दलितों पर दबंगई और अगड़ों से एलर्जी ले डूबी RJD को, कहां चूके तेजस्‍वी?

यादव-मुस्लिम वोटबैंक के बेजोड़ समीकरण के बावजूद आखिर तेजस्‍वी यादव जात-पात को लेकर बेहद संवेदनशील बिहार में कहां चूक कर गए? सवर्णों का राजद को वोट न देना तो समझ में आता है, लेकिन दलितों ने तेजस्‍वी से दूरी क्‍यों बनाई? आइये, समझते हैं कि इसमें तेजस्‍वी की चूक कितनी है या 'यादव वर्चस्‍व' का खामियाजा कितना...

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M-Y की खुमारी में डूबे तेजस्वी यादव ने बिहार चुनाव में दलित और सवर्ण दोनों की संवेदना समझने में भूल कर दी. (Photo: PTI) M-Y की खुमारी में डूबे तेजस्वी यादव ने बिहार चुनाव में दलित और सवर्ण दोनों की संवेदना समझने में भूल कर दी. (Photo: PTI)

धीरेंद्र राय

  • नई दिल्ली,
  • 17 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 12:24 PM IST

एक चुनाव में हार जीत सिर्फ पार्टियों की ही नहीं, शोषक बनाम शोषित के नैरेटिव की भी होती है. बिहार की बात करने से पहले हरियाणा चुनाव की कहानी याद दिलाना जरूरी है. जहां भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्‍व में कांग्रेस का कैंपेन संभाले कार्यकर्ताओं को इतना गुमान हो गया कि राज्‍य में कहा जाने लगा कि 'जाट आ रहे हैं'. जीत को लेकर आश्‍वस्‍त कांग्रेस अपने सपने संजो रही थी, लेकिन हरियाणा के दलितों और यादवों की नींद उड़ी हुई थी. दलितों के दमन वाला मिर्चपुर, गोहाना और भगाना कांड याद आ गया. नतीजा ये हुआ कि अंतिम समय में पिछड़ी जातियों ने ‘जाट-बॉयकॉट’ के नाम पर कांग्रेस के मुकाबले खड़ी बीजेपी को वोट दे डाला. यही कहानी  बिहार में भी दोहराई गई है. RJD की जीत को लेकर आश्‍वस्‍त कलाकारों ने 'यादव की रंगदारी...' जैसे गाने और रील सोशल मीडिया पर पोस्‍ट किए, जिसका विपरीत असर अगड़ों से ज्यादा दलित और महिलाओं पर पड़ा.

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बिहार में शोषक और शोषित की बदली परिभाषा को समझने के लिए थोड़ा अतीत में चलना होगा. लालू यादव से पहले बिहार में कांग्रेस का नेतृत्‍व सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों के हाथ में रहा. राज्‍य के संसाधनों पर भूमिहारों और ठाकुरों का दबदबा रहा. लेकिन लालू यादव के उदय ने सब बदल दिया. यादव-मुस्लिम वोटरों की धुरी पर खड़े होकर उन्‍होंने नक्‍सलियों को साधा. बिहार के सिस्‍टम पर बाहुबल और सियासी कौशल से कब्‍जा किया. और इस तरह राजनीति ही नहीं, यादव ठेकेदारी और दबंगई के नए बॉस बन गए. 1990 से 2005 के बीच 'यादव वर्चस्‍व' का सामना सवर्णों ने तो अपने ढंग से किया, लेकिन दलित-पिछड़ों के दमन की कहानी गुमनामी में दबकर रह गई. हालांकि, पिछले साल नवादा के करीब सौ दलित घरों को आग के हवाले करने वाली वारदात ने एक बार फिर यादव-दलित संघर्ष की यादें ताजा कर दी थीं. इस घटना में पकड़े गए 12 आरोपी यादव ही थे.

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तेजस्‍वी ने इस मामले में बजाय अपराधियों के बारे में कुछ कहने के, नीतीश सरकार पर ही हमला बोला. राजनीति के तहत उनका ऐसा करना स्‍वाभाविक था. लेकिन, दलितों के भीतर यही मैसेज गया कि तेजस्‍वी 'यादव वर्चस्‍व' को अनदेखा कर रहे हैं. और ऐसा तब है जब वे विपक्ष में हैं. यदि सत्‍ता में आ जाएंगे, तो न जाने क्‍या होगा.

तेजस्‍वी कहां चूक गए...

लालू यादव के जेल जाने और फिर बीमार होने के बाद तेजस्‍वी यादव के पास मौका था कि वे पिता से विरासत में मिले M-Y वोटबैंक का दायरा आगे बढ़ाते. जंगल-राज के टैग से मुक्ति पाने की कोशिश करते. लेकिन, उन्‍होंने ऐसा कुछ नहीं किया. तेजस्‍वी ने अपना सारा फोकस यादव और मुसलमानों तक सीमित रखा. राजद की ओर से चुनाव में उतारे गए 143 उम्‍मीदवारों में से 51 यादव और 19 मुस्लिम थे. अत्‍यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) को साधने के लिए उन्‍होंने मुकेश सहनी को न सिर्फ साथ रखा, उन्‍हें डिप्‍टी सीएम का चेहरा भी घोषित करवाया. ये और बात है कि सोशल मीडिया पर कई मुस्लिम नेताओं ने इसे सूबे के 17 फीसदी मुसलमानों को दरकिनार किए जाने के रूप में प्रचारित किया. ओवैसी तो इसी बात को सीमांचल की कई जनसभाओं में बोल आए.

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दलित-अति पिछड़ों को 'ब्‍लैंक चेक' समझने की भूल...

बावजूद इसके सीमांचल को छोड़ बिहार के बाकी हिस्‍सों में मुसलमानों ने राजद को खूब वोट दिया. तेजस्‍वी को यदि सबसे ज्‍यादा नुकसान हुआ, तो वह दलित और अति पिछड़ा समुदाय से हुआ. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुकेश सहनी को डिप्‍टी सीएम का चेहरा बनाने के बावजूद उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. इतना ही नहीं, राज्‍य की 38 सुरक्षित सीटों में से राजद को महज 4 सीटों पर ही जीत मिली. अगड़ों की पार्टी के रूप में प्रचारित बीजेपी ने 11 सीटें जीतीं, जबकि जेडीयू को 14 सीटें मिलीं. बाकी सीटें NDA के सहयोगियों चिराग पासवान और जीतनराम मांझी ने जीत ली.

तो सवाल उठता है कि सामाजिक न्‍याय के मसीहा के रूप में प्रचारित लालू यादव की पार्टी से दलितों का यूं मोहभंग क्‍यों हुआ है? जवाब बिहार के पेंचीदा सामाजिक समीकरण में छुपा है. 2025 में वोट इस बात पर भी पड़ा है कि आज शोषण करने वाला कौन है और शोषित होने वाला कौन? चुनाव में 'यादव गौरव' के नाम पर जिस तरह कट्टा, रंगदारी, हथियार के साथ तेजस्‍वी यादव की आने वाली सरकार का नाम जोड़कर गाने इंटरनेट पर डाले गए, उसने अगड़ों से ज्‍यादा दलितों को डराया. हुआ ये है कि लालू यादव के दौर में हुई दबंगई को अगड़ों से ज्‍यादा दलित-पिछड़ों ने सहा है. बिहार में राजद पोषित दबंगई से बचने के लिए अगड़ों ने अपनी इज्‍जत बचाने के लिए अलग-अलग जगह अलग-अलग रणनीति अपनाई. कहीं गोलबंदी करके मुकाबला किया, कहीं चुप रह गए. कहीं रास्‍ता बदल लिया. लेकिन, दलित और अति-पिछड़ों के पास ज्‍यादा ऑप्‍शन नहीं रहे. नीतीश ने इन्‍हीं दलितों और अति-पिछड़ों के साथ कुर्मी और गैर-यादव OBC वाला ऐसा आधार तैयार किया, जिसने राजद की जमीन छीन ली.

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बिहार जाति सर्वे 2023 के आंकड़े देखें तो साफ है कि OBC-EBC (कुल 63%) और दलित (19.65%) आबादी का बड़ा हिस्सा हैं, जबकि यादव सिर्फ 14.27% और मुस्लिम 17.7% हैं. इनके अलावा सवर्ण 15.52% भी हैं, जो पहले ही राजद विरोधी रहे हैं. इस पेचीदगी के बावजूद तेजस्वी M-Y पर अटके रहे और बाकी सबको नजरअंदाज कर दिया.

गाने नहीं, लेकिन अपने एक्‍शन के लिए तो तेजस्‍वी ही जिम्‍मेदार

'तेजस्‍वी यादव को सत्ता में आने दो, कट्टा सटा के उठा लेंगे' जैसे गानों पर बेशक राजद नेतृत्‍व की मंजूरी नहीं होगी. लेकिन, तेजस्‍वी यादव की राजनीति में यह कहीं भी नजर नहीं आ रहा था कि वे दलित या फिर बिहार की अगड़ी जातियों के बीच पकड़ मजबूत बनाना चाहते हैं. वे जातिगत ध्रुवीकरण के भरोसे बैठे रहे. यह सोचकर कि भाजपा के नेतृत्‍व वाले NDA को यदि अगड़े वोट देंगे तो दलित और पिछड़े स्‍वत: राजद और महागठबंधन को वोट करेंगे ही. उनके इस भरोसे को राहुल गांधी के कैंपेन ने और मजबूत किया. जो लगातार पिछड़ों की आवाज उठाने के नाम पर सवर्णों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. राहुल अपनी लाइन पर इतना आगे बढ़ गए कि उन्‍होंने बिहार जाकर यहां तक कह दिया कि सेना पर 10 फीसदी लोगों का ही कब्‍जा है. जबकि बिहार की पिछड़ी जातियों से, खासकर यादव परिवारों के युवा सेना में अच्‍छी खासी तादाद में भर्ती होते रहे हैं. राहुल गांधी की राजनीति में सवर्ण-विरोधी होना चल सकता है, लेकिन तेजस्‍वी के लिए नहीं. यदि तेजस्‍वी सवर्णों का भरोसा जीतते, तो उन्‍हें न सिर्फ जंगल-राज वाले टैग से राहत मिलती. बाकी जातियों में भी तेजस्‍वी के आउटरीच का मैसेज जाता. जैसे यूपी में 2007 के चुनाव से पहले मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए किया था.

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'ब्राह्मण-दलित भाईचारा' वाला मायावती का सोशल इंजीनियरिंग प्‍लान

मायावती का सोशल इंजीनियरिंग प्लान दलित कोर वोट के आधार पर नए सामाजिक समूह जोड़ने की रणनीति था. उन्होंने गैर-यादव OBC को समाजवादी पार्टी के यादव वर्चस्व के खिलाफ विकल्प दिया और ब्राह्मणों को सतीश मिश्रा के नेतृत्व में सम्मान व राजनीतिक हिस्सेदारी का भरोसा दिलाया. 'ब्राह्मण-दलित भाईचारा' अभियान ने गठबंधन को मजबूत किया. दलित, गैर-यादव OBC और ब्राह्मण गठजोड़ ने 2007 में BSP को ऐतिहासिक बहुमत दिलाया. जो भारतीय राजनीति का सबसे सफल सोशल इंजीनियरिंग मॉडल माना जाता है. तेजस्‍वी यादव के पास मौका था कि वे लालू राज में यादव वर्चस्‍व से पीड़ित रहे सवर्णों के बीच अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश करते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

2025 के विधानसभा चुनाव ने साफ कर दिया कि बिहार की राजनीति अब 'एक जाति-एक समुदाय' की धुरी पर नहीं चलेगी. सफल राजनीति वही है जो अधिकतम सामाजिक समूहों को सम्मानजनक प्रतिनिधित्व दे सके. जैसा मायावती ने उत्तर प्रदेश में किया था.

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