कुछ महीने पहले शिरोमणि अकाली दल (SAD) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किए गए पंजाब के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने पार्टी में फिर से अपना वही रुतबा हासिल कर लिया है. सुखबीर 12 अप्रैल को सर्वसम्मति से फिर से अध्यक्ष तो चुन लिए गए पर असल मुद्दा तो पंजाब में फिर से पार्टी को मजबूत करना और सरकार में वापसी करना. जो वर्तमान स्थिति में दिन प्रति दिन उनसे दूर होता ही दिख रहा है. ऐसी दशा में जब राज्य में उनकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की स्थिति दिन प्रतिदिन और मजबूत हो रही है, सुखबीर का अपनी पुरानी सहयोगी पार्टी बीजेपी को निशाने पर लेना बहुत राजनीतिक विश्लेषकों को समझ में नहीं आ रह है.
पार्टी प्रमुख के रूप में फिर से पदभार संभालने के बाद बादल ने आरोप लगाया है कि उनकी पूर्व सहयोगी BJP और कुछ सिख संस्थानों ने SAD को नुकसान पहुंचाने की साजिश रची. बादल का आरोप है कि पंजाब के तीन तख्तों - सिखों के लिए सांसारिक शक्ति के स्थानों - के पूर्व जत्थेदारों, जिन्होंने 2007 से 2017 तक SAD के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान उन्हें धार्मिक उल्लंघनों का दोषी पाया था, ने BJP के प्रभाव में काम किया. अब सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में ऐसा हुआ या सुखबीर बादल की यह राजनीतिक विवशता है ताकि वे पंजाब में अपनी जड़ें फिर गहरी जमा सकें. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि बीजेपी और अकाली दल का दशकों पुराना नाता रहा है. अकाली दल को पंजाब में सत्ता में लाने में बीजेपी की हर बार बड़ी भूमिका रही है. अब जबकि सुखबीर के लिए रास्ते और कठिन हो गए हैं , वो बीजेपी से क्यों दूर भाग रहे हैं?
1.केंद्र सरकार की नीतियों के अधीन नहीं है
शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी के बीच का गठबंधन पंजाब की राजनीति में लंबे समय तक एक मजबूत आधार रहा है. यह गठबंधन 1997 से 2020 तक चला .अकाली दल मुख्य रूप से ग्रामीण सिख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता था, जबकि बीजेपी शहरी हिंदू मतदाताओं की आवाज थी. लेकिन 2020 में यह गठबंधन टूट गया, जब केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानून लागू किए. इन कानूनों का पंजाब के किसानों ने जबरदस्त विरोध किया, और सिख समुदाय ने इसे अपने हितों के खिलाफ माना. इस स्थिति में अकाली दल ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) से अलग होने का फैसला किया.
सुखबीर के सामने चैलेंज है कि वो खुद को राज्य की जनता के बीच यह साबित करें कि वे केद्र के कितने बड़े विरोधी हैं. बीजेपी का विरोध करके सुखबीर बादल यह दिखाना चाहते हैं कि उनका दल अब केंद्र सरकार की नीतियों के अधीन नहीं है. वे पंजाब के किसानों और सिख समुदाय के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं. ऐस करके वे पंजाब की राजनीति में एक स्वतंत्र और मजबूत दल के रूप में सामने आना चाहते हैं.
2.सिखों की असली हमदर्द पार्टी के रूप में छवि बनाना
शिरोमणि अकाली दल सही मायनों में पंजाब में सिखों की राजनीति ही करती रही है. सुखबीर यह सोच रहे होंगे कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की लोकप्रियता से आगे निकलने के लिए उन्हें कट्टर सिख राजनीति का फिर से सहारा लेना होगा. जिस तरह राज्य में सिख कट्टरपंथियों ने चुनावों में सफलता हासिल की है उससे उनका सोचना गलत नहीं है. पंजाब की राजनीति में सिख समुदाय की भावनाएं और धार्मिक मुद्दे हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं.
2020 के किसान आंदोलन ने सिख समुदाय को केंद्र सरकार के खिलाफ एकजुट किया. इस आंदोलन के दौरान अकाली दल ने किसानों का समर्थन किया, लेकिन उस समय तक वे बीजेपी के साथ गठबंधन में थे। इस वजह से उन पर यह आरोप लगा कि वे किसानों के हितों की पूरी तरह से रक्षा नहीं कर पाए. इसके अलावा, 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी और डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख को माफी देने जैसे विवादों ने अकाली दल की छवि को और नुकसान पहुंचाया. इन घटनाओं के कारण सिख समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अकाली दल से दूर हो गया. अब सुखबीर उनके बीच फिर से पैठ बनाना चाहते हैं.
3-पर बीजेपी को छोड़ना उनकी भूल भी साबित हो सकती है
पंजाब में AAP और कांग्रेस के आगे बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल आज की राजनीति में कहीं नहीं ठहरती . AAP ने 2022 विधानसभा चुनावों में 92 सीटें जीतीं जबकि अकाली दल केलल 3 सीटें जीत पाई. कांग्रेस ने भी अपने सिख और हिंदू मतदाताओं में आधार को दिखाते हुए करीब 18 सीटें जीत लीं. बीजेपी भी शहरी क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत कर रही है, खासकर हिंदू मतदाताओं के बीच . बीजेपी इन चुनावों में सीट तो नहीं जीत सकी है पर उसका वोट प्रतिशत अकेले चुनाव लड़ने के बावजूद बढ़ा है. जो उम्मीद की किरण दिखाता है. 2024 के लोकसभा चुनावों में, बीजेपी का वोट शेयर SAD से अधिक रहा, हालांकि उसे कोई सीट नहीं मिली. सवाल यह उठता है कि बिना बीजेपी के वो राज्य में कभी सरकार नहीं बनाते रहे हैं. क्या जब परिस्थितियां विपरीत हैं ऐसे समय में अपने पुराने साथी को छोड़कर मैदान में आना सुखबीर के लिए नुकसानदेह ही होने वाला है.
4. आंतरिक चुनौतियों का सामना
बादल परिवार पर 2007-17 के बीच अपने शासनकाल में भ्रष्टाचार, ड्रग माफिया को बढ़ावा देने, और गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी जैसे मामलों के आरोप लगे हैं, जिससे चलते सुखबीर की छवि राज्य में बहुत खराब हो चुकी है. यही कारण है कि अकाली दल के भीतर सुखबीर बादल को नेतृत्व की गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता उनके नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं, और आंतरिक विद्रोह की स्थिति बनी हुई है. वरिष्ठ नेताओं जैसे सुखदेव सिंह धींडसा और बिक्रम सिंह मजीठिया ने सुखबीर के नेतृत्व पर सवाल उठाए हैं. जाहिर है कि सुखबीर के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती है. सुखबीर जानते हैं कि केंद्र की बीजेपी सरकार का विरोध करके वो पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को एकजुट कर सकते हैं. यह विरोध उनके नेतृत्व को मजबूत करने का एक जरिया बन सकता है.
संयम श्रीवास्तव