बॉन्डी के दो 'टेरर अटैक'... आतंकवादी और विक्टिम के बारे में प्रचलित सोच बदल देंगे

सिडनी के बॉन्डी बीच और बॉन्डी जंक्शन की दो घटनाएं यह दिखाती हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता. दोनों घटनाओं में हमलावर अलग-अलग समुदायों से थे, लेकिन जान बचाने वाले इंसानियत के पक्ष में खड़े लोग भी उसी समाज से निकले. ये घटनाएं धर्म आधारित पूर्वाग्रहों को तोड़ने और कर्म को पहचान का आधार मानने का संदेश देती हैं.

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सिडनी में 14 दिसंबर की शाम दो बंदूकधारियों ने यहूदी समुदाय के लोगों पर हमला कर दिया. (Photo- ITG) सिडनी में 14 दिसंबर की शाम दो बंदूकधारियों ने यहूदी समुदाय के लोगों पर हमला कर दिया. (Photo- ITG)

एम. नूरूद्दीन

  • नई दिल्ली,
  • 15 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 3:27 PM IST

सिडनी का बॉन्डी बीच रविवार को गोलियों की तड़-तड़ आवाज से गूंज उठा. वहां जमा हुए लोग जब तक कुछ समझ पाते 15 लाशें गिर चुकी थीं. निशाना थे अपना हनुक्‍का त्‍योहार मनाने आए यहूदी और जिन्‍होंने निशाने पर लिया वे थे पाकिस्‍तानी पिता-पुत्र. आतंकवाद और कट्टरपंथ के कॉकटेल का नतीजा जितना भयानक हो सकता है, वो हुआ.

इस हमले की वजह क्‍या थी, इस पर दिमाग लगाने की किसी को जरूरत नहीं पड़ी. सोशल मीडिया देखकर समझा जा सकता है कि सबके अपने-अपने मजबूत नतीजे थे. लेकिन, बॉन्डी में डेढ़ साल पहले हुई ऐसी ही वारदात पर नजर डालें तो आतंकवादी और पीड़ित को लेकर बनने वाली परंपरागत और कुछ हद तक पूर्वाग्रह वाली सोच टूटती है.

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सिडनी के बॉन्डी बीच पर हुई ताजा वारदात पर पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है. आतंकवाद का नासूर सबको चिंता में डाले में हुए है. हनुक्का उत्सव के दौरान गोलीबारी में 15 बेकसूर मारे गए. मारने वाले इनमें से किसी को नहीं जानते थे. उनके निशाने पर थी एक धार्मिक पहचान. पुलिस ने बताया कि हमले में पिता-पुत्र दो बंदूकधारी शामिल थे और 50 वर्ष का पिता हमले के दौरान मारा गया. ऐसा भी दावा किया जा रहा है कि वह पाकिस्तानी नागरिक था.

सोशल मीडिया पर इन्‍हें कट्टरपंथी, जिहादी  और तमाम संज्ञाओं से पुकारा जा रहा है. लेकिन, इस वारदात का एक सच यह भी है कि इन दरिंदों पर सबसे पहले काबू पाने वाला एक व्यवसाय अहमद अल-अह्मद भी उसी मजहब का है, जिसके ये आतंकी. अहमद को भी दो गोलियां लगी हैं. ये उसकी दिलेरी का ही कमाल है, वरना कई जानें और जातीं. 

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अब आइये, बॉन्डी में हुई एक दूसरी वारदात का रुख करते हैं. डेढ़ साल पहले अप्रैल 2024 में बॉन्डी के वेस्टफील्ड जंक्शन शॉपिंग सेंटर में एक वहशी अंजान लोगों पर चाकू से हमला करता चला गया. इस हमले में पांच महिलाएं और एक पुरुष मारे गए थे और करीब 12 लोग घायल हुए थे. हमलावर की पहचान जोएल कौची के रूप में हुई.

एक ईसाई जो कट्टरपंथी हो गया. उसके निशाने पर जो लोग थे, वह उन्‍हें तो नहीं लेकिन उनकी धार्मिक पहचान को जरूर जानता था. कुछ कुछ वैसे ही, जैसे बॉन्डी बीच के हमलावर. जोएल को उस दिन सबसे पहले एक पाकिस्‍तानी गार्ड मुहम्मद ताहा ने काबू किया.

ताहा हमलावर से भिड़ गए. इस मुठभेड़ में उन्हें भी चोटें आईं लेकिन उन्होंने कई लोगों की जानें बचाईं. ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने मुहम्मद ताहा की बहादुरी को 'असाधारण साहसी' करार दिया था, जिन्होंने अनजान लोगों की सुरक्षा के लिए अपने जीवन को जोखिम में डाला. ऑस्‍ट्रेलियाई सरकार ताहा को स्‍थायी नागरिकता दे दी.

दोनों घटनाएं हैं, एक जैसी. लेकिन कई स्टीरियोटाइप्स पर सवाल खड़े करती हैं. पहले हमले में यहूदियों को निशाना बनाने वाला हमला मुसलमान पिता-पुत्र है, लेकिन बचाव करने वाला भी एक मुस्लिम है. दूसरी घटना में हमलावर ईसाई समुदाय से है, जिसके हमले को नाकाम करने वाला मुसलमान.

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ये और बात है  कि पुलिस ने यह कहते हुए इस हमले को आतंकी हमला नहीं माना था कि यह किसी विचारधारा से जुड़ा नहीं था. लेकिन हकीकत यह है कि दोनों घटनाओं के आरोपी अलग-अलग समुदाय से हैं. यदि कॉमन है तो कट्टरपंथ. एक तथ्‍य यह भी है कि दोनों ही घटनाओं में हमलावरों से लोहा लेने वाले एक ही समुदाय से है, बिना इस बात की परवाह किए कि हमलावर किस समुदाय से है. यानी, जब सामने मौत खड़ी है तो इंसान की पहचान साबित करने वाला एक ही जज्‍बा होता है- इंसानियत का जज्‍बा.

बॉन्डी की दोनों घटनाएं साबित करती हैं कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता, और आतंकियों से लोहा लेने वाले बहादुरी का भी नहीं. इस्लाम, ईसाई या किसी अन्य धर्म से जो कोई भी हो, वह परिस्थितियां आड़े आने पर दूसरों की रक्षा में आगे आ सकता है और कई लोगों की जान बचा सकता है. जैसा कि बॉन्डी बीच की गोलीबारी में एक अहमद नाम के मुस्लिम ने यहूदी परिवारों को बचाया, और बॉन्डी जंक्शन हमले में पाकिस्तानी सुरक्षा गार्ड मुहम्मद ताहा ने हमलावर को रोका. इन नायकों की वजह से ही दोनों ही अवसरों पर दहशत फैलने और हताहतों की संख्या और बढ़ने से बची.

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इन दो बॉन्डी घटनाओं से यह साफ होता है कि आतंकवाद को लेकर कई तरह के पूर्वाग्रह गलत साबित होते हैं. समाज को समझना चाहिए कि नायक या अपराधी का निर्धारण धर्म या जाति से नहीं, बल्कि उनके कर्मों से होता है. इन घटनाओं ने हमारी सोच को बदलने की चेतावनी दी है कि 'हीरो' और 'आतंकवादी' की परिभाषा को धर्म से नहीं, सिर्फ कर्म से ही जोड़ना चाहिए.

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