ये कहना कि हमने दूसरी बनवा तो दी, पहले वाली तोड़फोड़ को जायज नहीं ठहराता है. किसी भी तरह नहीं.
शुरुआत से ही छा जाता है प्ले
नाटक की शुरुआत प्रभाव डालती है. वह दर्शकों को अभ्यास कराती है कि आप प्ले देखने आए हैं तो सिर्फ मंच के भरोसी मत रहिए, पूरे सभागार में चारों तरफ नाटक है, चारों ओर मंच है. हर ओर दर्शक है और खुद दर्शक भी नाटक का सबसे अहम किरदार है. निर्देशक का ये अंदाज लोगों को पहली ही पंक्ति से नाटक से जोड़ देता है.
तीन हिस्सों में बंटा हुआ मंच
मंच भी तीन भागों में बंटा दिखता है. आधुनिक युग को मंच के नीचे और दर्शकों के बीच सभागार के करीब रखा गया है. यह नाटक में आज के दिन और वर्तमान का संकेत है. पीछे प्रोजेक्टर को भी आज के ही पैरलल रखा गया, जहां भूत काल का वर्तमान से मिलन दिखाई देता है, यानीं जफर और रुद्रांशु की बातचीत. तीसरा और जरूरी भाग, विशुद्ध रूप से बीते हुए दौर भूतकाल का है, जो ठीक मंच पर बीच में है, जहां किरदार प्रॉप्स के जरिए मुगल काल के ऐतिहासिक दौर में ले चलते हैं. ये समय यात्रा बहुत रोचक और मजेदार लगती है.
नाटक में विभिन्न युगों का ये मिश्रण कहानी का हिस्सा है. बहादुर शाह जफर न केवल अंतिम मुगल सम्राट थे, बल्कि 1857 के विद्रोह के दौरान भारतीय विद्रोहियों द्वारा ‘भारत के सम्राट’ भी घोषित किए गए थे. जफर इस बात को ऐसे कहते हैं कि 'एक बाहरी को हटाने के लिए दूसरे बाहरी को फिर से ला रहे थे.' सम्राट के इर्द-गिर्द कथा को केंद्रित करके, खुर्शीद मुगलों की स्वतंत्र भारत में केंद्रीयता को रेखांकित करते हैं.
स्पष्ट रूप से, इस कथा के नाटकीयता से कहीं अधिक गंभीर उद्देश्य हैं. इसलिए इसे ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित होना था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इसमें रचनात्मक स्वतंत्रता नहीं ली गई. खुद सलमान खुर्शीद भी इस बारे में बात करते हुए बताते हैं कि नाटक को जब लिखा गया था, तब इसमें से बहुत सी चीजें नहीं थीं, जिन्हे प्रदर्शन के लिए प्रभावी बनाने के लिए और एक्ट की सरलता के लिए जोड़ा गया. ये एक जरूरी तथ्य है क्योंकि लिखना अलग है और लिखे हुए को प्रदर्शित करने की कला अलग है, लेकिन इस रचनात्मक स्वतंत्रता ने नाटक के मैसेज और इसकी आत्मा को जिंदा रखा है. वह कहते हैं कि थिएटर अपनी क्रिएटिविटी से ही पहचाना जाता है और यही उसकी खूबी भी है.
नाटक की भाषा-शैली
हालांकि नाटक की भाषा कुछ जगहों पर सोचने के लिए थोड़ी मजबूर करती है, क्योंकि कई जगह जफर रुद्रांशु की बात समझ नहीं पाते हैं, लेकिन जब वह एक जगह मस्त बोलता है तो जफर इसे सुनकर खुश होते हैं और इसका वही अर्थ बताते हैं, जिस अर्थ के लिए मस्त शब्द का प्रयोग किया गया था. यानी मजा (आनंद) के लिए. इस एक संवाद के जरिए नाटक भारतीय समाज की मिली-जुली संस्कृति और भाषा-शैली को बताता है.
इनकी अदाकारी भी रही शानदार
नाटक के किरदारों की बात करें तो प्रोजेक्टर के जरिए बहादुर शाह जफर की भूमिका में टॉम ऑल्टर दिखे. हिमांशु श्रीवास्तव ने रुद्रांशु सेनगुप्ता का किरदार निभाया. राघव नागपाल ने कॉलेज स्टूडेंट, अकबर-शाहजहां जूनियर और औरंगजेब जूनियर की भूमिकाएं निभाई. अंजू छाबड़ा ने प्रोफेसर छाबड़ा, हमीदा बेगम और नूरजहां के किरदारों को जीवंत किया. पूर्वा क्षेत्रपाल ने सारा की भूमिका निभाई, वहीं बिलाल मीर ने बाबर, अधम खान, अबुल फजल और आसफ खान के रूप में अभिनय किया. हरीश छाबड़ा ने बैरम खान, जहांगीर और औरंगजेब की भूमिकाएं निभाईं. अरीफा नूरी ने साकी, गुल जान, जोधा बाई और जहां आरा के किरदारों को प्रस्तुत किया, जबकि एम. सईद आलम ने तब्बेब, मुल्ला दो पियाजा और इत्तमाद उद दौला की भूमिकाएं निभाईं. लाजोल मकसूम ने अकबर जूनियर का किरदार अदा किया और तनुल भारतीया ने हुमायूं, मान सिंह और शाहजहां की भूमिकाओं को साकार किया.
यहां एक्टर हरीश छाबड़ा का खास जिक्र किया जाना चाहिए, उनकी अदाकारी और संवाद अदायगी में बहुत गहराई दिखती है. बैरम खां के किरदार में वह एक ही समय में जांबाज और स्वामीभक्त दोनों ही नजर आते हैं. अकबर के दरबार में जंजीरों में जकड़े बैरम भी देखते बनते हैं और फिर अगले सीन में वह जहांगीर बने दिखाई देते हैं, जहां उनका किरदार उन्हें हिंदुस्तान का शासक लगने की बजाय, अपने घर में तमाम महत्वकांक्षी लोगों की भीड़ में घिरा दिखाता है. इस बेबसी और गुस्से को हरीश बहुत करीने से अपने चेहरे पर आते-जाते रंग की तरह ले आते-ले जाते हैं. नाटक के पहले शो से लेकर आजतक वह इससे जुड़े हुए हैं. इसके अलावा वह फिल्में-वेब सीरिज भी कर रहे हैं, कई वेब सीरिज में नजर भी आ चुके हैं.
कुल मिलाकर थोड़े में कहें तो सन्स ऑफ बाबर, असल में नाटक के भीतर चल रहा एक नाटक है. यह नाटक सिर्फ मंच पर नहीं हो रहा है, यह हो रहा है बाहर भी. हमारी राजनीति और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच भी. मंच पर यह नाटक बहुत चुपके-चुपके 'राष्ट्रवाद के अर्थ' की खोज करता है. सवाल करने वाले एक उत्साही छात्र के जरिए यह आदर्शवाद और असली उद्देश्य की परतें खोलता है. यह इतिहास के बीत चुके समय की अपनी ही व्याख्या करता है और क्या सही और क्या गलत इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ता है.
विकास पोरवाल