अमेरिका के ट्रंप समर्थक MAGA (Make America Great Again) एक्टिविस्ट्स और वहां के मूल निवासी हमेशा उधार के मंचों से भाषण देते आए हैं. सर्वे कराने वाले मार्क मिशेल जो कि अब 'डी-इंडियनाइजेशन कंसल्टेंसी' की ब्रांडिंग कर रहे हैं, वो इस विडंबना का जीवंत उदाहरण हैं: एक देश जिसे बाहरी यूरोपीय लोगों ने आकर बसाया और आकार दिया वो अब भारतीय टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट्स को खतरा बता रहा है.
विदेशियों से नफरत करने वाले ये लोग ही असली घुसपैठिए हैं जिन्होंने अमेरिकी सपने और संसाधनों को हथिया लिया है. भारत-विरोधी उनकी बयानबाजी विडंबना, पाखंड और पिछली बातों को भूलने की उनकी बीमारी, इन तीनों का हास्यास्पद संगम है.
क्रिस्टोफर कोलंबस ने जब अमेरिका का समुद्री रास्ता खोज लिया तब वहां बड़ी संख्या में लोग पहुंचने लगे जिसमें तीर्थयात्री, एडवेंचर ढूंढने वाले लोग, धार्मिक असहमति के शिकार लोग और बंधुआ मजदूर शामिल थे.
इतनी बड़ी संख्या में प्रवासियों के आने से अमेरिका में जनसंख्या का विस्फोट हुआ. 1820 तक यूरोपीय मूल के 20 लाख प्रवासी अमेरिका में बस चुके थे. 1892 से 1954 तक, न्यूयॉर्क हार्बर स्थित एलिस आइलैंड में 1.2 करोड़ से ज्यादा प्रवासी आए, जिनमें मुख्यतः दक्षिणी व पूर्वी यूरोप के इटैलियन, आयरिश, पोलैंड के लोग और यहूदी समुदाय शामिल थे. यह ‘अमेरिकन ड्रीम’ का प्रतीक था, जहां नए लोगों को अवसर मिलता था.
लेकिन एक ही पीढ़ी के भीतर, अमेरिका जाकर बसे लोगों ने खुद को वहां का स्थायी निवासी मान लिया. जो लोग खुद यूरोप से आकर अमेरिका में बसे, अब उन्होंने ही यूरोप से आने वालों के लिए रास्ते बंद करने शुरू कर दिए. 1924 के इमिग्रेशन एक्ट जैसी नीतियां लाकर उन्होंने उन्हीं समुदायों की इमिग्रेशन दर 80% से अधिक घटा दी, उन्हें सांस्कृतिक रूप से हीन और अमेरिका के लिए आर्थिक खतरा बताकर.
मार्क मिशेल का इतिहास-विरोधी विश्लेषण और इसमें जेनोफोबिया (विदेशी विरोधी) का इंजेक्शन मिलाना, दोनों यही काम करता है.
यूरोपीय प्रवासियों ने अमेरिका के विकास की दिशा तय की. अमेरिका में आज वही भूमिका भारतीय प्रवासी निभा रहे हैं. अमेरिका में भारतीय प्रवासी 'सिस्टम के पुर्जे' नहीं बल्कि आधुनिक अमेरिकी सफलता की इंजन-शक्ति हैं.
अमेरिका में भारतीय-अमेरिकी समुदाय पूरी आबादी का महज 1.5% हिस्सा (करीब 51 लाख लोग) है लेकिन अमेरिका की अर्थव्यवस्था में इनका योगदान चौंकाने वाला है:
अगर मिशेल 'डी-इंडियनाइजेशन' की बात करते हैं, तो वे वास्तव में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और एडोबी की वर्तमान लीडरशिप क्षमता को ही उखाड़ने की बात कर रहे हैं.
मिशेल ने दावा किया है कि एक वरिष्ठ H-1B डेवलपर को देश से निकालना '10 अवैध प्रवासियों के बराबर आर्थिक लाभ' देगा. उनका यह कैलकुलेशन पूरी तरह से खोखला है. यह दावा करते मिशेल हाई इनकम H-1B प्रोफेशनल्स के कौशल को अनदेखा तो करते ही हैं, साथ ही वो यह भी भूल रहे हैं कि ये अमेरिका में कितना ज्यादा इनकम टैक्स देते हैं.
विश्लेषक कार्तिक गड़ा सही कहते हैं कि अमेरिका हर साल 85,000 H-1B वीजा जारी करता है जिसमें से 70% वीजा भारतीयों को मिलता है, बावजूद इसके अमेरिका में सबसे अधिक प्रोडक्टिव और सबसे बेहतर तरीके से घुल-मिलने वाले प्रवासी भारतीय ही हैं.
अमेरिकी कंपनियों से भारतीयों को बाहर करने का मिशेल का विचार एक आर्थिक रणनीति नहीं बल्कि कमर्शियली ब्रांडेड, नफरती प्रोपेगैंडा है. यह H-1B सिस्टम की कमियों से पैदा हुई वैध चिंताओं को भुनाकर अमेरिका के नवाचार तंत्र को चोट पहुंचाता है. यह किसी भी तरह से अमेरिका के जॉब मार्केट को फायदा नहीं पहुंचाने वाला है.
अमेरिका ने 2025 में H1-B वीजा को लेकर जो मुश्किलें पैदा की हैं, सोशल-मीडिया वेरीफिकेशन, हाई फीस, और कड़े सेलेक्शन नियम दुनिया को संदेश देते हैं कि टैलेंट कहीं और चले जाओ. अमेरिका को पता होना चाहिए कि प्रतिभा किसी जमीन की मोहताज नहीं होती.
2023 के एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि जब अमेरिकी कंपनियों को H-1B कर्मचारियों की भर्ती में दिक्कत आई तो वो अपना ऑपरेशन खासकर भारत और कनाडा में शिफ्ट कर देती हैं. इससे अमेरिकी नौकरियां खत्म नहीं होतीं, बल्कि देश के बाहर चली जाती हैं.
दूसरी ओर, भारतीय IT कंपनियां अमेरिकी वीजा पर निर्भरता से दूर होने की दिशा में पहले से आगे बढ़ चुकी हैं.
वित्त वर्ष 2025 में भारत की टॉप 7 IT कंपनियों को H-1B की केवल 4,573 मंज़ूरियां मिलीं जो कि वित्त वर्ष 2015 की तुलना में 70% कम और वित्त वर्ष 2024 से 37% कम था.
इस खाली जगह को अब अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट, मेटा और गूगल भर रहे हैं, H-1B का इस्तेमाल अब हाई सैलरी, स्पेशलाइज्ड पोजिशन के लिए हो रहा है, न कि बड़े पैमाने पर आउटसोर्सिंग के लिए.
यानी जिस 'समस्या' को मिशेल हटाना चाहते हैं, बाजार और नीतियां उसे पहले ही हल कर चुकी हैं.
अमेरिकी अर्थव्यवस्था को इतिहास, अर्थशास्त्र और आंकड़ों की सीख चाहिए न कि कोई ऐसी कंसल्टेंसी जो सुरक्षा के नाम पर घबराहट और नफरत बेच रही हो.
भारत को चाहिए कि वो मिशेल की बयानबाजी को एक संकेत की तरह ले और अमेरिका पर निर्भर टैलेंट पाइपलाइन को कम करे, ताकि हमारी प्रतिभा देश में ही काम करे.
ऐसा करने से उन लोगों की ऐतिहासिक भूल सुधरेगी जो दूसरों के सहारे ऊपर चढ़कर अब सीढ़ी हटाना चाहते हैं. इससे यह भी साबित होगा कि अमेरिका का असली ‘ड्रीम’ हमेशा उधार के टैलेंट पर चला है, न कि उधार के मंचों पर.
मार्क मिशेल की विदेशी विरोधी धमकी कि भारतीयों को बाहर किया जाए, इतिहास की विडंबना को नजरअंदाज करती है. यह एक ऐसी नीति को आगे बढ़ाती है जो खुद अमेरिका के लिए ही आत्मघाती साबित होगी.