कई देशों की लड़ाई-भिड़ाई के बीच दुनिया तीसरे महायुद्ध के मुहाने पर दिख रही है. एक्सपर्ट चेता रहे हैं कि अगर युद्ध हुआ तो महाविनाश होगा. इसमें बड़ा योगदान जैविक हथियारों का भी रहेगा. ये सामान्य हथियारों से कहीं ज्यादा घातक हैं, और इनका असर लंबे समय तक बना रहता है. कई इंटरनेशनल संधियों और संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी के बाद भी वक्त-बेवक्त कई कंस्पिरेसी थ्योरीज चलती रहीं. यहां तक कि रूस ने आरोप लगाया था कि यूक्रेन में भी अमेरिकी मदद से खुफिया लैब्स चल रही हैं.
यहां कई सवाल आते हैं
- क्या हैं बायोवेपन और कैसे काम करते हैं.
- इतिहास में कब-कब इनका इस्तेमाल हो चुका.
- क्या युद्ध में विनाश का जोखिम देखते हुए इन पर कोई रोक भी लगी.
- क्या इन हथियारों पर कहीं कोई प्रयोग चल रहा है.
बायोवेपन वो हथियार हैं जिनमें गोली-बारूद नहीं, बल्कि जीवित चीजें इस्तेमाल होती हैं, जैसे जैसे वायरस, बैक्टीरिया या जहरीले टॉक्सिन. इनका काम बहुत सीधा है. किसी खास बैक्टीरिया को हवा-पानी-खाना, या किसी जानवरों के जरिए फैलाया जाता है. शरीर तक पहुंचते ही बीमारी फैलने लगती है. चूंकि यह धीरे असर करती है तो तुरंत पकड़ में नहीं आती. इसलिए बायोवेपन को साइलेंट और बेहद घातक हथियार माना जाता है.

कब-कब हुआ इस्तेमाल
18वीं सदी में भी जैविक हथियार युद्ध का हिस्सा थे. तब ब्रिटिश सैनिकों और नेटिव अमेरिकन्स के बीच संघर्ष चल रहा था. ब्रिटिश कमांडरों ने नेटिव अमेरिकन्स का प्रतिरोध कमजोर करने के लिए बेहद अमानवीय तरीका अपनाया, स्मॉलपॉक्स से संक्रमित कंबल बांटना. उन्होंने जानबूझकर ऐसे कंबल और रुमाल नेटिव प्रतिनिधियों को गिफ्ट के रूप में दिए, जिन्हें पहले स्मॉलपॉक्स के मरीजों ने इस्तेमाल किया था. तब स्मॉलपॉक्स की कोई दवा नहीं थी. बीमारी फैली और काफी मौतें हुईं. ये पहला दर्ज बायो अटैक था.
वियतनाम और अमेरिका युद्ध में भी बायोलॉजिकल असर करने वाले केमिकल हथियार इस्तेमाल किए. एजेंट ऑरेंज नाम से इस रसायन को एयरक्राफ्ट के जरिए फसलों पर छिड़क दिया गया. यह इंसानों के लिए बेहद घातक साबित हुआ. लाखों वियतनामी कैंसर और त्वचा की गंभीर बीमारियों का शिकार हो गए. बाद में अमेरिका ने खुद ये बात स्वीकारी थी.
क्या युद्ध में विनाश का जोखिम देखते हुए जैविक हथियारों पर रोक लगी है
जैविक हथियारों को दुनिया ने सबसे खतरनाक हथियारों में से एक माना जो बहुत कम खर्च पर भारी तबाही मचा सकता है. इस पर रोक लगाने के लिए नियम भी बने
- साल 1925 का जेनेवा प्रोटोकॉल पहला समझौता था, जिसमें जैविक हथियारों के इस्तेमाल पर रोक लगाने को कहा गया. लेकिन ये हथियार बनाने पर रोक नहीं लगाता था.
- सत्तर की शुरुआत में बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन हुआ, जो अहम ग्लोबल संधि है. इसके तहत कोई भी देश जैविक हथियार न बनाएगा, न रखेगा, न इस्तेमाल करेगा.
- हर पांच साल में देशों की बैठक होती है, ताकि नई बीमारियां, तकनीक और खतरों को देखते हुए नियमों को मजबूत किया जा सके.

कोई भी देश आधिकारिक तौर पर नहीं मानता कि वह जैविक हथियार बना रहा है, क्योंकि BWC संधि के तहत ऐसा करना गैरकानूनी है. लेकिन खतरा इतना बड़ा है कि इसके आसपास कई कंस्पिरेसी थ्योरीज़ हमेशा चलती रहती हैं. मसलन, बड़ी शक्तियां गुपचुप तौर पर वायरस पर रिसर्च कर रही हैं. या कई लैब्स में डुअल यूज तकनीक होती है, जिसमें पैथोजन पर हुआ शोध दवाओं के लिए भी इस्तेमाल हो सकता है और हथियारों के लिए भी. रूस और पश्चिमी देश भी अक्सर एक-दूसरे पर आरोप लगाते रहे कि वे बायो वेपन टेस्ट कर रहे हैं. यहां तक कि कोरोना के समय भी लैब लीक की बात फैली थी, लेकिन इसके सबूत नहीं मिल सके.
यूक्रेन पर भी लग चुका आरोप
हाल के रूस-यूक्रेन युद्ध को ही लें तो साल 2022 में रूस ने दावा किया था कि अमेरिका कीव में सीक्रेट बायो वेपन्स पर काम कर रहा है. हालांकि यूक्रेन और अमेरिका, दोनों ने ही इससे इनकार कर दिया. संयुक्त राष्ट्र ने भी रूसी दावों की जांच की और कहा कि यूक्रेन में जैविक हथियार प्रोग्राम का कोई प्रमाण नहीं.
WW3 में बायोवेपन के उपयोग की आशंका कितनी
अगर तीसरा युद्ध छिड़ भी जाए तो इसकी संभावना बहुत कम है. नियम के मुताबिक, सभी देशों के पास डिटरेंस का अधिकार है. अगर कोई देश बायो हमला करता है, तो उसके खिलाफ परमाणु तक इस्तेमाल हो सकता है. इसके अलावा सबसे बड़ी वजह ये है कि यह हथियार खुद हमलावर को भी मार सकता है. कोई भी सरकार इतना बड़ा जोखिम नहीं लेना चाहेगी कि उसका छोड़ा वेपन खुद उसके देश में फैलकर लाखों जानें ले ले.