रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (RCB) का बेंगलुरु शहर से आखिर क्या नाता है? यह तो दुनियाभर से नीलामी में खरीदे गए किराए के खिलाड़ियों का एक झुंड है, जिसमें इस साल स्थानीय खिलाड़ियों की संख्या गिनी-चुनी ही है. उदाहरण के लिए देवदत्त पडिक्कल, मनोज भंडागे और मयंक अग्रवाल.
कागजों पर इस टीम का नेतृत्व इंदौर के एक खिलाड़ी के पास है और असल में एक पंजाबी खिलाड़ी के हाथों में है, जो दिल्ली से आता है. खिलाड़ियों की वफादारी भी ऊंची बोली लगाने वाले के हाथ बिक जाती है. 17 सीजन तक आईपीएल खिताब से दूर रहने के बाद, ये ‘ग्लोबल फ्रीलांसरों’ की टोली आखिरकार एक क्रिकेट लीग जीत जाती है तो बेंगलुरु शहर में इस जीत का ऐसा पागलपन छा गया जैसे कि इस टीम ने कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट जीत लिया हो.
शहर प्रशासन को भीड़ नियंत्रण के इंतजामों- जैसे पुलिसिंग या बैरिकेड्स की कमी के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए. लेकिन यह हादसा एक ऐसी टीम के लिए पाले गए गर्व से भी उपजी, जिसका शहर से कोई गहरा रिश्ता नहीं था और इस पागलपन को कॉर्पोरेट लालच ने जमकर भुनाया.
लालच और डर
आईपीएल और दुनियाभर की तमाम ऐसी ज्यादातर सिटी-बेस्ड लीग्स, क्षेत्रीय गर्व को भुनाने का शातिर तरीका हैं. शहरों और राज्यों के नाम पर टीम बनाकर वे ‘जुड़ाव’ का सस्ता दिखावा करती हैं. असल में लगभग हर टीम बाहरी खिलाड़ियों से सजी होती है, जो कभी-कभी अपने ही घरेलू मैदान पर विपक्ष के लिए खेलते दिखते हैं. सोचिए, जब कोलकाता नाइट राइडर्स, जिसका मालिक मुंबई का फिल्म स्टार है और टीम में शायद ही कोई कोलकाता का खिलाड़ी है, दिल्ली कैपिटल्स से भिड़ती है, जिसके डायरेक्टर हैं बंगाल के गौरव सौरव गांगुली. या जब आरसीबी के फैंस राजस्थान रॉयल्स के खिलाफ तालियां बजाते हैं, जिसके कोच हैं कर्नाटक के हीरो राहुल द्रविड़. शहर की टीमों के लिए यह ‘वफादारी’ इतनी उलझी हुई और दिखावटी है कि यह मजाक जैसा लगता है.
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राष्ट्रीय टीम के उलट, ज्यादातर आईपीएल टीमें सिर्फ और सिर्फ कारोबारी उपक्रम होती हैं. इन फ्रेंचाइजियों के मालिक कारोबारी हैं. इन टीमों को एक ब्रांड की तरह बेचा जाता है और उनकी कमाई कॉर्पोरेट बैलेंस शीट में दर्ज होती है. फिर भी, इनके सबसे बड़े निवेशक फैंस ही होते हैं- जो टिकट और भावनाओं पर पैसा खर्च करते हैं और कभी-कभी अपनी जान तक गंवा बैठते हैं.
आखिर फैंस इतनी दीवानगी में क्यों बह जाते हैं? इसकी वजह इंसानी मनोविज्ञान, सामाजिक दबाव और मार्केटिंग की वह चालाकी है, जो हर देश और हर खेल में देखने को मिलती है.
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पहचान की फैक्ट्री
इंसान तर्कशील हो सकता है, लेकिन अक्सर भावनाओं में बह जाता है. जन्म एक जैविक और भौगोलिक संयोग है, लेकिन यही हमारी पहचान का मुख्य आधार बन जाता है. हम अपने जन्म स्थान, जाति और समुदाय पर गर्व करते हैं और दूसरों को नीचा समझते हैं. खेल की फ्रेंचाइजियां इसी जन्मजात भेदभाव और प्रतिद्वंद्विता को भुनाकर हमारा फायदा उठाती हैं.
हम समूहों में रहना पसंद करते हैं. जो हमें किसी बड़े समूह का हिस्सा होने का अहसास दिलाती है. यह बेंगलुरु जैसे बड़े, बहुसांस्कृतिक महानगरों में और भी सच है, जहां भारत के कोने-कोने से लोग आकर बसते हैं और अपनी पुरानी पहचान और सामाजिक समूहों को छोड़ आते हैं. एक ऐसा शहर जो संस्कृति और भाषा के मामले में अलग है, वहां आरसीबी जैसी टीम एक भावनात्मक सहारा और नकली पहचान दे देती है.
आखिर में, हम नायकों की पूजा करते हैं-कभी-कभी देवता बना देते हैं. उनके संघर्ष, जीत और हार हमारी अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाती हैं. यही कारण है कि हम महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली जैसे सितारों के साथ गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं, चाहे उनकी जड़ें हमारे जैसी हों या न हों. दक्षिण भारत में तो नायकों की यह पूजा इतनी तीव्र होती है कि कभी-कभी यह हादसों तक ले जाती है.
सिर्फ नायक या टीम वफादारी ही नहीं, ये कारोबार कड़वी प्रतिद्वंद्विताएं भी पैदा करते हैं. हर मैच से पहले सोशल मीडिया पर नफरत की बाढ़ आ जाती है, जहां दिग्गज खिलाड़ियों को गालियां, हूटिंग और भद्दे ताने झेलने पड़ते हैं. चेन्नई सुपर किंग्स (जिसका कप्तान रांची का खिलाड़ी है) और मुंबई इंडियंस के बीच की दुश्मनी इतनी कड़वी है कि भारत-पाकिस्तान मुकाबले जैसा माहौल बन जाता है.
ब्रॉडकास्टर्स की मदद से आईपीएल इस आदिम मानसिकता को हवा देता है, जिससे फैंस तर्क की बजाय भीड़ की तरह बर्ताव करने लगते हैं. इसका मार्केटिंग तंत्र टिकटों की नकली कमी, एक्सक्लूसिव मर्चेंडाइज और हाई-स्टेक कहानियों के जरिए दर्शकों को दीवाना बनाता है. 2024 में आईपीएल ने करीब 1 अरब डॉलर से ज्यादा की कमाई की, जिसमें करोड़ों मार्केटिंग पर खर्च किए गए, ताकि इस जुनून को और भड़काया जा सके.
मीडिया भी इस बिकाऊ तमाशे को और तूल देता है, जिससे क्षेत्रीय गर्व और नायक पूजा पर आधारित प्रतिद्वंद्विताएं और तीखी हो जाती हैं. यही नकली दीवानगी आम दर्शकों को कट्टर समर्थकों में बदल देती है, जो कभी-कभी बेंगलुरु जैसी भगदड़ों तक पहुंच सकती है.
तो, ऐसे हादसों की जिम्मेदारी किसकी है? फ्रेंचाइजी मालिकों की, शहर प्रशासन की, और उस संस्कृति की जो खेल को तर्क की बजाय तमाशा बना देती है. लेकिन सबसे बड़ी कीमत तो उन फैंस को चुकानी पड़ती है, जो अनजाने में फैक्ट्री में तैयार वफादारी का सबसे बड़ा शिकार बन जाते हैं.
(यह लेख संदीपन शर्मा का है जो क्रिकेट, सिनेमा और इतिहास पर कहानियां बुनना पसंद करते हैं. वह 25 साल से पत्रकार और लेखक हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)
संदीपन शर्मा