सैन्य बगावत ने छीना परिवार, छात्र बगावत ने सत्ता... शेख हसीना के राजनीतिक उदय से अंत तक की पूरी कहानी

बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना का सत्ता से पतन 2024 के छात्र आंदोलन से शुरू होकर 2025 में उनके अनुपस्थिति में सुनाए गए मृत्युदंड तक पहुंचा. दशकों तक देश पर प्रभाव रखने वाली हसीना के उदय, उपलब्धियों, विवादों और गिरावट की यह कहानी बांग्लादेश की राजनीति के सबसे बड़े मोड़ को दर्शाती है.

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शेख हसीना को क्राइम अगेंस्ट ह्युमनिटी के लिए मौत की सजा सुनाई गई है. (Photo: ITG) शेख हसीना को क्राइम अगेंस्ट ह्युमनिटी के लिए मौत की सजा सुनाई गई है. (Photo: ITG)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 17 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 4:42 PM IST

लगभग दो दशकों तक शेख हसीना का नाम बांग्लादेश की राजनीति की धड़कन से जुड़ा रहा - कभी स्थिर, कभी तूफानी. समर्थकों के लिए वह आधुनिक और विकसित बांग्लादेश की निर्माता थीं, जबकि आलोचकों की नजर में वह एक ऐसी नेता थीं जिनकी सत्ता की भूख ने सड़क पर उठती आवाजों को दबा दिया.

लेकिन शायद ही किसी ने सोचा होगा कि वही ट्राइब्यूनल, जिसे उन्होंने युद्ध अपराधियों की सुनवाई के लिए बनाया था, आखिर में उन्हें ही दोषी ठहराएगा.

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शेख हसीना का जन्म 28 सितंबर 1947 को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के तुंगीपाड़ा में हुआ. उनके पिता शेख मुजीबुर रहमान ने 1971 में भारत की मदद से बांग्लादेश की आजादी का नेतृत्व किया और देश के प्रथम राष्ट्रपति बनकर नई पहचान दी.

कहां से शुरू हुई शेख हसीना की राजनीतिक कहानी

ढाका विश्वविद्यालय से बांग्ला साहित्य में मास्टर डिग्री लेने के बाद वह छात्र राजनीति में सक्रिय हो गईं. 1968 में उन्होंने परमाणु वैज्ञानिक एमए वाजेद मियां से शादी किया, जिनका शांत और शैक्षणिक जीवन बांग्लादेश की उथल-पुथल भरी राजनीति से बिलकुल अलग था. वाजेद 2009 में निधन तक हसीना की व्यक्तिगत स्थिरता का केंद्र बने रहे.

अगस्त 1975 की सैन्य बगावत ने हसीना की जिंदगी की दिशा पूरी तरह बदल दी. इस तख्तापलट में उनके पिता, मां, तीनों भाई और कई रिश्तेदार मारे गए. हसीना और उनकी बहन रिहाना सिर्फ इसलिए बचीं क्योंकि वे विदेश में थीं. भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें शरण दी. छह वर्षों बाद, 1981 में, शेख हसीना वापस लौटीं और अनुपस्थिति में ही अवामी लीग की अध्यक्ष चुनी गईं.

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'बैटलिंग बेगम्स' की विनर रहीं शेख हसीना!

1981 में ही उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी खालिदा जिया भी उभर चुकी थीं. अगले तीन दशकों तक दोनों नेताओं की कट्टर प्रतिद्वंद्विता - 'बैटलिंग बेगम्स' ने बांग्लादेश की राजनीतिक दिशा निर्धारित की. हसीना 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बनीं, 2001 में सत्ता खोईं, और 2008 में भारी बहुमत के साथ लौटकर लगातार तीन चुनाव (2008, 2014, 2018) जीतती चली गईं.

उनके नेतृत्व में आर्थिक विकास, पद्मा ब्रिज जैसे बड़े प्रोजेक्ट और गरीबी में कमी जैसे काम हुए, लेकिन साथ ही मीडिया प्रतिबंध, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और असहमति पर कार्रवाई के आरोप भी बढ़ते गए.

आरक्षण की नीतियां बनी तख्तापलट की वजह

2024 में आरक्षण नीति के विरोध से शुरू हुआ छात्र आंदोलन जल्द ही शासन-विरोधी बगावत में बदल गया. सुरक्षा कार्रवाई में बढ़ती मौतों और हिंसा ने हालात को विस्फोटक बना दिया. 5 अगस्त 2024 को हसीना सरकार गिर गई और वह भारत भाग गईं.

उनके पतन के बाद मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार ने उसी अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (ICT-BD) को पुनर्गठित कर शेख हसीना पर मानवता के खिलाफ अपराधों के आरोप लगाए. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि जुलाई-अगस्त 2024 के बीच 1,400 लोग मारे गए थे.

अब शेख हसीना को क्राइम अगेंस्ट ह्युमनिटी के लिए मौत की सजा

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और फिर 17 नवंबर 2025 को, महीनों तक चली सुनवाई के बाद, वह फैसला आया जिसकी कल्पना भी मुश्किल थी - चार बार PM रहीं शेख हसीना को मृत्युदंड. अब भारत में निर्वासन में रहकर हसीना उस देश को दूर से देख रही हैं, जिसे उन्होंने दशकों तक बनाया, चलाया और अंत में अपने ही शासन की कठोरता के कारण खो दिया.

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