पीएम मोदी ने ऐसे खत्म कर दी जाति की पिच पर खड़े क्षत्रपों की सियासत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात से दिल्ली तक का सियासी सफर तय करके भारत की राजनीति के तौर-तरीके को पूरी तरह से बदल दिया है. मोदी ने बीजेपी को सियासी बुलंदी दी तो जाति की पिच पर सियासत करने वाले दलों और समाज को राजनीतिक हाशिए पर पहुंच दिया.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बदली देश की राजनीति (Photo-PTI) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बदली देश की राजनीति (Photo-PTI)

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली ,
  • 17 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 3:43 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 75 साल के हो गए हैं. नरेंद्र मोदी के रूप में बीजेपी को एक करिश्माई नेता मिला, जिसे पार्टी ने अपने नारे और केंद्र में रखकर गढ़ा, उसका सियासी लाभ उसे मिला. नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल और हिंदूवादी चेहरे ने देशभर में जातिवादी राजनीति की दीवार तोड़ दी, जिसके चलते कई सियासी क्षत्रपों की सियासत हाशिए पर चली गई.

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गुजरात से दिल्ली की गद्दी यानि राज्य से केंद्र तक का सफर तय करने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने देश की राजनीति के तौर-तरीके को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है. जाति के बिसात पर सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होने वाले क्षत्रपों की राजनीति को पूरी तरह खत्म कर दिया.

प्रधानमंत्री मोदी ने पटेल समाज के प्रभाव वाले गुजरात में 12 साल तक मुख्यमंत्री रहे. गुजरात में पटेल सियासत को जिस तरह सियासी हाशिए पर रखा, उसी तर्ज़ पर प्रधानमंत्री बनने के बाद जाट प्रभाव वाले हरियाणा में गैर-जाट राजनीति को तवज्जो दी और मराठा प्रभाव वाले महाराष्ट्र में गैर-मराठा को साधकर कमल खिलाया.

जातिवाद की राजनीति के पैटर्न को तोड़ा

प्रधानमंत्री मोदी की सियासत पर नज़र डालें तो साफ है कि वह परंपरागत राजनीति से अलग हटकर अपनी सियासी लकीर खींचते हैं. नरेंद्र मोदी बीजेपी के लिए एक ट्रंप कार्ड हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री रहते गुजरात में बीजेपी की सियासी जड़ें ऐसी जमाईं कि दोबारा कांग्रेस की फसल खड़ी नहीं हो पाई. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी क्षमता को आगे बढ़ाया है जिसे उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में निखारा था.

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प्रधानमंत्री मोदी की ज़मीन से जुड़े रहने, चुनावी वादों को अमलीजामा पहनाने और सियासी नैरेटिव सेट करने की जो कला है, वह बीजेपी को सिर्फ सफलता के मुकाम पर नहीं ले गई, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी को आगे ले जाती है. प्रधानमंत्री मोदी में सियासी असफलताओं से उबरने और उनके रास्ते में खड़ी बाधाओं को गिराने की क्षमता भी है. इसी के बलबूते उन्होंने देश की राजनीति के तौर-तरीके को बदलकर रख दिया. बीजेपी की राह में बाधा बन रही जातिवादी राजनीति को तोड़कर खासकर हिंदी भाषी राज्यों में बदल दिया.

बीजेपी की ब्राह्मण और बनियों की छवि से बाहर निकालकर दलित, ओबीसी और आदिवासी वोटरों को जोड़ने का काम प्रधानमंत्री मोदी ने किया. प्रधानमंत्री मोदी खुद भी गुजरात के ओबीसी समाज से आते हैं, जिसकी जनसंख्या बहुत कम है. इसके बावजूद गुजरात के 12 साल तक मुख्यमंत्री रहे और तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने विकास पर काम किया तो गरीबों को ध्यान में रखकर जनकल्याण योजनाएँ शुरू कीं, जिससे गरीबों के बीच उनकी मसीहा जैसी छवि गढ़ी गई, जिसके दम पर जाति की राजनीति को काउंटर करने में सफल रहे.

हिंदुत्व के एजेंडे से निकली नई सियासत

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे को सियासी धार मिली है. गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी की 'हिंदू हृदय सम्राट' की छवि बनी और प्रधानमंत्री बनने के बाद उसे मजबूती मिली. अयोध्या में राम मंदिर के भूमि पूजन से लेकर उद्घाटन तक प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी एक बड़ा सियासी संदेश थी. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने के साथ उसे दो टुकड़ों में भी बाँट दिया. ट्रिपल तलाक खत्म करना और राम मंदिर का निर्माण भी मोदी सरकार के मुख्य एजेंडे का हिस्सा रहे.

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मोदी सरकार की सफलता में सिर्फ हिंदुत्व ही नहीं, बल्कि जातीय समीकरणों को भी शामिल किया गया. खासकर ओबीसी समाज और दलित समुदायों को अपनी ओर खींचने में प्रधानमंत्री मोदी सफल रहे. बीजेपी जो एक समय ब्राह्मण-बनिया आधारित पार्टी मानी जाती थी, वह अब ओबीसी और दलितों तक अपनी पहुँच बढ़ा चुकी है. हाल ही में सरकार ने जातिगत जनगणना का फैसला लिया, जो इस दिशा में एक और कदम है.

बीजेपी की नज़र मुस्लिमों के पसमांदा मुसलमानों पर है, जिन्हें साधने के लिए लगातार कवायद की जा रही है. मोदी ने ही पसमांदा और बोहरा मुस्लिमों को जोड़ने का मंत्र बीजेपी को दिया है. मोदी ने सोशल इंजीनियरिंग का नया फॉर्मूला सेट किया है. उन्होंने अलग-अलग जातीय समूहों को अपने साथ मिलाया और उन्हें पार्टी से लेकर सरकार तक में हिस्सेदारी दी.

कैसे खत्म की क्षत्रपों की सियासत?

प्रधानमंत्री मोदी ने बीजेपी को सियासी बुलंदी तक ले जाने का काम किया, लेकिन जाति के बिसात पर खेली जाने वाली परंपरागत राजनीति को भी बदलकर रख दिया. हरियाणा की सियासत पूरी तरह से जाटों के इर्द-गिर्द सिमटी रही है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने हरियाणा में गैर-जाट राजनीति को तवज्जो दी. 2014 के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने हरियाणा में गैर-जाट, महाराष्ट्र में गैर-मराठा और झारखंड में गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाना मोदी की राजनीतिक सूझबूझ और दूरदृष्टि का उदाहरण है.

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हरियाणा में जाट बनाम गैर-जाट पॉलिटिक्स का नैरेटिव सेट किया, जिसका लाभ बीजेपी को मिला. बीजेपी ने पंजाबी समाज से आने वाले मनोहर लाल खट्टर को पहले मुख्यमंत्री बनाया और उसके बाद नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी. बीजेपी ने दोनों ही गैर-जाट चेहरे को मुख्यमंत्री बनाया. राज्य में जाट राजनीति 11 साल से हाशिए पर खड़ी है.

महाराष्ट्र की सियासत लंबे समय तक मराठों के इर्द-गिर्द सिमटी रही है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने बीजेपी का मुख्यमंत्री बनाने के लिए गैर-मराठा दांव चला. इस तरह 2014 में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो सत्ता की कमान ब्राह्मण समाज से आने वाले देवेंद्र फडणवीस को सौंपी. 2024 में बीजेपी दोबारा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री की कुर्सी फडणवीस को मिली. इस तरह बीजेपी ने मराठा क्षत्रपों की सियासत को धराशायी कर दिया.

झारखंड की राजनीति में आदिवासी समुदाय का दबदबा है. नरेंद्र मोदी ने 2014 में झारखंड की सियासी जंग जीतने के बाद ओबीसी समाज से आने वाले रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया, जो साहू जाति से आते हैं. इस तरह गैर-आदिवासी समुदाय का सत्ता की बागडोर देकर सियासी प्रयोग किया. पाँच साल तक मुख्यमंत्री रहे, लेकिन यह दांव सफल नहीं हो सका. हालाँकि, प्रधानमंत्री मोदी ने गैर-आदिवासी राजनीति को आगे बढ़ाकर सभी दलों को उस एजेंडे पर ज़रूर लाने का काम किया.

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यूपी और बिहार में टूटी जाति की सियासत

प्रधानमंत्री मोदी को बीजेपी ने 2014 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो उन्होंने ओबीसी का दांव यूपी की राजनीति में खेला था. उन्होंने आगरा रैली में खुद को ओबीसी बताया था. सपा के यादववाद के खिलाफ गैर-यादव ओबीसी को साधा तो बसपा के जाटववाद के खिलाफ गैर-जाटव दलित समुदाय को सियासी तवज्जो दी.

बीजेपी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को आगे कर अपने कोर वोटबैंक ठाकुर-ब्राह्मण और बनिया को साधे रखते हुए गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को अपने पाले में लेकर अखिलेश यादव से लेकर मायावती और चौधरी अजित सिंह की राजनीति को खत्म कर दिया. मायावती से पूरी तरह गैर-जाटव दलित वोट छिटक गया तो सपा से गैर-यादव ओबीसी खिसककर बीजेपी के साथ चला गया. इसी तरह से चौधरी अजित सिंह को छोड़कर जाट वोट भी बीजेपी के साथ जुड़ गया.

मोदी की इस सोशल इंजीनियरिंग से बीजेपी ने 2014 में सभी का सफाया कर दिया था, उसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव की जंग जीतकर सूबे की सत्ता में 15 साल बाद लौटी. इसी फॉर्मूले पर 2019 के लोकसभा और 2022 के विधानसभा चुनाव बीजेपी जीतने में सफल रही. हालाँकि, 2024 में पार्टी के इस फॉर्मूले में सपा-कांग्रेस सेंधमारी करने में कामयाब रही है, लेकिन उसके बाद से बीजेपी लगातार उसे साधने में जुटी है.

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बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी की राजनीति को बिहार की सियासत में भी आजमाया, जिसके चलते आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव की सियासत हाशिए पर चली गई. हालाँकि, बीजेपी के इस प्रयोग में नीतीश कुमार का साथ बहुत मददगार साबित हो रहा है. बीजेपी बिहार में सवर्ण वोटों के साथ गैर-ओबीसी समाज पर अपनी पकड़ को मजबूत किया है. इसके चलते ही बीजेपी बिहार में नंबर वन की पार्टी बनी है. मोदी की इस सियासत ने तेजस्वी यादव को सत्ता के सिंहासन तक नहीं पहुंचने दिया है.

राष्ट्रवाद के सहारे पीएम मोदी ने किया मजबूत

बीजेपी को मिली यह जीत क्या भारत में जातिवादी राजनीति के अंत की घोषणा है जैसा कि बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं? या फिर यह सिर्फ एक दौर है जहाँ जातिवाद कुछ समय के लिए पीछे छूटा है, और जैसे ही केंद्र में कोई कमज़ोर नेतृत्व आएगा, जातिवाद का मुद्दा एक बार फिर भारत की राजनीति में आ जाएगा.

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इतना बड़ा जनादेश बिना हर वर्ग के समर्थन के संभव नहीं होता. राष्ट्रवाद कभी किसी एक जाति या एक वर्ग के सहारे सफल नहीं हो सकता. यह तभी सफल हो सकता है जब इसमें समाज की हर जाति-हर वर्ग की भागीदारी हो. नरेंद्र मोदी के राष्ट्रवाद ने जाति को खत्म करने का काम तो नहीं किया है, लेकिन यह ज़रूर है कि उनके राष्ट्रवाद में सभी जातियों ने अपनी भूमिका पाई और इसी कारण वे उनसे जुड़ गए.

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नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में तमाम छोटी-छोटी जातियों की उम्मीदों के अनुसार कार्यान्वयन होता दिखता है, उनकी भागीदारी सुनिश्चित होती है तो यह दौर आगे बढ़ेगा और एक बदले भारत की नींव रखेगा. लेकिन अगर इस वर्ग की अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती हैं तो यह वर्ग एक बार फिर अपने लिए किसी जातिवादी स्तंभ की खोज कर लेगा. नरेंद्र मोदी की ताकत में ओबीसी और दलित वर्ग का समर्थन बढ़ा है, जिसके चलते जाति के बिसात पर राजनीति करने वाले क्षत्रपों की राजनीति के लिए संकट बने हैं.

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