साल विदा होने में बस गिनती के दिन बाकी हैं. ये लेख लिखने से चंद मिनट पहले ही आंखों के सामने से संभल जिले की खबर गुजरी है. हेडलाइन में `संभल में मुस्कान कांड`पढ़कर काफी कुछ समझ आ गया था कि खबर क्या होगी. फिर पढ़कर क्लियर भी हो गया कि एक पत्नी ने पति को निर्मम तरीके से मौत के घाट उतार दिया. फिर उसके टुकड़े करके मिक्सर में पीसे. साल ने जाते-जाते एक बार फिर पूरे साल का हाल बयां कर दिया.
2025 ऐसा साल, जब मुस्कान, सोनम रघुवंशी, हनीमून और नीला ड्रम जैसे तमाम शब्द बहुत कुछ बदल चुके हैं. इन शब्दों ने स्त्री, जुर्म, कानून और सामाजिक मान्यताओं का उलटफेर कर डाला है. ऐसे ही नहीं ये साल `मर्द के दर्द` का साल बना है. इसके पीछे पूरा एक पैटर्न जिम्मेदार है जिस पर बात करना जरूरी है. ये पूरा साल किसी फिल्म की तरह सामने है. साल की शुरुआत में बीते साल का दर्द जुड़ा था. ये थी नौ दिसंबर 2024 की घटना जिसमें आईटी इंजीनियर अतुल सुभाष ने 24 पन्नों का सुसाइड नोट और डेढ़ घंटे का वीडियो जारी किया था. इसमें उन्होंने झूठे मुकदमे, न्याय प्रणाली और ससुराल वालों पर सवाल खड़े किए थे.
अतुल सुभाष का ये दर्द हर जुबान पर छा गया. ये दर्द सर्द जनवरी के मुहाने तक भी नहीं पिघला. फिर 2025 में जैसे ये सिलसिला चल पड़ा. अतुल सुभाष के सुसाइड नोट से निकला वाक्य `This ATM has been closed permanently`जैसे तमाम पुरुषों के दिल का दर्द था. फिर फरवरी में टीसीएस कर्मचारी मानव शर्मा ने भी सुसाइड से पहले वीडियो बनाकर पत्नी निकिता और उसके परिवार पर आरोप मढ़े. अतुल की पत्नी निकिता के बाद ये दूसरी निकिता थी जो सोशल मीडिया पर लोगों के गुस्से का शिकार हो रही थी. फिर मार्च शुरू होते ही मेरठ का `नीला ड्रम` केस सबसे ज्यादा चर्चित रहा.
मेरठ की मुस्कान ने प्रेमी साहिल के साथ अपने पति के टुकड़े-टुकड़े करके नीले ड्रम में सीमेंट से जमा दिया था. खबर सामने आते ही सोशल मीडिया नीले ड्रम वाली रील्स से भर गया. वहीं, समाज में जुर्म के बदलते आयामों की चर्चा ने जोर पकड़ लिया था. हर तरफ यही चर्चा हो रही थी कि कैसे महिलाएं `विलेन`बन चुकी हैं. इस केस के कुछ ही दिनों में औरैया जिले से प्रगति यादव के केस ने आग में घी का काम किया. शादी के महज 15 दिन बाद अपने प्रेमी अनुराग के साथ मिलकर पति दिलीप यादव की हत्या करवा देती है. खबर ट्रेंड होती है कि मुंह दिखाई के दो लाख रुपये की सुपारी देकर प्रगति ने पति की हत्या करा दी. ये केस सिर्फ एक हत्या नहीं था, ये उस ट्रेंड का हिस्सा था जिसमें पुरुष विक्टिम था.
देखा जाए तो साल 2025 में औरत की पुराने समय से गढ़ी गई इमेज, दया-करुणा और सहनशीलता की छवि को एकदम पलट चुकी है. अब `मर्द को दर्द नहीं होता`स्लोगन भी गुम हो गया था. सोशल मीडिया में तमाम पुरुष खुलेआम आकर अपनी कहानियां बता रहे थे. पुरुषों के वेलफेयर के लिए चलने वाली हेल्पलाइंस में कॉल्स की बाढ़ लग गई थी. लोग महिलाओं के हितों में बने कानूनों को कोस रहे थे. ये वो दौर था जब #MenLivesMatter जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे. पुरुष समाज जैसे खुलकर बताना चाह रहा था कि हम भी विक्टिम हो सकते हैं.
फिर मई-जून में इंदौर का राजा रघुवंशी केस आया. इसमें हनीमून पर शिलॉन्ग गई सोनम रघुवंशी ने प्रेमी राज कुशवाहा से मिलकर पति राजा की हत्या करवाई. ये केस `हनीमून मर्डर` के नाम से वायरल हुआ. इंस्टा से लेकर ट्विटर-फेसबुक हर तरफ #MenToo आंदोलन बन गया था. कोई मीम्स बना रहा था तो कहीं डिबेट चल रहे थे. सवाल वही, क्या महिला हितों के लिए बने 498A जैसे कानूनों में अब संशोधन होना चाहिए?
लेकिन चलिए, सिक्के का दूसरा पहलू भी देखें. NCRB के आंकड़े आज भी चीख-चीखकर कहते हैं कि महिलाओं के खिलाफ क्राइम अभी भी कहीं ज्यादा हैं. साल 2023 में घरेलू हिंसा, दहेज, बलात्कार के 4.48 लाख मामले दर्ज किए थे. भले ही #MenToo जैसे मूवमेंट्स पुरुषों की आवाज बने, लेकिन इससे अचानक पुरातन समय से चली आ रही महिला हिंसा को नकारा नहीं जा सकता. सालों से देखा है कि समाज में असमानता दोनों तरफ है लेकिन ट्रेंड्स में जब बैलेंस खत्म हो जाता है तो ऐसा लगता है कि सबकुछ बदल चुका है. औरतें ही पुरुषों पर जुल्म ढा रही हैं. कहीं न कहीं #MenToo भी औरतों को कोसने का हथियार बना दिया गया, जिसमें महिलाओं को सामूहिक रूप से दोषी ठहरा दिया गया. तमाम खबरें आने लगीं कि लड़के के पेरेंट्स लड़कियों से शादी तय करने से पहले जासूसी करा रहे हैं. तमाम लड़के ऐलान करने लगे कि वो शादी से डरते हैं.
लोगों ने महिला कानूनों पर हमला बोलना शुरू कर दिया. जेंडर-न्यूट्रल कानूनों पर तार्किक राय की जगह ऐसा लगा कि जैसे एक जेंडर को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है. फिर भी ये कहने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि साल 2025 एक सकारात्मक बदलाव लेकर भी आया. इस बीते वक्त में सोशल मीडिया ने पुरुषों को प्लेटफॉर्म दिया, जहां वे अपनी पीड़ा बिना शरमाए शेयर कर पाए और उन्हें `सीरियसली` सुना भी गया. उन्हें हर जाति-धर्म, लिंग और वर्ग के लोगों ने सहानुभूति और संबल दिया.
इन आंदोलनों ने मेंटल हेल्थ पर बात आगे बढ़ाई और अदालतों को भी सोचने पर मजबूर किया.इन केसेज के बाद कई ऐसे मामले भी सामने आए जिसमें कोर्ट ने एलमनी या दहेज मामलों ने सख्त टिप्पणी भी की. ये पूरा साल हमें सिखाकर गया कि हमें कानूनी सुधारों की जरूरत है. लेकिन सिर्फ महिला कानूनों को पूरी तरह नकारात्मक साबित कर देने से काम नहीं बनेगा.
कानूनों के पालन में जेंडर न्यूट्रल होने की शर्त पूरी होनी चाहिए. किसी भी तरह के फॉल्स केस पर सख्त सजा होनी चाहिए. वहीं, शादी के परंपरागत सिस्टम जिसमें जाति-धर्म से बाहर कोई न जाए, इसलिए लड़का-लड़की के परिवार उनपर अपनी मर्जी थोप देते हैं. इससे बचना होगा. अतुल जैसी मौतें रोकने के लिए पुरुष और महिलाएं दोनों की आवाज सुनी जानी चाहिए. फिलहाल 2025 ने बहस शुरू कर दी है, अब 2026 में नये बदलाव की बारी है.
मानसी मिश्रा