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80 के दशक की वो रात, जब फॉल्स अलार्म के चलते होने वाली थी तीसरी जंग, कितने भरोसेमंद हैं न्यूक्लियर अलार्म?

इस वक्त दुनिया में जितने परमाणु हथियार हैं, उनका आधा भी इस्तेमाल हो जाएं तो एक झटके में हजारों शहर खत्म हो जाएंगे. इसके बाद जो लोग बचेंगे, वे न्यूक्लियर विंटर, और फिर खतरनाक बीमारियों से मरने लगेंगे. धौंस जमाने के लिए सबने ताकत पा तो ली, लेकिन अब निश्चिंत कोई भी नहीं. एक-दूसरे पर नजर रखने के लिए देशों ने न्यूक्लियर वॉचिंग सिस्टम भी बना लिया.

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न्यूक्लियर हथियारों की काट के लिए अर्ली अलार्म तैयार हो चुके.  (Photo- Getty Images)
न्यूक्लियर हथियारों की काट के लिए अर्ली अलार्म तैयार हो चुके. (Photo- Getty Images)

हाल में भारत और पाकिस्तान सैन्य तनाव के बीच कई बार न्यूक्लियर हथियारों का जिक्र आया. दोनों ही परमाणु शक्तियां हैं. ऐसे में एक छोटी चूक भी तबाही ला सकती है. ठीक यही मामला रूस और अमेरिका के साथ है. दोनों एक-दूसरे से डरे रहते हैं कि कब-कौन-क्यों भड़क जाए. निगरानी के लिए इनके पास एक वॉचिंग सिस्टम भी है. लेकिन इसी सिस्टम के फॉल्स अलार्म की वजह से अस्सी के दशक में तीसरा वर्ल्ड वॉर होने को था. 

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कोल्ड वॉर जारी था, जिसमें रूस (तब सोवियत संघ) और अमेरिका एक-दूसरे की हर हरकत के लिए चौकन्ने थे. हलकी सी चूक पूरी दुनिया को तबाह कर सकती थी. तभी 26 सितंबर 1983 की रात दुनिया अनजाने ही तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर पहुंच गई. दरअसल रात में सोवियत संघ का सैटेलाइट वॉचिंग सिस्टम अचानक अलर्ट पर आ गया. उसने संकेत दिए कि अमेरिका ने मिनटमैन नाम की इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें लॉन्च कर दी हैं, वो भी सोवियत संघ की तरफ टारगेट करते हुए. पांच मिसाइलें तेजी से उसकी तरफ आ रही थीं. यानी ये एक न्यूक्लियर हमला था. 

उस वक्त सोवियत के कमांड सेंटर ओको में नाइट शिफ्ट पर थे, लेफ्टिनेंट कर्नल स्टैनिस्लाव पेत्रोव. उनके पास दो ही रास्ते थे. या तो वे अलर्ट को असली मानकर अपने अधिकारियों को बताते और फिर रूस की तरफ से भी जवाबी हमला हो जाता. या दूसरा रास्ता भी है- थोड़ी देर इंतजार करना.

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Stanislav Petrov photo Getty Images

पेत्रोव ने दूसरा रास्ता लिया. उन्होंने इसे फॉल्स अलार्म मानते हुए चुप्पी साधे रखी. कुछ मिनटों बाद भी कुछ नहीं हुआ, और फिर रात बीत गई. मतलब ये कोई हमला नहीं था, बल्कि वॉचिंग सिस्टम ने गलत सिग्नल दे दिया था. पेत्रोव के बाद में कई इंटरव्यू हुए, जिनमें वे हीरो थे. लेकिन ये भी चर्चा होने लगी कि जिस वॉचिंग सिस्टम को सुरक्षा के लिए बनाया गया था, वही इतनी बड़ी चूक कर चुका था. 

इसके बाद भी न्यूक्लियर हथियार संपन्न सारे देश चौकन्ना रहते हैं और अपने साथ ऐसा कोई न कोई वॉर्निंग सिस्टम रखते हैं. अमेरिका, रूस और चीन के पास सैटेलाइट पर काम करने वाले एडवांस सिस्टम हैं जो जमीन, समुद्र और आसमान पर नजर रखते हैं. ये लॉन्च हुई मिसाइलों को उड़ान भरते ही पकड़ लेता है. इसका मकसद हमला होने से पहले ही पता लगाना है ताकि जवाबी हमला तुरंत किया जा सके. 

चीन ने कुछ सालों पहले ही अर्ली वॉर्निंग सिस्टम को मजबूत बनाया. फ्रांस और ब्रिटेन की बात करें तो इनके पास तरीके तो हैं लेकिन उतने मॉडर्न नहीं. वे यूएस पर निर्भर हैं. 

nuclear missiles photo Getty Images

भारत के पास फुल स्केल अर्ली वॉर्निंग सैटेलाइट सिस्टम की पक्की जानकारी नहीं मिलती. हमारे पास ऐसे रडार और सेंसर हैं जो दुश्मन की हलचल को सूंघ सकें लेकिन सैटेलाइट पर काम करने वाले रियल टाइम डिटेक्शन सेंटर की जानकारी नहीं दिखती. ये भी हो सकता है कि देश पहले ही इस क्लब का हिस्सा बन चुका हो.

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जिनके पास न्यूक्लियर ताकत नहीं, उनका क्या
ऐसे देश खतरे की जानकारी के लिए अपने या नाटो के इंटेलिजेंस पर निर्भर रहते हैं. जो देश सीधे नाटो के सदस्य हैं, वहां अमेरिका जैसी ताकतें समय रहते उन्हें चेतावनी दे सकती हैं. कम से कम फिलहाल तक तो वे यही भरोसा किए बैठे हैं. 

अर्ली मिसाइल सिस्टम अगर तुरंत ही हमला भांप ले तो अटैक फेल भी किया जा सकता है. असल में जब न्यूक्लियर मिसाइल छोड़ी जाएगी तो  इसके जरिए देश को कुछ सेकंड्स या एकाध मिनट में ही भनक लग सकती है. जवाबी कार्रवाई में दो स्टेप हो सकते हैं. पहला- हमले को फेल करना. और दूसरा- जवाबी न्यूक्लियर हमला. लेकिन सच ये है कि न्यूक्लियर मिसाइलें बेहद तेज होती हैं और इन्हें रोकना तकनीकी तौर पर उतना ही मुश्किल है. देशों के पास डिफेंस सिस्टम तो हैं लेकिन कोई भी 100 फीसदी गारंटी नहीं देता कि मिसाइल रास्ते में रोक दी जाएगी. चूंकि इन चीजों का आजमाने का कभी मौका नहीं आया, तो इस बारे में पक्की तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. 

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