हस्तिनापुर के सिंहासन पर धृतराष्ट्र बैठे थे. सत्ता के लोभ और पुत्र मोह में उन्होंने भतीजे युधिष्ठिर से आंख फेर रखी थी. लिहाजा पहले राज्य के दो हिस्से हुए और फिर महाभारत. भतीजे ने कृष्ण के साथ मिलकर सत्ता पलट दी. 5000 साल पुरानी ये कहानी बताती है कि भारतीय सियासत में ऐसे घटनाक्रम नए नहीं है. अलग-अलग समय पर राजनीति के दिग्गजों को रिश्तों में मिली ये चोट सहनी ही पड़ी है. आज के संदर्भ में देखें तो एनसीपी और शरद पवार के साथ ऐसा ही कुछ हुआ है. भतीजे से बेटी को आगे करने का महीने भर पहले ही उठाया गया कदम इस कदर भारी पड़ा कि कद्दावर नेता कहे जाने वाले शरद पवार टूट चुके हैं. उनके आगे नाम और निशान की बड़ी लड़ाई आकर खड़ी हो गई है.
रिश्तों में चाचा को मिलती रही भतीजों से टक्कर
महाराष्ट्र में ही ठाकरे परिवार की टूट, उत्तर प्रदेश में मुलायम परिवार में शिवपाल-अखिलेश की जंग और हरियाणा में चौटाला परिवार के चाचा-भतीजे की लड़ाई किसी से छिपी नहीं है. सत्ता की इन कहानियों में एक कहानी पंजाब के कद्दावर नेता रहे, शिरोमणि अकाली दल के संरक्षक और बाबा बादल के नाम से पहचाने जाने वाले दिवंगत नेता प्रकाश सिंह बादल की भी है. कहानी कुछ ऐसी है कि जो चोट उन्हें सत्ता में कभी नहीं मिली, वो घाव उनके भतीजे मनप्रीत सिंह बादल ने उन्हें दिया था.
पंजाब की राजनीति में भी है महाराष्ट्र जैसा किस्सा
सत्ता की उठा-पटक के बीच प्रकाश सिंह बादल रिश्तों के झंझावात से नहीं बच पाए. रिश्तों में राजनीतिक टकराहट उन्हें अपने ही भतीजे मनप्रीत सिंह बादल से मिली, जब मनप्रीत उनसे नाराज होकर अलग हो गए थे और फिर अपनी अलग पार्टी ही बना ली थी. आज पंजाब के सीएम भगवंत मान कभी मनप्रीत सिंह बादल के बहुत करीबी दोस्त भी हुआ करते थे. बल्कि मनप्रीत ही वह शख्सियत हैं जो भगवंत मान को राजनीति में लेकर आए थे. उन्होंने भगवंत मान को अपनी पार्टी पीपीपी से टिकट दिया था और पहली बार उन्हें चुनाव भी मनप्रीत ने ही लड़वाया था.
क्यों अलग हुए थे चाचा-भतीजे के रास्ते
प्रकाश सिंह बादल से भतीजे मनप्रीत की टकराहट की वजह भी सत्ता की महत्वाकांक्षा ही थी. सीएम पद की दावेदारी का सवाल इतना बड़ा हुआ कि चाचा-भतीजे का रिश्ता छोटा पड़ गया. मनप्रीत के पिता गुरदास सिंह बादल और शिअद प्रमुख पूर्व सीएम प्रकाश सिंह बादल सगे भाई थे. 1995 में पहली बार अकाली दल के टिकट पर मनप्रीत को विधायक चुना गया था. इसके बाद वह अकाली दल के ही टिकट पर 1997, 2002 और 2007 में भी गिद्दड़बाहा सीट से ही विधायक बनते रहे थे. उस समय की पंजाब की राजनीति में प्रकाश सिंह बादल के बाद युवाओं के बीच मनप्रीत काफी लोकप्रिय थे और 2007 की बादल सरकार में वित्तमंत्री भी रहे. तब वह सरकार मंि सीएम के बाद नंबर-2 की हैसियत रखते थे.
खुद को सीएम पद का दावेदार मान रहे थे मनप्रीत
नंबर दो की हैसियत पर पहुंचने वाला शख्स जल्द ही नंबर-1 हो जाना चाहता है. मनप्रीत भी प्रकाश सिंह बादल के बाद खुद को पंजाब के सीएम पद का अगला दावेदार मान रहे थे. इसी बीच उन्हें भनक लग गई कि चाचा अकाली दल की कमान सुखबीर सिंह बादल के हाथ में सौंपने वाले हैं. ये भनक थोड़ी और पुख्ता हुई और तो यहीं से मनों में दूरियां आना शुरू हुईं. उधर, प्रकाश सिंह बादल भी बेटे का करियर बनाने की कोशिश में जुटे थे. ठीक वैसे ही जैसे, शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे, राज ठाकरे के बढ़ते कद के बावजूद, बेटे उद्धव के करियर को सेट करने में जुटे थे.
सुखबीर सिंह बादल से होने लगा टकराव
मनप्रीत के लिए स्थिति यह हो गई कि वह शिअद में अपनी जगह को लेकर आशंकित रहने लगे. इससे मनप्रीत का डिप्टी सीएम सुखबीर सिंह बादल से विवाद बढ़ने लगा. इस वजह से उन्होंने अकाली दल छोड़ दिया और साल 2010 में आपसी मतभेद के बाद मनप्रीत का रास्ता अकाली सरकार से बिल्कुल अलग हो गया. साल 2012 में लेफ्ट के साथ मिलकर उन्होंने पंजाब में अपनी नई पार्टी पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब बना ली और अपनी पार्टी के सिंबल पर ही 2012 का विधानसभा चुनाव भी लड़े. इसके बाद मनप्रीत 2014 में कांग्रेस के सिंबल पर बठिंडा से चुनाव लड़े थे. इस चुनाव की हर तरफ खूब चर्चा हुई थी, क्योंकि यह चुनाव वह अपनी भाभी और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर के खिलाफ लड़ रहे थे. मनप्रीत को इस चुनाव में हार मिली.
अब कहां हैं मनप्रीत सिंह बादल?
फिर आया साल 2016. 15 जनवरी 2016 को मनप्रीत सिंह बादल के नेतृत्व वाली पंजाब पीपुल्स पार्टी का कांग्रेस में ही विलय हो गया. इससे शिरोमणि अकाली दल को गहरा झटका लगा था. 2017 में कांग्रेस की विधानसभा चुनावों में जीत हुई और शिरोमणि अकाली दल को हार का सामना करना पड़ा था. खैर, घटनाक्रमों के इस दौर में एक बड़ा बदलाव और हो चुका है. मनप्रीत ने बीते दिनों भारत जोड़ो यात्रा से पहले ही कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था और अब बीजेपी में शामिल हो चुके हैं.
अजित पवार की बगावत ने चाचा-भतीजों की सियासी रार वाले पन्ने को एक बार सामने खोलकर रख दिया है, जो कि अब भारतीय राजनीति के इतिहास का प्रमुख हिस्सा बन चुके हैं.
विकास पोरवाल