सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को SC-ST श्रेणियों में कोटे के अंदर कोटा बनाने की वैधता पर फैसला सुनाया. कोर्ट ने राज्यों को यह अधिकार दे दिया कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित कोटे के अंदर कोटा बना सकते हैं. अदालत का फैसला इस आधार पर है कि इससे अत्यधिक पिछड़ी जातियों को लाभ पहुंचेगा. जजों का मानना है कि कुछ जातियां, जैसे जो सीवर की सफ़ाई करते हैं, वो बाक़ियों से ज़्यादा पिछड़ी हैं, जैसे जो बुनकर का काम करते हैं जबकि दोनों ही अनुसूचित जाति में आते हैं और छुआछूत से जूझती हैं.
हालांकि इस फैसले का विरोध करने वालों के तर्क भी काफी गंभीर हैं. उनकी बातों से भी इनकार नहीं किया जा सकता. शायद यही कारण है कि अभी तक जितने भी मशहूर दलित नेता, चिंतक , पत्रकार आदि हैं सभी फैसले का विरोध ही करते देखे जा रहे हैं. दलितों की सबसे बडी नेता बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने भी आज शुक्रवार को एक्स पर इस फैसले का विरोध किया है. पर इस फैसले से सबसे बड़ी मुश्किल कांग्रेस और बीजेपी के लिए खड़ी हो गई है. कांग्रेस पिछले कुछ दिनों संविधान बचाओ का नारा लगा रही है. देखा जाए तो यह फैसला सीधे-सीधे संविधान पर हमला है. पर कांग्रेस ने अभी तक इस फैसले का विरोध नहीं किया है. यही नहीं तेलंगाना की कांग्रेसी सरकार ने तो इस फैसले के आधार पर आरक्षण लागू करने की घोषणा भी कर दी है. कर्नाटक की कांग्रेस सरकार भी दलितों में सब कोटा के लिए कानून बनाने की तैयारी पहले ही कर चुकी है. कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व आजकल हर मुद्दे पर फूंक फूंक कर कदम रख रहा है. यही कारण है कि उन्हें ये फैसला न स्वीकार करते बन रहा है और न ही विरोध करते बन रहा है. दूसरी ओर बीजेपी की भी यही स्थिति है.
1-कांग्रेस के लिए क्यों हो गया मुश्किल
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस को यूपी की सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था. क्योंकि कांग्रेस के कोर वोटर्स दलित समुदाय को बहुजन समाज पार्टी ने अपनी ओर खींच लिया था. पर जिस तरह से 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में दलित वोटों का ध्रुवीकरण हुआ है बहुजन समाज पार्टी के वोटों में कमी आई है उससे कांग्रेसी नेता बहुत उत्साहित हैं. कांग्रेस को लगता है कि उत्तर प्रदेश में दलित नेता फिर से कांग्रेस में वापसी कर सकते हैं. पर सुप्रीम कोर्ट के दलित कोटे में सब कोटे का जिस तरह विरोध शुरू हुआ है उसके चलते जरूर कांग्रेस की नींद उड़ गई होगी. क्योंकि दक्षिण में जिस तरह कांग्रेस के नेता सब कोटे का समर्थन कर रहे हैं उससे तस्वीर यही बन रही है कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के समर्थन में है.कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया है.
दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस नेता यह कहते रहे हैं कि यदि बीजेपी की सरकार आती है तो संविधान और आरक्षण खतरे में आ जाएगा. अब आरक्षण की संविधानिक व्यवस्था को तोड़ने वाले फैसले को स्वयं कांग्रेस नेता सपोर्ट कर रहे हैं. हालांकि पार्टी की तरफ से सुप्रीम फैसले पर अभी आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है. शायद यही कारण है कि उत्तर भारत के कई बड़े कांग्रेसी दलित नेता चुप हैं या विरोध कर रहे हैं. कांग्रेस के बड़े दलित नेता उदित राज ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया है और कहा है कि कोर्ट का फैसला आरक्षण विरोधी है.
2-देश भर के दलित नेता एक सुर में कर रहे विरोध, जाहिर है कि दलित जनमत उनके साथ ही जाएगा
देश भर से जितने बड़े दलित चेहरे हैं वो इस फैसले का विरोध कर रहे हैं. जाहिर है कि जब विरोध कर रहे हैं तो दलित जनमत भी उन्हीं के साथ जाएगा. उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम मायावती ने सुप्रीम कोर्ट के वर्गीकरण के आदेश पर सवाल उठाया है. मायावती ने पूछा है कि सामाजिक उत्पीड़न की तुलना में राजनीतिक उत्पीड़न कुछ भी नहीं? क्या देश के करोड़ों दलितों व आदिवासियों का जीवन द्वेष व भेदभाव-मुक्त आत्म-सम्मान व स्वाभिमान हो पाया है? अगर नहीं तो फिर जाति के आधार पर तोड़े व पछाड़े गए इन वर्गों के बीच आरक्षण का बंटवारा कितना उचित? मायावती ने कांग्रेस और बीजेपी की सरकार पर भी निशाना साधा है. उन्होंने कहा है कि सरकार यह बताएं कि इन आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूचि में क्यों नहीं रखा गया?
बीआर अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि अगर इन आरक्षित समूहों का कोई उप-वर्गीकरण किया जाना है, तो यह संसद द्वारा किया जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का राज्यों को अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने की अनुमति देने वाला फैसला उन वर्गों की जीत है जो इसकी मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि उप-वर्गीकरण के लिए 'राष्ट्रीय दृष्टिकोण' की आवश्यकता है, अंबेडकर ने बताया कि एससी/एसटी/ओबीसी के लिए आरक्षण संसद में तैयार और अपनाया गया था..
भीम आर्मी के संस्थापक और आज़ाद समाज पार्टी (कांशी राम) के प्रमुख, चन्द्रशेखर आज़ाद ने कहते हैं कि बांटो और राज करो की नीति यही रही है. लंबे समय के बाद एससी और एसटी एक साथ आए हैं. मैं जानना चाहूंगा कि मामले में शामिल कितने न्यायाधीश और वकील एससी/एसटी समुदाय से हैं. क्या वे इन समुदायों द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव के दर्द को समझते हैं? मायावती यूपी की सीएम थीं, लेकिन आज भी उन्हें दलित नेता के तौर पर जाना जाता है.
शीर्ष अदालत के फैसले पर चिंता व्यक्त करते हुए समस्तीपुर से लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) की सांसद शांभवी चौधरी ने कहा, मुझे लगता है कि यह अनुचित है क्योंकि क्रीमी लेयर की अवधारणा केवल ओबीसी के लिए है. आरक्षण स्वयं सामाजिक प्रतिनिधित्व के लिए लागू किया गया था न कि आर्थिक पिछड़ेपन के लिए. इसलिए अब आप यह नहीं कह सकते कि सामाजिक अन्याय और आर्थिक असमानता एक ही चीज़ है. किसी ऐसी चीज़ में उपविभाजन नहीं हो सकता जिसका आधार अलग हो.
दलित चिंतक के रूप में मशहूर हो चुके वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने लगातार एक्स पर इस फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट के पीछे पड़े हुए हैं. जाहिर है कि इन दलित नेताओं की आवाज ही कल आम दलित लोगों की होगी.
3-क्या बीजेपी के लिए है आपदा में अवसर
भारतीय जनता पार्टी भी दलित वोटों को अपनी ओर करने के लिए बहुत पहले से ही लगी हुई है. इसमें उसे सफलता भी मिली है. पर 2024 के चुनावों में इंडिया गठबंधन का संविधान बचाओ-आरक्षण बचाओ मुहिम काम कर गया. दलित वर्ग को लगा कि अगर बीजेपी को 400 सीटें मिल जाती हैं तो हो सकता है कि संविधान बदल दिया जाए. सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले तक बहुत तेजी से दलित वोट बीजेपी की ओर शिफ्ट हो रहा था. पर 2024 में केवल जाटव वोट पिछली बार के मुकाबले ज्यादा वोट किया है बीजेपी को. मतलब साफ है कि जो जातियां दलितों में संपन्न हैं और जिनका सामाजिक रुतबा पिछड़े वर्ग के करीब है उन्होंने बीजेपी को वोट नहीं दिया है. जाटव सबसे अधिक पिछड़े हैं और सामाजिक रूप से उनके साथ ज्यादा भेदभाव भी होता है. बीजेपी की शुरू से रणनीति रही है कि कोटे का वर्गीकरण किया जाए. इसके लिए ओबीसी वर्ग के कोटे को भी कई राज्यों में पार्टी ने बांटने का प्रयास किया है. बीजेपी चाहे तो उत्तर प्रदेश में जाटव वर्ग के लिए अलग कोटा बनाकर उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयास कर सकती है.
बीएसपी सुप्रीमो मायावती जाटव जाति से आती हैं. इसके बावजूद जिस तरीके लोकसभा चुनावों में जाटव वोट कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर न जाकर बीजेपी की ओर गए है वो पार्टी के लिए उत्साहजनक स्थिति कही जा सकती है. सीएसडीएस सर्वे के अनुसार यूपी 2012 में 5 प्रतिशत जाटव वोट और 11 प्रतिशत नॉन जाटव वोट भाजपा को मिले थे. इसी तरह 2022 के विधानसभा चुनाव में 21 प्रतिशत जाटव वोट और 41 प्रतिशत नॉन जाटव वोट भाजपा को मिले थे. 2024 में एनडीए को गैर-जाटव दलितों का केवल 29 प्रतिशत वोट मिला, जो 2019 में मिले 48 प्रतिशत से काफी कम है. हालांकि एनडीए ने जाटवों के बीच अपने वोट शेयर में सुधार किया है. 2019 में उसे जाटवों का सिर्फ 17 फीसदी वोट मिला था, जबकि 2024 में उसका वोट शेयर बढ़कर 24 फीसदी हो गया. इसका मतलब है कि अगर एनडीए थोड़ा ध्यान दे तो दलित जाटव वोटों का शेयर आगे के चुनावों में बढ़ सकता है.
हालांकि बीजेपी भी इस फैसले के पक्ष में या विपक्ष में बोलने से परहेज कर रही है. पर सुप्रीम कोर्ट में चूंकि केंद्र सरकार ने जो अपना मत दिया था लो सब कोटे के समर्थन के रूप में था. इसलिए जाहिर है कि बीजेपी पर आरोप लगेगा ही कि वह संविधान को संकट में डालने का काम किया है.
संयम श्रीवास्तव