उत्तर प्रदेश में दोबारा पांव जमाने के लिए समाजवादी पार्टी की साइकिल ने अपनी चाल बदल दी है. लोकसभा चुनाव से पहले सपा की सियासी लैब में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग से मुकाबला करने के लिए नया फॉर्मूला तैयार किया गया है. सपा, सूबे में अभी तक मुस्लिम-यादव समीकरण के बूते सियासत करती रही है, लेकिन 2014 से बीजेपी से पार नहीं पा रही थी. ऐसे में इस बार पार्टी की नजर ओबीसी-अतिपिछड़े-दलित और मुस्लिम वोटबैंक पर टिकी है.सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने सटीक रणनीति के तहत एम-वाई समीकरण के साथ अतिपिछड़े, दलित चेहरा को संगठन में जगह देकर यूपी में बीजेपी से दो-दो हाथ करने के लिए कमर कसी है.
बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग
बता दें कि बीजेपी ने यूपी में अपने सियासी वनवास को खत्म करने के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव में सवर्ण वोटर्स को साधे रखते हुए गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदाय को जोड़कर एक नई सोशल इंजीनियरिंग तैयार करने का काम किया था.
अबतक बीजेपी ने अपनी इसी रणनीति से सपा और बसपा दोनों के वोटबैंक में जबरदस्त तरीके से सेंधमारी करके अपना एक मजबूत सियासी आधार तैयार किया, जिसके दम पर 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव और 2017 व 2022 के विधानसभा चुनाव जीतने में सफल रही.
सपा की रणनीति में बदलाव
बीजेपी अपनी इस नए सोशल इंजीनियरिंग के जरिए सूबे में 40 से 50 फीसदी के बीच वोट शेयर तैयार कर लिया है, जिसके चलते सपा और बीएसपी सहित तमाम विपक्षी पार्टियों की न तो कोई रणनीति और न ही राजनीतिक प्रयोग सफल हो पा रहा हैं. ऐसे में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अपनी रणनीति में एक बदलाव किया है और नया सियासी फॉर्मूला तैयार किया है, जिसके जरिए सपा के वोट शेयर को 36 फीसदी से बढ़ाकर 40 से 45 फीसदी तक ले जाने की रणनीति है.
80-15 का फॉर्मूला
बीजेपी 2024 के चुनाव में 50 फीसदी प्लस वोटों के साथ यूपी की सभी 80 संसदीय सीटें जीतने का टारगेट रखा है. बीजेपी इस लक्ष्य का हासिल करने के लिए अपने कोर वोटबैंक सवर्ण मतदाताओं को साधे रखते हुए ओबीसी, दलित और पसमांदा मुस्लिमों को जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है.इस तरह बीजेपी अपने वोट शेयर को करीब 60 फीसदी तक ले जाने का तानाबाना बुन रही है, जिसके जवाब में बसपा ने दलित-मुस्लिम का कॉम्बीनेशन बना रही है तो सपा मुस्लिम और यादव को साथ रखते हुए 85-15 के फॉर्मूले पर अपने कदम बढ़ दिए हैं.
सपा के महासचिव की फेहरिश्त में किसी भी ठाकुर और ब्राह्मण नेताओं को जगह नहीं मिली, क्योंकि सूबे में ठाकुर समुदाय का बड़ा तबका बीजेपी में है और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो दूसरी दलों के ठाकुर नेता भी बीजेपी में शामिल हो गए थे. ब्राह्मणों और वैश्य समुदाय की भी पहली पसंद बीजेपी ही है. ऐसे में सपा ने सवर्ण समुदाय के बजाय दलित और ओबीसी के सहारे आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई है.
राष्ट्रीय कार्यकारिणी का गठन और अखिलेश का दांव
यूपी के सियासी समीकरण को देखते हुए अखिलेश यादव ने सपा संगठन में 83 फीसदी दलित-ओबीसी और अल्पसंख्यकों को जगह दी है तो 17 फीसदी सवर्ण समुदाय के नेताओं को शामिल किया है. बीजेपी यूपी में जिस तरह से अतिपिछड़ी और गैर-जाटव ओबीसी जातियों के जरिए अपनी सियासी जड़े जमायी है, उसी तरह से अखिलेश यादव भी 80 फीसदी से ज्यादा दलित-ओबीसी-अल्पसंख्यक नेताओं को संगठन में जगह देकर यूपी की सियासी रण में बीजेपी से मुकाबला करने की दांव चला है.
दरअसल, उत्तर प्रदेश की सियासत मंडल कमीशन के बाद ओबीसी समुदाय के इर्द-गिर्द सिमट गई है. सूबे की सभी पार्टियां ओबीसी को केंद्र में रखते हुए अपनी राजनीतिक एजेंडा सेट कर रही हैं. यूपी में सबसे बड़ा वोटबैंक पिछड़ा वर्ग का है. सूबे में 52 फीसदी पिछड़ा वर्ग की आबादी है, जिसमें 43 फीसदी गैर-यादव यानी जातियों को अतिपिछड़े वर्ग के तौर पर माना जाता है. ओबीसी की 79 जातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर कुर्मी समुदाय की है.
यूपी में ओबीसी और दलित फैक्टर
यूपी में ओबीसी वोटर्स को साध कर मुलायम सिंह यादव ने राजनीति की तो दलित व अतिपिछड़ी की राजनीतिक ताकत को सबसे पहले बसपा संस्थापक कांशीराम ने समझा था. मुलायम सिंह यादव ने ओबीसी ताकतवर जातियों यादव-कुर्मी के साथ मुस्लिम का गठजोड़ बनाया तो कांशीराम ने दलित समुदाय के साथ अतिपिछड़ों की मौर्य, कुशवाहा, नई, पाल, राजभर, नोनिया, बिंद, मल्लाह, साहू जैसी समुदाय के नेताओं को बसपा संगठन से लेकर सरकार तक में प्रतिनिधित्व दिया था. अतिपिछड़ी जातियां ही बसपा की बड़ी ताकत बनी थी, जिसके दम पर बीजेपी केंद्र और प्रदेश की सत्ता पर काबिज है.
बीजेपी की राजनीति और बसपा का सियासी आधार
साल 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ओबीसी समुदाय का बड़ा तबका अभी बीजेपी के साथ है और पार्टी भी अपनी हिंदुत्व के सियासत के जरिए उनके विश्वास को बनाए रखने की कवायद में है. बीजेपी ने सवर्ण वोटों पर अपनी पकड़ रखते हुए गैर-यादव ओबीसी जातियों को साधकर उत्तर प्रदेश में अपनी सत्ता का सूखा खत्म किया था जबकि बसपा के हाथों से खिसक जाने के चलते उसे वर्षों से सियासी वनवास झेलना पड़ रहा है और सपा भी 2017 से सत्ता से बाहर है. बसपा का सियासी आधार उत्तर प्रदेश में घटा है. आंकड़ों पर गौर करें तो बसपा का वोटबैंक 2012 में करीब 26 फीसदी, 2017 में 22.4 और 2022 में 12.7 फीसदी पर पहुंच गया है.
अखिलेश की बसपा के वोट बैंक में सेंधमारी!
यूपी में चुनाव-दर-चुनाव बसपा का सियासी आधार कमजोर हो रहा है तो बीजेपी 50 फीसदी वोटों के साथ सत्ता में बैठी है और केंद्र में हैट्रिक लगाने के लिए यूपी पर खास फोकस कर रखा है. ऐसे में अखिलेश की अब कोशिश यादव-मुस्लिम पर मजबूत पकड़ बनाए रखते के साथ-साथ ओबीसी के अतिपिछड़ी जातियों और दलित को भी एकजुट करना है. बसपा के वोट में सेंधमारी के लिए अखिलेश ने अबेंडकरवादियों नेताओं को खास तरजीह दी है ताकि दलित वोटों और अतिपिछड़ी जातीय के वोटबैंक को साध सके.
अखिलेश यादव ने रविवार को 64 सदस्यों के राष्ट्रीय संगठन पदाधिकारियों का ऐलान किया, जिसमें 83 फीसदी में दलित, ओबीसी और मुस्लिमों को जगह मिली है जबकि 17 फीसदी के करीब सवर्ण समुदाय से हैं. सपा की 64 सदस्यीय टीम में 11 यादव और 10 मुस्लिम जो लगभग 33 फीसदी होते हैं. वहीं, सपा संगठन में 40 फीसदी से ज्यादा गैर-यादव ओबीसी चेहरे शामिल किए गए हैं, जिसमें अखिलेश यादव ने अति पिछड़ी जातियों पर ज्यादा फोकस रखा है.
सपा का नया दांव
सपा के राष्ट्रीय संगठन में पाल, निषाद, प्रजापित, राजभर, विश्वकर्मा, चौहान, मौर्य, कुशवाहा और कुर्मी बिरादरी को तवज्जो दी गई है. दलित समुदाय से छह और एक आदिवासी समुदाय को संगठन में जगह दी गई है तो 11 चेहरे सवर्ण जाति से हैं, जिसमें चार ब्राह्मण और दो ठाकुर और एक भूमिहार समाज से हैं. अखिलेश अपने संगठन को जातीय के उसी फॉर्मूले पर प्रतिनिधित्व दिया है, जिस पर बसपा के संस्थापक कांशीराम चल रहे थे. अखिलेश यादव ने 2019 के बाद से ही समाजवादी और आंबेडकरवादियों के साथ मिलकर बीजेपी को मात देने का फॉर्मूला तैयार कर रहे हैं.
सपा के राष्ट्रीय संगठन को देखें तो अखिलेश यादव की पूरी कोशिश गैर-यादव ओबीसी गोलबंदी पर फोकस है, जिसमें कुर्मी समुदाय के सबसे ज्यादा तवज्जे दी गई है. दो कुर्मी नेताओं को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है तो राष्ट्रीय सचिव और सदस्य में भी उन्हें जगह दी गई. कुर्मी समुदाय का बड़ा तबका फिलहाल बीजेपी के साथ है, जिसे अखिलेश यादव जोड़ने में 2022 में कुछ हद तक सफल रहे थे.
बीजेपी के वोटबैंक पर अखिलेश की नजर
ऐसे में अखिलेश, बीजेपी को भले ही सत्ता में आने से नहीं रोक सके हों, लेकिन सपा को 47 विधायकों से बढ़ाकर 111 तक पहुंचने में जरूर सफल रहे थे. इसी फॉर्मूले को अब और भी आगे बढ़ाने की कवायद की है. इसी तरह बीजेपी के कोर वोटबैंक बन चुके मौर्य-कुशवाहा वोटों को जोड़ने की रणनीति पर अखिलेश काम कर रहे हैं. कुर्मी और अतिपिछड़ी जातियों के साथ-साथ दलितों को भी सपा अपने साथ जोड़ने की कवायद कर रही है.
दलित बिरादरी में खासकर पासी समुदाय को ज्यादा तवज्जो दी गई है. सपा को लगता है कि दलितों के वर्ग में उनके साथ जुड़ने की ज्यादा संभावनाएं हैं. इसी उम्मीद में अखिलेश यादव ने दलितों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले पासी समुदाय से दो महासचिव बनाए हैं तो चार सचिव और सदस्य बनाए गए हैं. पासी जाति से आने वाले अवधेश प्रसाद, इंद्रजीत सरोज सपा के महासचिव बने हैं. ये दोनों ही पासी समुदाय के नेता सेंट्रल यूपी से आते हैं. इसके अलावा जाटव समुदाय से रामजीलाल सुमन है, जो यूपी के ब्रज क्षेत्र से हैं.
स्वामी प्रसाद मौर्य को आंबेडकरवादी चेहरा साबित करने के प्रयास!
दलित नेता त्रिभुवन दत्त को राष्ट्रीय सचिव बनाया गया है, जो कांशीराम की राजनीतिक प्रयोगशाला से ही निकले हैं. संजय विद्यार्थी को सपा की नई टीम में जगह मिली है. स्वामी प्रसाद मौर्य को राष्ट्रीय महासचिव बनाना और जातिगत जनगणना पर उन्हें आगे बढ़ने की छूट अखिलेश यादव ने दे दी है. स्वामी प्रसाद मौर्य दलित और अतिपछड़ी जाति के बड़े पक्षधर वाले नेता माने जाते. स्वामी प्रसाद मौर्य यूपी की सियासत में सपा की राजनीति में समाजवाद के साथ-साथ आंबेडकरवादी चेहरा गढ़ना चाहते है. इसके अलावा रामअचल राजभर और लालजी वर्मा जैसे ओबीसी नेताओं को भी जगह दी गई, जो कांशीराम की पाठशाला से निकले हैं.
'कमंडल' और सोशल इंजीनियरिंग
यूपी की सियासत में अखिलेश यादव को यह बात समझ में आ गई है कि बीजेपी की कमंडल और सोशल इंजीनियरिंग को सिर्फ मंडल और आंबेडकरवादियों की सियासत से ही मात दिया जा सकता है, जिसके लिए उन्होंने समाजवादी नेताओं के साथ-साथ दलित और अतिपिछड़ी जातियों का फॉर्मूला तैयार किया है.
सपा के मैनपुरी लोकसभा चुनाव में इस फॉर्मूल से बीजेपी को हराने का मंत्र मिला था, जिसे 2024 के चुनाव में अमलीजामा पहनाने का बीढ़ा अखिलेश यादव ने उठाया है. 2022 के विधानसभा चुनाव में जातीय आधार वाले दलों के साथ मिलकर बीजेपी को कड़ी चुनौती दी थी, जिसे अगर लोकसभा सीटों पर तब्दील करते हैं तो 25 संसदीय सीटें होती है. सपा इसी रणनीति के तहत 2024 के चुनाव का तानाबाना बुन रही है. ऐसे में देखना है कि बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग के दांव को अखिलेश कैसे अपने जातीय फॉर्मूले से मात दे पाते हैं?
कुबूल अहमद