आज मैं एक ऐसे शब्द पर फोकस करना चाहता हूं जो मुझे वास्तव में गुस्सा दिलाता है और वो है लव जिहाद. ये शब्द किसी भी नागरिक की संवेदनशीलता का अपमान करता है. क्योंकि ये अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत पैदा करता है और जिस तरह से लोगों के मन में इस्लामी-फोबिया घुस गया है, उसे नॉर्मल बताया जा रहा है.
इस शब्द को पहली बार श्री राम सेने द्वारा गढ़ा गया था, जो एक स्वयंभू हिंदू चरमपंथी समूह था, जिसका नेतृत्व प्रमोद मुथालिक नाम का व्यक्ति करता था. ये समूह कर्नाटक के तटीय इलाकों में संचालित होता था. कुछ साल पहले उन्होंने और उनके समर्थकों ने मैंगलोर में एक पब में हमला किया था जहां कुछ कपल एक साथ अपना समय बिता रहे थे.
अब मैं आपको ये भी बता दूं कि प्रमोद मुथालिक अकेले नहीं है. योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने से पहले हिंदू युवा वाहिनी नाम के समूह का नेतृत्व करते थे. और ये समूह भी दो अलग धर्मों के बीच होने वाली शादियों को टारगेट करता था और उन्हें रोकता था. इसलिए मैं बहुत ज्यादा हैरान नहीं हूं, उदाहरण के लिए जब पिछले साल यूपी सरकार दो अलग धर्मों के लोगों के बीच शादी रोकने के लिए एक कानून लेकर आई और उसे लव जिहाद करार देकर प्रतिबंधित कर दिया और ये कहा गया कि ये सब धर्मांतरण के लिए सोची-समझी साजिश है. और मेरे हिसाब से इस कानून की संरचना आपराधिक न्यायशास्त्र के खिलाफ थी, क्योंकि कपल के ऊपर ये साबित करने का दबाव था कि उन्होंने जबरदस्ती शादी नहीं की है.
ये ठीक वैसा ही था कि जैसे प्यार का अपराधीकरण किया जा रहा हो और यही इन कानूनों ने किया. अगर दो अलग-अलग समुदायों के लोग एक-दूसरे से प्यार करते हैं तो इसके लिए उन्हें अपराधी बना दिया जाएगा. मेरे हिसाब से, इस तरह के कानून आपके धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार और जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ होते हैं.
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हमने यूपी और मध्य प्रदेश जैसे कई भाजपा शासित राज्यों में ऐसे समूहों के बारे में सुना है. और आप यकीन मानिए, यूपी चुनाव से पहले ऐसे कई मामले सामने आएंगे क्योंकि ये वोट बैंक की राजनीति करने और दो समुदायों को धर्म के आधार पर बांटने का शानदार तरीका है.
लेकिन इस हफ्ते हमने जम्मू-कश्मीर जैसे सेंसेटिव और बॉर्डर स्टेट में भी लव जिहाद के बारे में सुना. इस बार विवाहित जोड़ों के खिलाफ कट्टरपंथी हिंदू नहीं थे, बल्कि सिख समूह था. क्यों? क्योंकि घाटी में दो सिख लड़कियों ने मुस्लिम लड़कों से शादी की थी. नतीजतन, क्योंकि वो कथित तौर पर इस्लाम में परिवर्तित हो गई थीं, इसलिए इस समूह ने हथियार उठा लिए. और वो दावा कर रहे हैं कि इन लड़कियों की जबरन शादी की और उनका धर्मांतरण किया गया.
इस तथ्य के बावजूद, जब एक लड़की ने मजिस्ट्रेट के सामने हलफनामा दायर कर कहा है कि उसने अपनी मर्जी से शादी की है. दूसरी लड़की ने एक वीडियो जारी कर दावा किया है कि उसने 2012 में ही अपने प्रेमी से शादी कर ली थी. तो आज उन्हें क्यों टारगेट किया जा रहा है? ये दोनों लड़कियां एक कड़े अभियान का शिकार हो गई हैं. उनमें से एक लड़की को दोबारा जबरन वापस लाया गया है. उसकी पहली शादी रद्द कर दी गई है और दोबारा एक सिख लड़के से शादी करा दी है और उन्हें दिल्ली भेज दिया गया है. दूसरी लड़की छुपी हुई है. इस मामले में एक लड़के को भी गिरफ्तार किया गया है. लेकिन कोई नहीं जानता, क्यों?
मेरा मानना है कि दिल्ली और श्रीनगर के राजनीतिक समूह, जो इन विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए हैं, उनके पास स्पष्ट रूप से कोई काम नहीं है. मेरा मतलब है कि परिवारों का कहना है कि उनकी लड़कियों को जबरन ले जाया गया है. भगवान की खातिर, आप कोर्ट जाइए. वहां अपहरण का मामला दर्ज कराइए और अदालत में साबित करिए. आप किसी कपल पर ये साबित करने की जिम्मेदारी कैसे डाल सकते हैं कि उन्होंने जबरदस्ती शादी नहीं की?
और ये राजनीतिक समूह क्या कर रहे हैं? एक बीजेपी नेता हैं सरदार आरपी सिंह. एक अकाली दल के नेता हैं मनजिंदर सिंह सिरसा. ये लोग श्रीनगर और दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं. उपराज्यपाल से मिल रहे हैं. गृह मंत्रालय जा रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि सिखों को इस्लाम में परिवर्तित किया जा रहा है. पंजाब में चुनाव होने वाला है तो वहां भी माहौल बनया जा रहा है. क्यों?
मैं ये समझना चाहता हूं कि क्या किसी ने उन लड़कियों से सच्चाई जानने की कोशिश की कि क्या हुआ था? किसकी राय लेनी चाहिए? क्या उन राजनेताओं के विचारों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए जो ये सब केवल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इससे उन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा? या फिर उन लड़कियों की राय लेनी चाहिए जिन्होंने शादी और धर्म परिवर्तन किया? और अगर वो कहती हैं कि ये जबरदस्ती नहीं था, तो फिर आप, मैं या और कोई कौन होता है इसमें दखलअंदाजी करने वाला? क्योंकि वो दोनों बालिग हैं, इसलिए ये उनकी पसंद है.
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मेरा मानना है कि लव जिहाद का यही कॉन्सेप्ट सबसे खराब है. क्योंकि ये लोगों को देश का कानून अपने हाथ में लेने की अनुमति देता और फिर ये दावा करते हैं कि हम अपनी धार्मिक पहचान के संरक्षक हैं. ये इसलिए भी खराब है क्योंकि इसमें माना जाता है कि महिला की कोई आवाज नहीं होती. ये महिला विरोधी है. ये ठीक वैसा ही है जैसे एक महिला किसी दूसरे समुदाय की महिला से शादी करती है, खासतौर से इस्लाम में, तो उसे अपना धर्म परिवर्तन कराना होगा. खैर, हम ये क्यों भूल जाते हैं कि एक महिला के पास भी अपना दिमाग है. ये महिला और पुरुष 20वीं सदी के हैं. निश्चित रूप से, एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में, उन्हें (महिला) भी अपने बारे में सोचने-समझने की अनुमति होनी चाहिए.
लेकिन नहीं. हमारे राजनेताओं ने फैसला लिया है कि वो अकेले ही तय करेंगे कि ये प्यार है या लव जिहाद. क्या बकवास है ये. मेरा मानना है कि ये पूरा कॉन्सेप्ट खराब है. ये संविधान विरोधी है और हमारे समाज में सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए एक कुत्ते की सीटी की तरह काम करता है. दोस्तो, प्यार बाधाओं को तोड़ता है. अंतरधार्मिक शादियों का भी जश्न मनाना चाहिए और जब तक ये साबित नहीं हो जाता कि ये शादी अपहरण कर या जबरदस्ती की गई है, तब तक इसका अपराधीकरण नहीं होना चाहिए.
एक युवा जोड़े को जेल में सिर्फ इसलिए क्यों डालना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी मर्जी से शादी की है और वो दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं? ये तय करने वाला थानेदार, कॉन्स्टेबल या पुलिस अधिकारी कौन होता है कि उन्होंने जबरदस्ती शादी की होगी? ऐसे मामलों में हम थानेदार को ऐसी शक्तियां कैसे दे सकते हैं?
मेरे विचार से, ऐसे मामलों में मीडिया जिस तरह का काम करता है, वो भी परेशान करने वाला है. जम्मू-कश्मीर मामले में किस तरह से हेडलाइंस लिखी गईं. मानो, ये कपल अपराधी हों और राजनेता समाज के रक्षक हों. हम ऐसे प्राइम टाइम वॉरियर्स के हाथों की कठपुतली बन गए हैं.
मैं आपको ये भी बदा दूं कि कश्मीर घाटी में अंतरधार्मिक शादी का ये कोई पहला मामला नहीं है. 1967 में श्रीनगर के अपना बाजार में काम करने वालीं परमेश्वरी हांडू ने अपने साथी गुलाम रसूल कांत से शादी कर ली थी. उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया और अपना नाम बदलकर परवीन अख्तर रख लिया था. वो कश्मीरी पंडित परिवार से ताल्लुक रखती थीं. उस समय भी बहुत हंगामा हुआ. लेकिन अच्छी बात ये है कि 1967 में लव जिहाद का कोई कॉन्सेप्ट नहीं था और न ही कोई कानून था. लिहाज वो कपल अपनी मर्जी से खुशी-खुशी साथ रह सकते थे.
हो सकता है कि हम 1967 से 2021 में एक ऐसे समाज को पीछे छोड़ आए हों जहां कानून कट्टरता और घृणा को सामान्य करते हों. जैसा कि मैं कहता रहता हूं कि प्यार का अपराधीकरण किया जा रहा है. एक मशहूर फिल्म मुगल-ए-आजम में गाना था 'प्यार किया तो डरना क्या'. पर अब हमें कहना चाहिए 'प्यार किया तो डरो'. हम जिस समाज में जी रही हैं, वहां यही अंतर है.
बहरहाल, पिछले हफ्ते हमारे प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर कहा था कि 'हमें दिल की दूरी और दिल्ली की दूरी को खत्म करने की जरूरत है'. बहुत अच्छे शब्द थे प्रधानमंत्री जी. तो क्या मैं आपसे ये अनुरोध कर सकता हूं कि कश्मीर घाटी में प्यार का जश्न मनाया जाए और उसका अपराधीकरण न किया जाए?
राजदीप सरदेसाई