असुर के शरीर पर बसा है गया तीर्थ, उसके नाम पर ही हुआ नामकरण... बिहार सरकार ने अब बदला नाम

बिहार में स्थित गया शहर प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है. जीवन के 16 संस्कारों में अंत्येष्टि आखिरी पड़ाव है, लेकिन मानवीय जीवन के संबंध एकदम से यहां खत्म नहीं हो जाते है, शायद संसार में अकेली एक ऐसी संस्कृति है, जहां अपनी जड़ों के आखिरी सिरे को भी याद करने, उन्हें श्रद्धांजलि देने और खास तौर पर उन्हें पानी पिलाने की परंपरा कायम है, जिसे तर्पण कहते हैं

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गया जी तीर्थ की पौराणिक कथा वायु पुराण में वर्णित है गया जी तीर्थ की पौराणिक कथा वायु पुराण में वर्णित है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 17 मई 2025,
  • अपडेटेड 6:52 AM IST

बिहार के गया शहर को अब गयाजी के नाम से जाना जाएगा. बिहार सरकार ने शुक्रवार को गया शहर के पौराणिक, ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के मद्देनजर इसका नाम गयाजी करने का निर्णय लिया है.

प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में शुक्रवार को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इस प्रस्ताव को स्वीकृति दी गई. मंत्रिमंडल की बैठक के बाद कैबिनेट के अपर मुख्य सचिव डा. एस सिद्धार्थ ने बताया कि गयाजी नामकरण के साथ ही यह निर्णय भी लिया गया है कि बोधगया जहां निरंतर पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है वहां एक बौद्ध ध्यान एवं अनुभव केंद्र का निर्माण कराया जाएगा.

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गयाजी में है तर्पण की परंपरा

हालांकि बिहार में स्थित गया शहर प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है. जीवन के 16 संस्कारों में अंत्येष्टि आखिरी पड़ाव है, लेकिन मानवीय जीवन के संबंध एकदम से यहां खत्म नहीं हो जाते है, शायद संसार में अकेली एक ऐसी संस्कृति है, जहां अपनी जड़ों के आखिरी सिरे को भी याद करने, उन्हें श्रद्धांजलि देने और खास तौर पर उन्हें पानी पिलाने की परंपरा कायम है, जिसे तर्पण कहते हैं. इसी कारण गया शहर को सामान्य लोक बोलचाल में गयाजी ही कहा जाता है और इसे सभी तीर्थों और धामों में से सबसे उत्तम माना जाता है. यहां पितरों का तर्पण किया जाता है और कहते हैं कि गया तीर्थ में तर्पण करने से मनुष्य अपने 25 पीढ़ी तक के पितरों को मुक्ति दिलाता है. 

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बिहार में स्थित गयातीर्थ सनतान परंपरा का महत्वपूर्ण और अद्भुत तीर्थ है. तीर्थराज प्रयाग और ऋषिकेश की ही तरह गया को स्थान महत्ता के आधार पर गयाजी कहते हैं. पितृपक्ष के अवसर पर यहां पितरों को तर्पण आदि दिया जाता है. मान्यता है कि सर्वपितृ अमावस्या के दौरान गयाजी में पितरों को पानी देने से वह तृप्त होते हैं और वैकुंठ को जाते हैं. 

गया में है भगवान विष्णु का विष्णुपद मंदिर

गया तीर्थ की इस महत्ता का कारण है यहां स्थित श्रीविष्णु पद मंदिर. भगवान विष्णु के चरण कमल की छाप -पदचिह्न वाले इस मंदिर को विष्णुपद मंदिर कहा जाता है. इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है. ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के तर्पण के बाद इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से दुखों का नाश होता है और पूर्वज पुण्यलोक को प्राप्त करते हैं. फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर श्रद्धालुओं के अलावा पर्यटकों के बीच भी काफी लोकप्रिय है. 

श्रद्धालु इन पदचिह्नों पर लाल चंदन से करते हैं. इस पर गदा, चक्र, शंख आदि अंकित किए जाते हैं. यह परंपरा भी काफी प्राचीन काल चली आ रही है और इसी मंदिर से जुड़ा है गया तीर्थ के नामकरण का इतिहास. जानकर आश्चर्य हो सकता है, जिस गया तीर्थ को सभी तीर्थों में उत्तम माना गया है, वह तीर्थ एक असुर के नाम पर पड़ा है.  

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वायुपुराण में बड़े ही विस्तार से इसकी कहानी दर्ज है. यह रहस्य देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी के चार बाल मानसपुत्रों सनकादि ऋषियों से पूछा था. उन्होंने पूछा कि गयाजी तीर्थ का क्या महत्व है और इसका नामकरण कैसे हुआ? तब सनत्कुमार ऋषि ने एक कहानी के जरिए इस रहस्य को बताया था. वायु पुराण के गयामहात्म्य खंड में इसका विस्तार से वर्णन है.

गयासुरः कथं जातः, प्रभावः किं-किमात्मकः।
तपस्तप्तं कर्त्तवेन, कथं तेन अपवित्रता॥

सनत्कुमार उवाच —
विष्णोर्नाभिं समुत्पन्नं, पद्मं तस्मात् पितामहः।
प्रजाः सृजेत्यसंप्रोक्तं, पवित्रं तेन विष्णुना॥

आसुरेण भावेन अद्य, सुरान् असृजत जल्परः।
सो मनस्य भावेन देवान्, सुमनसः सृजत् पुनः॥

गयासुरः सुराणां च, मदाभवपराक्रमः।
योजनानां सपादं च, अङ्गुलिस्तस्योर्जितः स्मृतः॥

स्थूलः षष्टि-योजनानां, धृष्टः स वेदवेदितः।
कोकाद्रि गिरिवरे, तपस्तप्तं सुदारुणम्॥

बहुवर्षसहस्राणि, नैराश्येन स्थितो भुवि।
तत्तपस्तापिताः देवा, संक्षोभं परमं गताः॥

ब्रह्मलोकं गताः देवा, पृच्छन्ति पितामहम्।
गयासुरात् क्षयं देवा, ब्रह्माणं तेऽभ्यनन्दिषुः॥

व्रजामः शंकरं देवं, त्राहि त्राहि इति शरणम्।
कैश्चिद् आशु व्रजन्त्यन्ये, रक्ष रक्ष महासुरात्॥

ब्रह्मा वयम् शरणं यामः, शम्भुं नाम महेश्वरम्।
क्षीराब्धौ देवदेवेशं, संप्राप्तं योनिधारिणम्॥

ब्रह्मा महेश्वरौ देवौ, विष्णुं नत्वा प्रार्थयेताम्।
देवा ऊचुः —
ॐ नमो विष्णवे भूम्ने, सर्वेषां प्रभविष्णवे॥

ॐ नमो विष्णवे, जिष्णवे, चराचरस्य नाथाय।
धारिष्णवे, क्षमायै, योगिनां पावनाय च॥

बहुत विशालकाय था गयासुर दैत्य

यह कथा श्वेत वाराह कल्प की है. इस दौरान धरती पर पाप सिर्फ अंश भर था और धर्म अपने पूर्ण रूप में मौजूद था. इसी दौरान असुर कुल में एक दैत्य गयासुर हुआ. बड़ा होने पर वह भी अन्य दैत्यों की भांति विशालकाय और पर्वताकार हो गया.  उसकी विशालता का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि उसकी उंगली की मोटाई ही डेढ़ योजन थी और उसका सारा शरीर साठ योजन लंबा था.

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धर्म के प्रभाव से गयासुर कोकाद्रि नाम के पर्वत पर कठोर तप करने लगा. कई सौ वर्षों तक बिना विचलित हुए तप करने से त्रिलोक में हाहाकार मच गया. बिना किसी आहार के और स्थिर होकर उसकी तपस्या करने से देवता, ऋषि सभी घबराए और ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु के पास पहुंचे. उन्होंने उनसे विनती की और कहा- "हे विष्णुजी! गयासुर अत्यंत बलवान हो गया है, उसके द्वारा समस्त पृथ्वी पर पवित्रता फैल रही है, जिससे यज्ञ-कर्म और धर्मकृत्य निष्फल हो सकते हैं. कृपया उसे कोई ऐसा वर दें जिससे धर्म की रक्षा भी हो जाए और गयासुर की तपस्या भी सफल हो जाए."

भगवान विष्णु ने दिया था गयासुर को पवित्रता का वरदान

जब भगवान विष्णु गयासुर के सामने आए तो उसने कहा, आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी देह को ऐसा पवित्र कर दीजिए कि जो उसे देखे, स्पर्श करे वह सीधे मोक्ष का अधिकारी हो जाए और उसे वैकुंठ या शिवलोक से कम कुछ न मिले. तब भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले - "तथास्तु, ऐसा ही होगा. अब गयासुर पृथ्वी पर सबसे पवित्र व्यक्ति हो गया और उसके प्रभाव से यमलोक, स्वर्गलोक सब कुछ सूना होने लगा, यहां तक कि कर्म पर आधारित धर्म का विचार भी नष्ट हो गया और पापी और पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं रह गया. सृष्टि के संचालन में इस तरह बाधा आने लगी. 

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तब देवताओं ने एक दिन इकट्ठे होकर अपने-अपने अधिकारों और दायित्वों का त्याग करने का निश्चय किया और इसकी जानकारी देने त्रिदेवों के पास पहुंचे. इस पर ब्रह्ना-विष्णु और शंकर जी सभी ने कहा, कि ऐसा नहीं हो सकता है, आप लोगों के अपने कर्म से हट जाने से तो सृ्ष्टि का विनाश हो जाएगा. यह सुनकर देवताओं ने सिर झुका लिया और मौन हो गया. त्रिदेवों के फिर से पूछने पर वायु देवता ने बड़ी विनती से कहा कि, अधिकार और कर्तव्य पालन की जरूरत ही कहां रह गई है. गयासुर सभी कर्म के सिद्धांत को चुनौती दे रहा है. उसके दर्शन मात्र से जीवों को मोक्ष मिल रहा है. ऐसे में क्या ही कर सकते हैं?

ब्रह्माजी ने यज्ञ के लिए मांगी गयासुर की देह 

यह सुनकर ब्रह्नमाजी भी चिंता में आ गए. तब विष्णु जी ने सुझाव दिया कि हे ब्रह्मा, आप धरती पर स्थित किसी सबसे पवित्र तीर्थ पर यज्ञ का आयोजन कीजिए. महाविष्णु की आज्ञा से ब्रह्ना जी पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे लेकिन उन्हें धरती पर एक भी पवित्र स्थान नहीं मिला. तब वह महाविष्णु का संकेत समझकर गयासुर के पास पहुंचे और अपना प्रयोजन बताया. ब्रह्माजी ने कहा, क्योंकि तुमने वरदान में सभी तीर्थों से अधिक पवित्रता मांग ली है, इसलिए तुमसे अधिक पवित्र कोई है नहीं, लेकिन मुझे महाविष्णु की आज्ञा से एक परम पावन यज्ञ करना है तो वह कहां करूं. 

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ब्रह्माजी के इस प्रश्न को सुनकर गयासुर सोच में पड़ गया और फिर बोला कि आपकी बात तो ठीक है, मुझसे पवित्र तो कुछ भी नहीं. बस इसी एक वाक्य से गयासुर के भीतर अहंकार समा गया, क्योंकि अनजाने ही अहं का प्रयोग कर लिया. तब उसने सहर्ष ही अपना शरीर ब्रह्माजी के यज्ञ के लिए दान कर दिया. ब्रह्मा जी ने उससे लेट जाने को कहा. गयासुर ने उत्तर की ओर सिर किया और दक्षिण की ओर पैर. अब उसके शरीर पर समतल स्थल बनाने के लिए उसे शिला से स्थित किया, ताकि उस पर यज्ञ हो सके. वायुपुराण के अनुसार राक्षस गयासुर को नियंत्रित करने के लिए भगवान विष्णु ने शिला रखकर उसे दबाया था. इसीसे शिला पर उनके चरण छप गए.  

ऐसे पड़े भगवान विष्णु के चरण चिह्न
विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है. राक्षस गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने अपने पैरों से दबाया. इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न है. विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण का साक्षात दर्शन कर सकते हैं. विष्णुपद मंदिर का निर्माण कसौटी पत्थर से हुआ है. इस मंदिर की ऊंचाई करीब सौ फीट है. सभा मंडप में 44 स्तंभ हैं. 54 वेदियों में से 19 वेदी विष्णपुद में ही हैं, जहां पर पितरों के मुक्ति के लिए पिंडदान होता है. यहां वर्ष भर पिंडदान होता है.

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सीता जी ने भी किया था राजा दशरथ का पिंडदान
मानते हैं कि, यहां भगवान विष्णु के चरण चिह्न के स्पर्श से ही मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं. मंदिर के पास ही सीता कुंड है. मान्यता है कि माता सीता ने सैकत (बालू) पिंड महाराज दशरथ का पिंडदान किया था. विष्णुपद मंदिर के शीर्ष पर 50 किलो सोने का कलश और 50 किलो सोने की ध्वजा लगी है. गर्भगृह में 50 किलो चांदी का छत्र और 50 किलो चांदी का अष्टपहल है, जिसके अंदर भगवान विष्णु की चरण पादुका विराजमान है. गर्भगृह का पूर्वी द्वार चांदी से बना है. वहीं भगवान विष्णु के चरण की लंबाई 40 सेंटीमीटर है. 18 वीं शताब्दी में महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था, लेकिन यहां भगवान विष्णु का चरण सतयुग काल से ही है.

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