'जाट पर ना पात पर, बटन दबेगा जलेबी की बात पर...' हरियाणा इलेक्शन में जलेबी कनेक्शन की तलाश

बहुत पहले जब जनकवि श्रीकांत वर्मा ने इंदिरा गांधी के लिए नारा लिखा था- ‘जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’ तो जनता इंदिरा का साथ देने के लिए उमड़ पड़ी थी. अब जलकुकड़े इस नारे के साथ भी छेड़छाड़ पर उतारू हैं. कह रहे हैं कि 'जाट पर ना पात पर, बटन दबेगा जलेबी की बात पर...' 

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अनुज खरे

  • नई दिल्ली,
  • 11 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 3:33 PM IST

जलेबी के बल पर चुनाव जीतने के तीन तरीके हैं!
आप पूछ सकते हैं कि भिया कौन से तीन तरीके?

तब मैं आपको बताऊंगा कि खोज तो मैं भी रहा हूं. वैसे जब आपको भी पता चले हमें जरूर बताना... आप कह सकते हैं हट बे! निकल बे
हो सकता है मैं पूछ डालूं? भिया- कहां निकल लूं? हरियाणा के जीटी रोड साइड!

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अब मुझे पक्का यक़ीन है तब आप ज़रूर बोलेंगे- चल, बढ़ ले बे!
क्या करूं? जब कई बार जी मचलाता है, विकल हो जाता है तो बकवास के उपवास से ही मन हल्का हो पाता है. 
हो सकता है कि आप कहें मामला क्या है?, तू हमें क्यों पका रहा है?

तब मैं आपको पहले मामला बताऊंगा. हरियाणा चुनावों में राहुल गांधी वहां एक रैली में भाषण दे रहे थे- 'गोहाना की जलेबी जबर्दस्त है, इतनी टेस्टी कि इसे तो फैक्ट्री लगाकर एक्सपोर्ट किया जाना चाहिए..' परिणाम निकला तो कांग्रेस राज्य में तीसरी बार चित हो गई. ऊपर से हुआ ये कि जिस गोहाना विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने ये बात कही थी वहां भी कांग्रेस का प्रत्याशी हार गया.

बस, भाई लोग राहुल के इस जलेबी ज़िक्र पर पिल पड़े... राशन-पानी लेकर चढ़ दौड़े...लोगों ने जलेबी को पकड़ लिया. कहने लगे कि हरियाणा की जनता ने इस बार के चुनावों में कांग्रेस को जलेबी की तरह घुमा दिया.

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राहुल ने जलेबी को खाया, स्वाद बीजेपी को आया. 
जनता नारों की ही जलेबी बनाने लगी.

'जनता कहेगी दिल से, कांग्रेस जलेबी लाने वाली है फिर से'
'अच्छे दिन आने वाले हैं, बीजेपी वाले जलेबी लाने वाले हैं...'

वैसे बहुत पहले जब जनकवि श्रीकांत वर्मा ने इंदिरा गांधी के लिए नारा लिखा था- 'जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर' तो जनता इंदिरा का साथ देने के लिए उमड़ पड़ी थी. अब जलकुकड़े इस नारे के साथ भी छेड़छाड़ पर उतारू हैं. कह रहे हैं कि 
'जाट पर ना पात पर, बटन दबेगा जलेबी की बात पर...' 

एक-दो भाई लोग तो इससे भी बड़े ऐड मेकर निकल आए
बांगर सीमेंट वाले ऐड की तर्ज़ पर कहने लगे- 'इस जलेबी में जान है!'

मैं तो भाई लोगों की इस क्रियेटिविटी पर ऐड में दिखने वाले उस जर्मन बुड्ढे की तरह इतना ही कह पाऊंगा- 
'अच्छा नहीं सबसे श्शटा...'

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इस देश में जलेबी की महिमा अपरंपार है, नेताओं के बयानों की तरह ही छल्लेदार है. लेकिन स्वाद का अंतर बड़ी बात है. जलेबी का स्वाद किसी भी इंसान को कर सकता है बाग-बाग... तो किसी नेता का बयान राख-राख भी कर सकता है. जलेबी जैसी ही 2014 में चाय पर चर्चा छिड़ी थी. तब कांग्रेसी उम्मीदें चाय में डूब गई थीं. इस बार शीरे में गोता खा गईं.

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जलेबी की बात आगे बढ़ाऊं. इससे पहले मैं बताता चलूं. इस देश के चुनावी इतिहास में जलेबी का बहुत बड़ा योगदान है. आपको पता नहीं होगा. कोई बात नहीं मेरी जित्ती गहराई से पढ़ा कीजिए. तो बात शुरू करते हैं कभी किसी जमाने में... आप अपनी सुविधा के लिए कह सकते हैं कि ब्लैक एंड व्हाइट टाइप किसी जमाने में...जी हां, उसी टाइप किसी जमाने में.

किसी नेता के शहर आने की खुशी में कार्यकर्ता उसके स्वागत के लिए रेलवे स्टेशन के बाहर जमा होते थे. या जब कभी कोई नया नवेला बड़ा सा पद पा जाता था. आलाकमान की निगाहों को भा जाता था. परसाद पाकर दिल्ली से चलता था. तब भले ही ट्रेन लेट हो फिर भी स्टेशन पर समर्थकों की भीड़ जमा हो जाती थी. बैनर, झंडियों से पट जाती थी. नेता, कार्यकर्ता, बड़े चमचे, छोटे चमचे.. सब स्टेशन के बाहर चम्मचों में भर-भरकर पोहे खाते थे. दूसरे हाथ में रखे पत्ते के दोने में चटनी धरी रहती थी लेकिन दूसरे की जलेबी पर निगाहें जमाए रहते थे. जलेबी को ही प्रेरणा मानते थे. कहते भी थे बंधु! भाई साब बन गए हैं अब ही तो शीरा चोंखने के दिन आए हैं. यही शीरा पीने के अभिलाषी घनघोर नारे लगाने वालों को झाड़-पोंछकर घरों से उठाते थे. कार्यकर्ताओं को लादने के लिए पुरानी जीपोंवालों को पटाते थे. बड़े नेता के स्वागत की व्यवस्थाएं जमकर करते थे. इसी क्रम से नीचे भी सीक्वेंस बनती थी. यानी बड़े नेता का भक्त स्थानीय छोटा नेता. फिर उसका खास यानी और छोटा स्थानीय नेता. बिलकुल किसी पिरामिड स्कीम वाले प्लान की तरह. नेता फिक्र में डूबता था तो उसका खास प्रतिबद्धता और नेता की चिंता, दोनों को लेकर फिक्रमंद हो जाता था. फिर दोनों ही चिंतित होकर जलेबी खाते थे. जलेबी खाते ही उनकी आंखों में जो चमक आती थी. इस चमक को प्रचंड मेहनती शक्ति कपूर जी ने 'आऊं... ' नामक कालजयी वाक्य से कई फिल्मों में व्यक्त किया है.

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इस चमक के बाद उनके भीतर ज्ञान का जो झंझावात पैदा होता था. इस परम अवस्था को कोई जागृत अवस्था में नहीं जान सकता. कोई जानेगा भी कैसे, इस अवस्था की प्राप्ति के लिए सामने वाले बड़े नेता के अस्तित्व में खुद को समाहित कर देना पड़ता है. खुद को भुला देना पड़ता है. बस एक लौ लगानी पड़ती है, फुर्र.. फुर्र.. एक लगन सी जगानी पड़ती है, लागी तुमसे मन की लगन टाइप... संन्यासी साधना में और नशेड़ी धुएं की भावना में इस अवस्था का पावभर अनुभव करता है. हां, आम आदमी केवल दूसरों बुराई के दौरान ही इस अवस्था की कुछ-कुछ झलक ले पाता है, हालांकि कभी गहराई मे नहीं उतर पाता. 

तो बात सियासत में फिलॉसफी की चल रही थी. विमर्श बहुत गहराई में चल रहा था. बल्कि मान ही लीजिए कि बात ही कुएं में बैठकर हो रही है. हां तो जब कोई सियासी एक बार ठान लेता है तो फिर अकंठ सेवा में डूब जाता है. सेवा करेंगे साला, हम तो सेवा ही करेंगे. नेता जी की सेवा करेंगे. देश की सेवा करेंगे. समाज की सेवा करेंगे. हमें तो कोई दो, जिसकी सेवा करनी है नहीं तो छीन के हक ले लेंगे. जोर-जुलम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है.. वगैरहा. मन में इतने विकट स्तर तक सेवा की भावना प्रवाहित होती है कि जो रास्ते में आए इस भीषण सेवा की बाढ़ में बह जाए. वैसे इसी दौरान ही मन में इंकलाब जिंदाबाद..., नेताजी की जय हो, भैया तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं...जैसे नारे बोलने का वो ईमानदार कॉन्फिडेंस आता है जिसके बारे में साधुओं और अफीमचियों के अलावा कोई नहीं जानता... 

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तो कहानी चल रही है जलेबी की और लगता है कि आप मेरी बातों की जलेबी में उलझ गए हैं. जलेबी चीज ही ऐसी है. इतनी घुमावदार...इतनी गोल-गोल कि न मिले ओर-छोर...किस्से के द एंड में एक सीधी –सपाट बात भी सुनते जाइए, सीधी बात, नो बकवास....यानी ज़िंदगी में बातों की जलेबियां बनाने से बचिए. सीधी बात कीजिए. आपसी सियासत के चक्कर में मत पड़िए, अपनी खुशी में ही खुश रहिए. इतना पढ़ने के बाद भी यदि आपका मन नहीं भरा हो तो ज़ोर से बोलिए...    

जलेबी ज़िंदाबाद! शीरा अमर रहे! 

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