राहुल गांधी देशभर में, खासतौर पर उत्तर भारत में जातिगत प्रतिनिधित्व की बात जोर-शोर से उठा रहे हैं. उनका एजेंडा यह साबित करना है कि कैसे दबंग जातियों ने पिछड़ी जातियों को अवसर से दूर रखा हुआ है. लेकिन, कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर जारी खींचतान में राहुल गांधी फैसला नहीं ले पा रहे हैं. क्योंकि, यह विवाद सिर्फ दो नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को साधने का नहीं है, बल्कि बड़ा तनाव इस बात का है कि कहीं कर्नाटक की इस लड़ाई में कांग्रेस वहां के दबंग समुदायों वोक्कालिगा और लिंगायत से हाथ न धो बैठे.
कांग्रेस के भीतर कर्नाटक नेतृत्व को लेकर चल रही तनातनी अब सिर्फ सत्ता का विवाद नहीं रही, बल्कि सीधे-सीधे राहुल गांधी के उस लोकप्रिय नारे की परीक्षा बन गई है 'जितनी जिसकी भागीदारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी.' यह नारा सामाजिक न्याय की राजनीति का नया घोषणापत्र माना गया था, लेकिन कर्नाटक के जातीय-सामाजिक समीकरण इसे एक कठिन मोड़ पर ले आए हैं.
हालिया जनगणना और राजनीतिक इतिहास से स्पष्ट है कि कर्नाटक में आबादी और सत्ता में हिस्सेदारी के बीच भारी असमानता रही है. आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पिछड़ी जातियों की आबादी करीब 44% है, यानी वे सबसे बड़े समुदाय के रूप में मौजूद हैं. लेकिन मुख्यमंत्री पद पर उनकी हिस्सेदारी महज 15% के आसपास रही है. इसके उलट, वोक्कालिगा, जिनकी आबादी सिर्फ लगभग 11% है, उन्हें 33% बार मुख्यमंत्री पद मिला है. लिंगायत, जिनकी आबादी करीब 14% है, वे इस पद पर 45% बार काबिज रहे. यानी सत्ता पर पकड़ का गणित आबादी के अनुपात से बिलकुल उलट बैठता है. दलित 17% हैं और मुस्लिम 13%, लेकिन इन दोनों समुदायों से आजतक कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री नहीं बना. यानी 30 फीसदी आबादी को कोई हिस्सेदारी नहीं मिली. राहुल गांधी पर इसका बोझ ज्यादा इसलिए है, क्योंकि वे ही आबादी में भागीदारी के अनुपात में हिस्सेदारी की बात कहते हैं.
कर्नाटक की जातिगत पृष्ठभूमि में सिद्धारमैया बनाम डी.के. शिवकुमार की खींचतान को समझना जरूरी है. सिद्धारमैया OBC समुदाय से आते हैं, वही वर्ग जिसे इतिहास में कम प्रतिनिधित्व मिला और जिसके लिए राहुल गांधी का नारा सबसे ज्यादा मायने रखता है. सिद्धारमैया का तर्क साफ है, अगर कांग्रेस सच में सामाजिक न्याय की राजनीति पर खड़ी है, तो मुख्यमंत्री पद पर सबसे बड़े समुदाय को वाजिब हिस्सेदारी मिलनी चाहिए.
लेकिन दूसरी तरफ हैं डी.के. शिवकुमार. जो वोक्कालिगा समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं और कांग्रेस संगठन में उनका वजन बेजोड़ है. वे ओल्ड मैसूर जैसा राजनीतिक रूप से निर्णायक इलाका नियंत्रित करते हैं. पार्टी के फंडिंग नेटवर्क का केंद्र हैं और कांग्रेस के लिए चुनावी-बूथ से लेकर विधान परिषद तक मजबूत ढांचा तैयार करते हैं. उनकी दावेदारी सिर्फ समुदाय आधारित नहीं, बल्कि राजनीतिक व्यावहारिकता पर भी टिकी है.
यही वजह है कि राहुल गांधी के नारे और कांग्रेस की वास्तविक राजनीति के बीच टकराव पैदा हो गया है. सिद्धारमैया का मुख्यमंत्री बने रहना नारे का पालन होगा, लेकिन डीकेएस को किनारे करना संगठन, फंडिंग और क्षेत्रीय संतुलन को चोट पहुंचा सकता है. कांग्रेस को यह भी याद है कि कर्नाटक में सत्ता टिकाने के लिए सिर्फ सिद्धारमैया का OBC आधार पर्याप्त नहीं है. उनको वोक्कालिगा–लिंगायत जैसे पावर ब्लॉक की जरूरत भी पड़ती है.
कुल मिलाकर, कर्नाटक कांग्रेस की यह जंग एक बड़े सवाल की तरह खड़ी होती है- क्या सामाजिक न्याय के आदर्श को सत्ता की व्यावहारिक राजनीति पर तरजीह दी जा सकती है? या फिर राहुल गांधी का नारा भी चुनावी भाषण तक सीमित रह जाएगा?
जवाब जल्द मिलेगा, लेकिन अभी इतना तय है कि कर्नाटक में नेतृत्व का फैसला कांग्रेस के भविष्य की वैचारिक विश्वसनीयता की पहली असली परीक्षा बनने जा रहा है. राहुल गांधी अब अपने ही बनाए 'जाति' के जाल में उलझ गए हैं. क्या वे जातिगत हिस्सेदारी के अनुसार भागीदारी देने का न्याय कर पाएंगे?
धीरेंद्र राय