हमारे 'एंटीबायोटिक-प्रेम' ने तैयार कर दी है सुपरबग की फौज, नई महामारी की ओर बढ़ता देश

जरा-सा बुखार हुआ, गला खराब हुआ या दो दिन खांसी चली, और हम नतीजे तक पहुंच गए कि 'चलो, एंटीबायोटिक ले लेते हैं.' भारत में बीमारी की पहचान बाद में होती है, दवा पहले तय हो जाती है. हमारा 'एंटीबायोटिक प्रेम' एक महामारी बनता जा रहा है, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में किया है.

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एंटीबायोटिक दवाओं के मनचाहे इस्‍तेमाल से हम अपने भीतर अपने दुश्‍मन सुपरबग की फौज खड़ी कर रहे हैं. (फोटो- AI generated) एंटीबायोटिक दवाओं के मनचाहे इस्‍तेमाल से हम अपने भीतर अपने दुश्‍मन सुपरबग की फौज खड़ी कर रहे हैं. (फोटो- AI generated)

धीरेंद्र राय

  • नई दिल्ली,
  • 29 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 6:33 PM IST

शहरों में आम मान्‍यता है कि वो डॉक्‍टर, डॉक्‍टर ही क्‍या जो एंटीबायोटिक न प्रिस्‍क्राइब करे... स्‍पेशलिस्‍ट डॉक्‍टर वही है जो अगले दिन बीमारी रफूचक्‍कर कर दे... और थोड़ा गांवों की तरफ जाएं तो पता चलेगा कि यदि डॉक्‍टर ने पानी (सलाइन) नहीं चढ़ाया तो मतलब उसने ठीक से इलाज नहीं किया... इन मान्‍यताओं के पीछे हर शख्‍स के भीतर बैठा 'डॉक्‍टर' जिम्‍मेदार है. जो पहले घरेलू इलाज करता है और जब बात नहीं बनती तो किसी फार्मेसी वाले की ओर चल देता है. इलाज की ये खोज 90 फीसदी मामलों में डॉक्‍टर के पास जाने से पहले ही खत्‍म हो जाती है. और यही, इस समस्‍या का सबसे खतरनाक पहलू है.

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रविवार को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात में एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस पर चिंता जताते रहे थे, तो उसमें कोई सीक्रेट नहीं था. वो सीधे-सीधे हमारी गलत आदतों की ओर इशारा था. क्योंकि अगर भारत आज एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस के सबसे खतरनाक दौर में पहुंच रहा है, तो उसके पीछे सिर्फ ढीले कानून या कमजोर सिस्टम नहीं, बल्कि मरीज के तौर पर हम खुद भी जिम्‍मेदार हैं.

एक मरीज की आदतों का सफर...

दिल्‍ली के 11 ज‍िलों में किए गए एक सर्वे ने इलाज को लेकर हमारे सतही रवैये को उजागर किया है. होता यह है कि जब घरेलू उपचार काम नहीं करता है, तो दवा के लिए पहला कॉन्‍टेक्‍ट पर्सन फार्मेसी वाला ही होता है. लोग बीमार होते ही सबसे पहले डॉक्टर नहीं, दवा दुकान खोजते हैं. पर्ची की जरूरत नहीं पड़ती. नाम लेकर दवा मिल जाती है. 'यही तो पिछली बार ली थी.' 'यही जल्दी ठीक करती है.' हमें फर्क नहीं पड़ता कि बीमारी वायरल है या बैक्टीरियल. हमें यह भी नहीं जानना कि एंटीबायोटिक वायरस पर काम ही नहीं करती. हमें बस जल्द ठीक होना है, बाकी सब विज्ञान जाए भाड़ में.

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दो दिन में हालत बेहतर होती है, और हम खुद को सही साबित मान लेते हैं. दवा छोड़ देते हैं. कोर्स पूरा करना हमें फिजूल लगता है. हम यह जानना ही नहीं चाहते कि अधूरा कोर्स बैक्टीरिया को मारता नहीं, उन्हें ट्रेनिंग देता है. उन्हें सिखाता है कि अगली बार इस दवा से कैसे बचना है.

ऐसे ही हम अपने शरीर में ऐसे कीटाणु पैदा करते हैं जिन पर कल की दवाएं बेअसर होंगी. और ये ताकतवर कीटाणु कहलाते हैं 'सुपरबग'. इस तरह हमारा सेल्‍फ-मेडिकेशन सबके लिए खतरा बनना शुरू हो जाता है.

डॉक्‍टर पर भी है एंटीबायोटिक दवा लिखने का प्रेशर...

बीमार होने पर हम डॉक्टर के पास जाते हैं तो भी दबाव डालते हैं. अगर डॉक्टर सिर्फ पैरासिटामोल या आराम की सलाह दे दे, तो लगता है कि वह हमें गंभीरता से नहीं ले रहा. हम चाहते हैं 'कुछ स्ट्रॉन्ग' दवा मिल जाए. डॉक्टर जानते हैं कि एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं है, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि अगर उन्होंने मरीज के मनमाफिक दवा नहीं दी तो तो वह अगली गली वाले क्लिनिक में चला जाएगा. कुलमिलाकर भारत में मरीज की संतुष्टि, साइंस पर भारी पड़ जाती है.

हम यह भी भूल जाते हैं कि एंटीबायोटिक कोई साधारण दर्द निवारक नहीं है. यह आखिरी हथियार होता है बैक्टीरिया के खिलाफ. और हम इसे पहले ही इस्तेमाल कर रहे हैं. बिना सोचे-समझे, बिना जरूरत. नतीजा अब सामने है. डॉक्टर कह रहे हैं कि कम डोज़ वाली दवाएं काम नहीं कर रही हैं. इलाज लंबा हो रहा है. महंगा हो रहा है. साधारण इन्‍फेक्‍शन जानलेवा बनने लगे हैं. वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अगर यही चलता रहा, तो भविष्य में ऑपरेशन, डिलीवरी, मामूली इन्फेक्शन, सब रिस्‍की हो जाएंगे.

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कितने खतरनाक होते जा रहे हैं सुपरबग

जब हम बार-बार गलत तरीके से दवाइयां (एंटीबायोटिक्स) लेते हैं, तो कीटाणु उन दवाओं को पहचान लेते हैं और खुद को नए रूप में ढाल लेते हैं ताकि उन पर दवाओं का कोई असर न हो. ऐसे 'अजेय' कीटाणुओं को ही साइंस की भाषा में सुपरबग कहा जाता है. भारत में इसी तरह कुछ कीटाणु बहुत जिद्दी हो गए हैं, जैसे-

एनडीएम-1 (NDM-1: New Delhi Metallo-beta-lactamase 1): इसे 'सुपरबग जीन' कहा जाता है जो बैक्टीरिया को लगभग हर दवा से बेअसर रखता है. इसके कारण होने वाला यूरिन इन्फेक्शन (UTI) या निमोनिया सामान्य दवाओं से ठीक नहीं होता. मरीज को आईसीयू (ICU) में भर्ती करना पड़ता है.

DR-TB: यानी ड्रग रेजिस्टेंट टीबी, जिसमें टीबी की सामान्य दवाएं काम करना बंद कर देती हैं.

ICMR और AIIMS के विशेषज्ञों ने बजा दी है खतरे की घंटी

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) की हालिया रिपोर्ट चौंकाने वाली है. जिसके मुताबिक भारत में कई बैक्टीरिया में दवाओं के प्रति प्रतिरोध दर (Resistance rate) 70% से 80% तक पहुंच गई है. इसका मतलब है कि अगर 10 लोगों को वह संक्रमण है, तो 8 लोगों पर सामान्य दवा काम ही नहीं करेगी. यानी, अब लास्ट-लाइन एंटीबायोटिक्स भी फेल हो रहे हैं. कभी 'कोलिस्टिन' (Colistin) जैसी दवाओं को डॉक्टरों का 'ब्रह्मास्त्र' माना जाता था. चिंताजनक यह है कि अब कोलिस्टिन-रेसिस्टेंट बैक्टीरिया भी भारत में पाए जाने लगे हैं.

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AIIMS में माइक्रोबायलॉजी डिपार्टमेंट के प्रो. हितेंद्र गौतम कहते हैं कि 21वीं सदी में एंटीमाइक्रोबियल रजिस्‍टेंस दुनिया में सबसे गंभीर स्‍वास्‍थ्‍य खतरा बनकर उभरेगा. हो ये रहा है कि एंटीबायोटिक्‍स के अत्‍यधिक इस्‍तेमाल से इलाज लंबा खिंच रहा है. हेल्‍थ केअर कॉस्‍ट बढ़ रही है. डॉक्‍टर्स को हाई-एंड ड्रग्‍स का इस्‍तेमाल करना पड़ रहा है. जिसके नतीजे में साइड इफेक्‍ट बढ़ रहे हैं, बीमारी के और गंभीर होने का खतरा बढ़ रहा है, और जान पर संकट आ बना है. यह एक खामोश महामारी है, जिस पर तुरंत ध्‍यान नहीं दिया गया तो 2050 आते आते यह सबसे ज्‍यादा जानलेवा होगी.

AIIMS के पूर्व डायरेक्‍टर रणदीप गुलेरिया ने प्रधानमंत्री के मैसेज की गंभीरता को समझाते हुए कहा कि एंटीबायोटिक्‍स के अत्‍यधिक इस्‍तेमाल का दुष्‍प्रभाव आईसीयू में दिखाई पड़ता है. जब‍ किसी मरीज को एंटीबायोटिक दिया जाता है, और पता चलता है कि वो दवा असर ही नहीं कर रही है. यह गंभीर विषय है और इससे बचने का एक ही तरीका है कि कोई भी बीमारी या तकलीफ होने पर डॉक्‍टर या विशेषज्ञ से संपर्क करें. अपने मन से दवा न लें.

इस महामारी से बचने की कोई वैक्‍सीन नहीं...

सबसे खतरनाक बात यह है कि इस 'महामारी' का कोई शोर नहीं है. कोई लॉकडाउन नहीं होगा. कोई सायरन नहीं बजेगा. लेकिन एक दिन हम अस्पताल में खड़े होंगे और डॉक्टर कहेगा 'अब हमारे पास असरदार दवा नहीं है.' उस दिन हमें याद आएगा कि हमने कितनी बार बिना सोचे एंटीबायोटिक ली थी.

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हम अक्सर सोचते हैं कि यह सरकार, डॉक्टर या सिस्टम की जिम्मेदारी है. सच यह है कि यह लड़ाई हमारे घर से शुरू होती है. जब हम बिना पर्ची दवा लेने से मना करेंगे. जब हम डॉक्टर से सवाल पूछेंगे क्या यह दवा सच में जरूरी है? जब हम कोर्स पूरा करेंगे, चाहे लक्षण चले क्‍यों न जाएं.

आज एंटीबायोटिक हमारी सुविधा है. कल यह हमारी कमजोरी बन सकती है. इलाज करते-करते हम खुद एक ऐसी महामारी की तरफ बढ़ रहे हैं, जिसका कोई टीका नहीं है. चेतावनी दे दी गई है. अब बहाना नहीं चलेगा.

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