जिस देश में एक तीतर की रक्षा के लिए युद्ध हुआ वो शरण में आई शेख हसीना को कैसे बांग्लादेश को सौंप देगा...

गुजरात में 1474 के युद्ध में तीतर की रक्षा के लिए राजपूतों, ब्राह्मणों, ग्वालों और हरिजनों की एकजुट सेना ने चाबड़ जनजाति के शिकारीयों से लड़ाई लड़ी, जिसमें 140 से 200 लोग मारे गए. यह घटना भारतीय सभ्यता में शरण देने और अभयदान की परंपरा को दिखाती है. बांग्लादेश जो बार-बार हसीना को सौंपने की मांग कर रहा है, उसे भारत के इतिहास के बारे में थोड़ी जानकारी ले लेनी चाहिए.

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मरकर भी शरणागत की रक्षा भारत का धर्म रहा है (Images: The Family of Nainsukh/AFP/File) मरकर भी शरणागत की रक्षा भारत का धर्म रहा है (Images: The Family of Nainsukh/AFP/File)

युद्धजीत शंकर दास

  • नई दिल्ली,
  • 26 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 5:32 PM IST

गुजरात में सदियों से कवि और भाट एक वीरगाथा गा रहे हैं. यह वीरगाथा उस घटना की है जब चाबड़ जनजाति के शिकारी एक तीतर का पीछा कर रहे थे. घायल तीतर भागकर सोढ़ा परमार राजपूतों के तंबू में शरण ले लेता है. उस तीतर की रक्षा के लिए 100 से अधिक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी. सुरेंद्रनगर जिले के मुली में मौजूद स्मृति-शिलाएं 1474 में हुए इस युद्ध की गवाही देती हैं.

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इस संघर्ष में राजपूतों, ब्राह्मणों, ग्वालों और हरिजनों की एकजुट सेना ने चाबड़ शिकारियों से युद्ध किया. अलग-अलग विवरणों के अनुसार, इस लड़ाई में चाबड़ शिकारियों से लड़ते हुए 140 से 200 लोग मारे गए. लड़ाई में शिकारियों को भारी नुकसान हुआ और घायल तीतर के लिए लड़ाई में 400 से अधिक शिकारी मारे गए. आज भी मुली में तीतर को श्रद्धा की नजर से देखा जाता है.

जिस धरती के लोगों ने एक तीतर की रक्षा के लिए अपनी जान तक दे दी, उनसे यह उम्मीद करना मुश्किल है कि वो भारत के मित्र माने जाने वाले किसी इंसान को दुश्मनों के हवाले कर देंगे. बांग्लादेश बार-बार अपदस्थ प्रधानमंत्री और अवामी लीग प्रमुख शेख हसीना को सौंपने की मांग कर रहा है.

जब भारत की शरण में छह साल रहीं शेख हसीना

मुली के तीतर के मामले से अलग, शेख हसीना के मामले में कानून, निष्पक्ष न्याय और द्विपक्षीय संधियों जैसे पहलू भी लागू होते हैं. शेख हसीना 5 अगस्त 2024 से भारत में हैं. शरण मांगने वाले की रक्षा करना धर्म माना जाता है. यह भारतीय सभ्यता का मूल संस्कार रहा है, जिसकी झलक महाकाव्यों की कथाओं में भी मिलती है.

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1975 में, जब शेख हसीना के पिता और बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति मुजीबुर रहमान की उनके परिवार समेत हत्या कर दी गई थी तब शेख हसीना अपने बच्चों, पति और बहन के साथ भारत आ गईं. वो छह साल तक(1981 तक) नई दिल्ली के पंडारा रोड पर एक अलग पहचान के तहत रहीं.

शरण लेने वाले की रक्षा को नैतिक कर्तव्य मानने का उल्लेख 16वीं सदी में लिखी गई तुलसीदास की रामचरितमानस में भी मिलता है. वो लिखते हैं, 'जो अपने अहित के भय से शरण आए व्यक्ति को त्याग देता है, वह नीच और पापी होता है, और उसका दर्शन भी अशुभ होता है.'

यह प्रसंग तब का है जब भगवान राम लंका के राजा रावण के भाई विभीषण की रक्षा के पक्ष में तर्क देते हुए. विभीषण युद्ध के दौरान शरण के लिए राम के पास पहुंचे थे.

राजा शिबि ने कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर के मांस का त्याग कर दिया था

शरण देने और अभयदान की अवधारणा राजा शिबि चक्रवर्ती की पौराणिक कथा में भी मिलती है. राजा शिबि ने अपने आंचल में गिरी कबूतर की रक्षा के लिए बाज को अपना मांस तक काटकर दे दिया था. अभयदान बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धांतों में भी शामिल है, जहां बोधिसत्वों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने प्राणों की आहुति देकर भी सभी जीवों की रक्षा करें.

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गुजरात में धर्म के पालन का एक और उदाहरण 1591 में हुए भुचर मोरी के युद्ध में मिलता है. नवानगर के जाम सताजी ने गुजरात सल्तनत के अंतिम शासक मुजफ्फर शाह तृतीय को शरण देने के लिए मुगल सम्राट अकबर से लोहा ले लिया था. मुजफ्फर शाह मुगलों की कैद से भागकर शरण के लिए जाम सताजी से पास पहुंचे.

अकबर ने जाम सताजी से कहा कि वो मुजफ्फर शाह को उन्हें सौंप दें और युद्ध से अपने राज्य को बचा लें. लेकिन सताजी धर्म के मार्ग पर अडिग रहे. नतीजा, अकबर का कोप सताजी पर टूट पड़ा और भुचर मोरी के पठार पर भीषण युद्ध शुरू हुआ जो लंबे समय तक चला. इस युद्ध को सौराष्ट्र का पानीपत कहा जाता है. शरणागत की रक्षा के लिए लड़ाई में सताजी ने नवविवाहित पुत्र कुंवर अजीजी तृतीय सहित 60 से अधिक रिश्तेदारों का बलिदान दे दिया. 

शरणागत की रक्षा के लिए दिल्ली सल्तनत से लिया लोहा

भारतीय इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहां युद्ध भूमि या सत्ता के लिए नहीं, बल्कि शरण की मर्यादा भंग न करने के संकल्प के लिए लड़े गए. इसका प्रतिबिंब 13वीं सदी में रणथंभौर के राजपूत शासक हम्मीर देव चौहान, जिन्हें हमीर हथ्थी भी कहा जाता है, के बलिदान में दिखता है.

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हम्मीर देव चौहान ने 1299 में अलाउद्दीन खिलजी की सेना को हराया था और उसके सेनापति नुसरत खान को मार गिराया था. लेकिन 1301 में दूसरा युद्ध इसलिए हुआ, क्योंकि चौहान ने खिलजी के रिश्तेदार और सेनापति मोहम्मद शाह को शरण दी थी. शाह खिलजी से मतभेद के बाद रणथंभौर आ गया था.

चौहान इस बात को बखूबी जानते थे कि अगर वो मोहम्मद शाह को शरण देंगे तो दिल्ली सल्तनत पूरी ताकत से उनके राज्य पर हमला करेगी. बावजूद इसके उन्होंने मोहम्मद शाह को सौंपने से इनकार कर दिया. खिलजी ने इसे खुली चुनौती माना और स्वयं रणथंभौर पर चढ़ाई की. लंबे घेराव के बाद किला उसके हाथ लगा, लेकिन चौहान और उनके लोगों ने अपमान के बजाय मृत्यु को चुना. उनकी वीरता का वर्णन जैन विद्वान नयचंद्र सूरी की लिखी ‘हम्मीर महाकाव्य’ में मिलता है.

जब चीन को भारत ने आंख दिखा दी तो बांग्लादेश क्या है

आधुनिक भारतीय इतिहास में भी शरण मांगने वाले की रक्षा का बड़ा उदाहरण मौजूद है. 1959 में तिब्बत के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा कम्युनिस्ट चीन के दबाव से बचकर भारत आए. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने न सिर्फ दलाई लामा, बल्कि करीब 80 हजार तिब्बतियों को शरण दी. भारत के इस कदम और फिर सीमा विवाद, इन दोनों कारणों से भारत-चीन के बीच 1962 का युद्ध हुआ.

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नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, आठ दशकों से अधिक समय से चीन तिब्बत मुद्दे पर विरोध जताता रहा है, लेकिन भारत ने अपने अभयदान के धर्म से कभी पीछे हटने का रास्ता नहीं चुना.

चाहे तीतर हो, विद्रोही शासक हो या राजनीतिक शरणार्थी, भारत ने हमेशा शरण मांगने वाले की रक्षा के धर्म का पालन किया है. राजाओं ने सम्राटों को चुनौती दी और आधुनिक भारत ने शक्तिशाली चीन का सामना किया. शेख हसीना को सौंपने की मांग करने वालों को यह बात याद रखनी चाहिए कि भारत का मार्ग धर्म के सिद्धांतों पर चलता है.

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