इंडिया एलायंस को खुश होना चाहिए कि मायावती उनके साथ नहीं आ रहीं, ये रहे 5 कारण

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अब तक बहुजन समाज पार्टी ने जिस किसी पार्टी से गठबंधन किया उसका बेड़ागर्क ही हुआ है. इंडिया एलायंस में आकर भी मायावती कुछ भला नहीं कर पातीं.

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यूपी की पूर्व सीएम मायावती आगामी लोकसभा चुनावों में किसी भी दल के साथ समझौता नहीं करेंगी. यूपी की पूर्व सीएम मायावती आगामी लोकसभा चुनावों में किसी भी दल के साथ समझौता नहीं करेंगी.

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 18 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 4:59 PM IST

उत्तर प्रदेश की पूर्व सीएम और बीएसपी प्रमुख मायावती देश की अकेली शख्सियत वाली नेता हैं जो अपने सबसे बुरे दौर में भी उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में करीब 12 परसेंट वोट की मालकिन हैं. जाहिर है कि उत्तर भारत में वो किसी भी पार्टी के साथ खेला कर सकती हैं. उनके इस ऐलान के बाद कि वो किसी के साथ भी गठबंधन नहीं कर रही हैं, इंडिया गठबंधन में चिंता की लकीरें नजर आ रही हैं. हालांकि अभी इंडिया गठबंधन का भविष्य खुद भी अंधकारमय है पर एक उम्मीद है कि बहुत जल्दी सब कुछ सुलझा लिया जाएगा.सवाल यह है कि क्या मायावती के साथ न आने से इंडिया गठबंधन का उत्तर प्रदेश से सूपड़ा साफ हो जाएगा? राजनीतिक विश्वेषकों में इस बात को लेकर मतभेद है. कुछ का कहना है कि आमने सामने का दोतरफा मुकाबला होने पर एनडीए को नुकसान होगा, जबकि त्रिकोणीय मुकाबले में इंडिया गठबंधन का नुकसान होना तय है. फिर भी अगर गौर से देखा जाए कम से कम 5 कारण ऐसे हैं जिनसे लगता है कि मायावती का न होना इंडिया गठबंधन के लिए किसी न किस तरह फायदेमंद ही है.  

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1-मायावती के साथ जिसने भी गठबंधन किया फिर सत्ता में नहीं आया

सबसे बड़ी बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक इतिहास पर एक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि जिस किसी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया, प्रदेश की राजनीति में ऐसी गिरावट हुई कि उसका सत्ता में लौटना मुश्किल हो गया. 1993 में मायावती और मुलायम सिंह यादव के बीच गठबंधन हुआ था. दोनों ही पार्टियों को फायदा हुआ. मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने पर उसके बाद उनका राजनीतिक पतन हो गया. यूपी की राजनीति में कई बार राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. 2003 में एक बार फिर मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने पर उसमें बीजेपी नेता विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी की बड़ी भूमिका रही.

बीएसपी को तोड़कर किसी तरह मुख्यमंत्री बन सके थे मुलायम सिंह यादव. उसके बाद 2012 में अखिलेश यादव ने जब पार्टी का नेतृत्व किया तो समाजवादी पार्टी सत्ता में आ सकी. यही हाल कांग्रेस के साथ हुआ. नरसिम्हा राव ने बीएसपी के साथ गठबंधन किया और पार्टी की ऐसी मिट्टी पलीद हुई कि आज तक सत्ता में नहीं आ सकी. अखिलेश यादव ने यही गलती 2019 में की, उसके बाद कोई चुनाव जीत नहीं सके हैं. बीजेपी ने भी बीएसपी के साथ गठबंधन किया था करीब 2 दशक से अधिक समय के लिए यूपी की सत्ता से दूर हो गई थी. नरेंद्र मोदी के साथ जब बीजेपी ने नया अवतार लिया उसके बाद ही उत्तर प्रदेश में पार्टी फिर से अपने रंग में आ सकी है.

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2-मायावती में वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता अब नहीं रही

जो लोग ये समझते हैं कि मायावती के साथ गठबंधन करके इंडिया गठबंधन फायदे में रहता, उन्हें उत्तर प्रदेश के पिछले कुछ चुनावों पर नजर डालनी चाहिए. मायावती भले ही चुनाव में गठबंधन करने से इंकार कर रही हों, और पूर्व में किए गठबंधन में चुनावी नुकसान का हवाला दे रही हों, पर सचाई यही है कि उन्होंने इसका खूब फायदा उठाया है. 1993 में बसपा को को सपा से गठबंधन की बदौलत पार्टी की सीट संख्या 12 सीटों से 67 पर पहुंच गई. 1996 में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, सीट तो नहीं बढ़ी, लेकिन वोट प्रतिशत बढ़ गया. ऐसे ही 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ मिलकर लड़ा था और 10 सीटें जीतने में कामयाब रही जबकि समाजवादी पार्टी केवल 5 सीट ही जीत सकी. बहुजन समाज पार्टी 2014 में अकेले चुनाव लड़कर एक सीट नहीं जीत सकी थी. 2022 में यूपी विधानसभा अकेले लड़कर बीएसपी केवल एक सीट पर सिमट गई. मतलब, साफ है मायावती वोट ट्रांसफर या तो करा नहीं पाती हैं या साथी दलों को धोखा दे देती हैं. दोनों परिस्थितियां सहयोगी दलों के लिए खतरनाक हैं. 

3-मायावती चुनाव लड़तीं इंडिया ब्लॉक के साथ, सरकार बनातीं बीजेपी के साथ

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मायावती के राजनीतिक जीवन के इतिहास को देखेंगे तो पता चलेगा कि उनको गठबंधन धर्म पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है. इस मामले में वे घोर प्रफेशनल हैं. बसपा चुनाव बाद गठबंधन में यक़ीन करने वाली पार्टी है. मायावती ने कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव लड़ा, जीत के बाद बीजेपी के साथ गठजोड़ कर लिया और सरकार बना ली. समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और फिर तोड़कर उस पर आरोप लगाए. बीजेपी के साथ बारी-बारी सरकार बनाने का समझौता किया, पर जब दूसरे को सत्ता देने का मौका आया खेला करने लगीं. 

4-नहीं रहा मायावती में पहले वाला जादू

2007 के चुनाव में मायावती को अपने दम पर बहुमत मिला और चौथी बार राज्य की सीएम वो अकेले अपने दम पर बनीं. लेकिन टर्म पूरा होने के बाद उनकी ताक़त घटने लगी. 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में उनका सबसे खराब प्रदर्शन था. इन चुनावों में बसपा 403 विधानसभा सीटों में से महज़ एक सीट जीत पायी. पार्टी का वोट शेयर भी घट कर 13 फ़ीसदी रह गया.जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 403 में से 19 सीटें मिली थीं और वोट शेयर 22 फ़ीसदी था. 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़कर जरूर 10 सीटें हासिल कर ली थीं. एक अनुमान के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में दलितों में 65 उपजातियां हैं. इनमें सबसे बड़ी आबादी जाटव समुदाय की है. कुल दलित आबादी का 50 फ़ीसदी हिस्सा जाटव हैं. मायावती ख़ुद इसी समुदाय से आती हैं.राजनीतिक विश्वलेषकों का मानना है कि बीएसपी का जोर केवल इस जाति तक ही रह गया. दलित आबादी की अन्य जातियां बीजेपी-समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की ओर खिसक चुकी हैं.

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5- इंडिया एलायंस में मायावती वही सीट मांगतीं जो समाजवादी और कांग्रेस दोनों चाहते हैं

मायावती ने 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में उन सीटों को हथिया लिया था जहां बीजेपी कमजोर थी. मायावती की जिद इस बार भी उन्हीं सीटों के लिए होती, जहां समाजवादी पार्टी या कांग्रेस अगर ठीक से चुनाव लड़ें तो जीत हासिल कर सकती हैं. बीएसपी ने सपा के साथ गठबंधन में वैसी सीटें हथिया ली जहां एसपी और बीएसपी का वोट प्रतिशत बीजेपी के वोट प्रतिशत से ज्यादा था. 2014 के लोकसभा चुनाव में एसपी और बीएसपी का संयुक्त वोट शेयर 2019 में जिन 38 सीटों पर बीएसपी चुनाव लड़ रही थी, उनमें से 23 सीटों पर 60.5 प्रतिशत था. एसपी के 37 सीटों में से 18 पर दोनों दलों का संयुक्त वोट शेयर 48.6 प्रतिशत था.

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