पिछली किस्त में आपने हरियाणा और राज्य से सटे बॉर्डर पर चलते नशा मुक्ति केंद्रों की झलक देखी. आज पढ़ें, एक ऐसे परिवार का दर्द, जिन्होंने अपना जवान बेटा ऐसे ही एक सेंटर में खो दिया. हादसे को एक साल बीत चुका, लेकिन सेंटर अब भी चालू है. पीड़ितों का आरोप है कि रिहैब सेंटरों में न डॉक्टर होते हैं, न दवाएं. वहीं नशा मुक्ति केंद्र चला रहे लोग प्रशासनिक सख्ती से तंग दिखते हैं.
मई का दूसरा सप्ताह, जब सुबह-सुबह हैबतपुर गांव के सरपंच ऋषिपाल सिंह का फोन बजता है. सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र से फोन था. उस पार से हड़बड़ाती हुई आवाज पूछती है- क्या तुम्हारे भांजे सुमीत को पहले भी दौरे आते थे?
आधी नींद में बात करते सरपंच की नींद एकदम से खुल जाती है- 'नहीं. आज तक नहीं आया. क्या हुआ? सुमीत को क्या दौरे पड़ रहे हैं!'
'फोन बिना कुछ कहे कट जाता है. मैं जब अस्पताल पहुंचा, मेरा लड़का खत्म हो चुका है. शायद कई घंटे पहले. अस्पताल पहुंचने से भी पहले.'
पहली किस्त यहां पढ़ें- Ground Report: सलाखों में मरीज, टॉर्चर वाला इलाज... हरियाणा में फैलते जा रहे रिहैब सेंटरों का ये है रियल फेस!
जींद के इस सरपंच से हमारी फोन पर बात हुई. सख्त आवाज बच्चे का नाम लेते हुए बार-बार पनीली होती हुई. वे याद करते हैं- 2 मई को हमने उसे सेंटर पर छोड़ा था. एक कमरे में तीस से ज्यादा बच्चे ठुंसे हुए. लेकिन हमारे पास ज्यादा खोज-पड़ताल का वक्त नहीं था. बस इतनी तसल्ली थी कि गांव का एक और लड़का वहां था.
वैसे तो वो लोग डेढ़ महीने से पहले किसी को मिलने नहीं देते, लेकिन मुझे नहीं रोक पाए. मैं 10 दिनों में तीन बार उसे देखकर आया.
मुलाकात में सुमीत ने इशारा नहीं किया कि कुछ गड़बड़ है!
वो लोग अकेले मिलने ही कहां देते थे. तीन विजिट की, तीनों बार सेंटर के लोग साथ बैठे रहे. कुछ गड़बड़ तो लगता था, लेकिन समझ नहीं आ सका. इसी नासमझी में बच्चा मार दिया उन्होंने.
डेढ़ दिनों तक हम कई सेंटर, कई डॉक्टरों तक भटकते रहे. बहुत से आम चेहरे भी मिले. सबका दावा कि ड्रग फ्री गांव भी नशे में सिर तक ऊबे-डूबे हैं. नशा छुड़वाने वाले सेंटर भी चिट्टे से अलग नहीं. विथड्रॉल सिम्पटम के चलते कई मौतें हो चुकीं, लेकिन कोई कुछ कहने को राजी नहीं.
खतरा है...बदनामी होगी… क्यों जख्म कुरेदना…बालक है... जैसे तर्कों के बीच हम सरपंच ऋषिपाल सिंह से जुड़ते हैं.
बच्चा मार दिया उन्होंने...12 मई को सेंटर पर तेज म्यूजिक पर डांस करवाया गया. ये थैरेपी है ताकि विथड्रॉल सिम्पटम कुछ कम हो सके. वैसे तो इसके लिए डॉक्टर दवा देते हैं, लेकिन वहां नचवाकर या काम करवाकर नेचुरल तरीके से वे लोगों को ठीक करने का दावा कर रहे थे. बंद हॉल में डांस के बाद देर रात लोग सोने गए, तभी सुमीत की तबियत बिगड़ी.
उसे जोर-जोर से झटके आने लगे. दांत किटकिटा रहे थे. बाकी के मरीज दौड़े. सेंटर चलाने वालों को आवाज लगाई, लेकिन कोई नहीं आया. थोड़ी देर बाद सुमीत का शरीर ढीला पड़ा. साथी वापस अपने बेड पर लौट गए.
कुछ ही देर हुई होगी कि दूसरा अटैक, और फिर तीसरा. स्टाफ आया. उसके मुंह में कुछ गोलियां डालीं, लेकिन बच्चा जा चुका था. ये शायद चार- साढ़े चार बजे की बात होगी. इसके भी तीनेक घंटे बाद मेरे पास फोन आया. वो भी बताता हुआ नहीं, सवाल करता हुआ...
मैं गाड़ी उठाकर पहले सेंटर पहुंचा, वहां से अस्पताल भागा. पूछा तो पता लगा कि सुमीत नाम का कोई मरीज नहीं आया. वापस सेंटर लौट रहा था कि तभी एक गाड़ी रुकी. सुमीत को स्ट्रेचर पर डाला जा रहा था. मैं दौड़ा. डॉक्टर के पास पहुंचे तो उसने तुरंत ही उसे मरा हुआ बता दिया.
सेंटर में उस रात क्या हुआ, आपको कैसे पता लगा?
वहां अपने गांव का एक और बच्चा था. बाद में उसने सब बताया. हमने एफआईआर भी की. पोस्टमार्टम कराया. लेकिन सालभर बीता, उसकी रिपोर्ट तक नहीं आई, कार्रवाई की तो छोड़िए.
जिस वक्त एडमिट कराया, सारी सच्ची-झूठी कहानियां बनाईं. पूरे वक्त डॉक्टर होंगे. अच्छा खाना मिलेगा. काउंसलिंग मिलेगी.
बच्चे को चिट्टे का नशा था. छोड़ने में जो तोड़ उठती है, वो जान ले लेती है. यहां का बच्चा-बच्चा ये बात जानता है, लेकिन सेंटर वालों ने परवाह नहीं की. वहां दारू पीकर मुस्टंडे सेंटर संभालते हैं. शाम को नशा करके सो जाते हैं. बच्चे मरें या जिएं, उन्हें कोई मतलब नहीं.
स्टाफ इतना कम था कि सेंटरवाले मरीजों से ही खाना पकाने, साफ-सफाई, यहां तक कि बाथरूम धुलवाने का काम भी करवाते.
फोन रखते ही सरपंच के नंबर से एक के बाद एक कई कागज आते हैं. डेथ सर्टिफिकेट से लेकर मृतक का आधार कार्ड तक. साथ में एक रिक्वेस्ट- देखिएगा, अगर कुछ हो सके.
सरपंच से बात के बाद हम अपने काल्पनिक मरीज की भर्ती के लिए सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र फोन लगाते हैं.
शाम हुई ही है लेकिन उस पार से भर्राई हुई आवाज आती है, जैसे गहरी नींद में हो.
एडमिशन? हां, हो जाएगा. 17000 महीने का चार्ज है. और छह महीने का एडमिशन. मरीज इतने में ठीक हो जाएगा आपका. भर्राई आवाज अब प्रोफेशनल भर्राएपन के साथ बात कर रही है.
17 तो बहुत ज्यादा है, कुछ कम कीजिए सर. मैंने और कई जगहों पर पता किया, वे कम चार्ज कर रहे...
बात पूरी होने से पहले ही आवाज कहती है- जानता हूं. कम पैसे लेंगे तो सर्विस भी वैसी ही देंगे वो लोग. करते हैं सब. बिजनेस है उनके लिए. हम भलाई कर रहे हैं लेकिन दस खर्चे होते हैं. डॉक्टर चाहिए. नर्स. काउंसलर. कुक रहेगा. सफाई-तुफाई के अलग तामझाम. इतना खर्चेंगे तो मरीज एकदम चिट्टा-फ्री होकर लौटेगा.
डॉक्टर तो 24 घंटे रहेगा न!
उसकी क्या जरूरत है! डॉक्टर रोज विजिट करेंगे. और जरूरत पड़ी तो फोन तो है ही.
अच्छा ठीक है, कहां है आपका सेंटर...लगातार फोन करते हुए मैं गड़बड़ा जाती हूं...
आप कहां से बोल रही हैं? इस बार आवाज ज्यादा चौकस लगती है जैसे ताड़ रही हो. फिर नर्म पड़ते हुए कहती है- ऐसा है जी कि हमारे इस सेंटर पर तो हम नए एडमिशन ले नहीं रहे, लाइसेंस रिन्यूअल के लिए गया हुआ है, लेकिन हमारे दो और सेंटर भी हैं. नाम अलग है, लेकिन काम वही. करनाल और नरवाणा में. चार्जेज वही रहेंगे. आप बताइए तो मरीज को लेने भी हम खुद आ जाएंगे.
सीसीटीवी एक्सेस मिलेगा हमें?
नहीं, वो देंगे तो बाकियों की प्राइवेसी चली जाएगी. हां, आप चाहें तो हम आपको वीडियो बनाकर भेज सकते हैं, जब भी कहें.
सालभर पहले हुई जवान मौत के बाद भी आवाज में दर्द की कोई गांठ नहीं.
रीहैब सेंटरों पर और भी कई संदिग्ध मौतें हो चुकीं लेकिन कभी-कभार ही वे मीडिया तक पहुंच सकीं. सरकारी डेटा में तो कभी नहीं.
सोनीपत में कुछ साल पहले धरमजीत नाम के मरीज को सेंटर चला रहे कई लोगों ने पीट-पीटकर मार डाला. किसी तरह सीसीटीवी फुटेज मिलने के बाद पुलिस ने कुछ लोगों को गैर-इरादतन हत्या के आरोप में पकड़ा लेकिन उसके बाद कोई अपडेट नहीं.
सिरसा जिले में रोज एक मौत का दावा करते सिरसा में अबूब शहर के बलराम जाखड़ कहते हैं, कहने को मेरा या आसपास के कई गांव ड्रग फ्री कहलाते हैं, लेकिन साल में 30 से 40 मौतें हो जाती हैं. बहुत लोग नशे के ओवरडोज से मरते हैं. जो बाकी रहते हैं, वे एड्स का शिकार हो जाते हैं. शादी करके आई बच्चियां बेचारी बीमारी ले रही हैं. इसी शर्म की वजह से परिवार मीडिया से बात करते भी घबराते हैं. मौत हो जाए तो आनन-फानन अंतिम संस्कार कर देते हैं. पुलिस भी हाथ नहीं डालती कि क्यों बात बढ़ाई जाए.
इतनी ड्रग्स मिल कहां से रही है?
बॉर्डर से आती है जी. और वो भी न मिले तो मेडिकल स्टोर वाले दवाएं दे देते हैं. आप खुद ट्राई करके देख लीजिए.
मेडिकल नशा पाना बहुत आसान है. अस्पताल जाइए, और खुद आजमा लीजिए. ये बात हमें सिरसा में लगातार सुनाई पड़ी. आजमाने के लिए हम वहां के बंसल अस्पताल पहुंचे.
पूरी तरह से वैध अस्पताल में भी सिर्फ फोन पर बातचीत कर डॉक्टर ने मरीज यानी मुझे डिप्रेशन की दस दिनों की दवाएं बता दीं और वहीं मौजूद केमिस्ट ने बिना पर्ची दवाएं दे भी दीं. निर्देश सिर्फ इतना कि नींद ज्यादा आए तो घबराइएगा नहीं!
पिछले महीने ही हरियाणा सरकार ने सारे जिलों के डिप्टी कमिश्नर्स को निर्देश दिया कि वे दवा दुकानों पर CCTV लगवाना तय करें ताकि बिना प्रेस्क्रिप्शन के दवाएं न बेची जा सकें. मेडिकल नशे पर लगाम कसने के लिए हाल में सरकार ने ये फैसला लिया, जबकि खुद अस्पताल की फार्मेसी तक बिना मरीज की पड़ताल और बगैर पर्ची उसे दवाएं दे रही है.
अब मैं फतेहाबाद में हूं, उसी अस्पताल के पास, जहां के सरकारी डॉक्टर को बाहरी दुनिया की कोई खबर नहीं.
अस्पताल से एकाध किलोमीटर दूर कारगिल मोहल्ला है. दूसरा नाम- गुरुनानक पुरा. इस पूरे के पूरे मोहल्ले को छावनी में बदल दिया गया. वजह देते हुए आसपास के लोग थूक निगलते हुए कहते हैं -सप्लायर हैं सारे के सारे. बर्बाद कर रहे हैं सबको.
दो-एक छोटे मकानों के बीच कई तल्ला ऊंचे मकान बने हुए. सबपर सीसीटीवी लगा हुआ, ऐसे कि बाहर से आने-जाने वाले साफ दिखें. ये पुलिस वालों को ताड़ने के लिए लगे कैमरे हैं. हो-हल्ले के बाद चारों कोनों पर फोर्स तैनात कर दी गई. गली पैक्ड. इमरजेंसी या रुटीन काम के अलावा न कोई बाहर जा सकता है, न कोई भीतर आ सकता है.
नए चेहरों को देखते ही पड़ताल होती है. हमारी भी हुई.
सड़कें सूनी. लगभग सारे दरवाजे मुंदे हुए. खिड़कियों से ही इक्का-दुक्का चेहरे झांकते हुए. या फिर एकाध बच्चा बाहर भटकता दिख जाएगा.
सवालों के दौरान एक पुलिसवाला सादा ढंग से कहता है- इतनी गर्मी में किसे ऐसी गली में रहना अच्छा लगेगा. अब ड्यूटी लगा दी. कुछ दिन पहले तलाशी भी हुई थी. डॉग स्क्वाड आया था. लेकिन कुछ मिला नहीं. पता नहीं, कहां गायब हो गया.
मतलब आप लोगों ने सप्लाई चेन तोड़ दी!
वो हम क्या कह सकते हैं. हमें तो जो बोला जाए, वो करना है.
गली में अकेला परिवार बाहर दिखता है. क्यों भाईसाहब, आप भी नशा बेचते थे क्या? बेचैन लग रहे हैं.
हंसी-हंसी में कही बात का तड़ से जवाब लौटा- नशा बेचते होते तो क्या ऐसे घर में रहते. छोटे-अधकच्चे मकान की तरफ इशारा करता हुआ चेहरा. मक्खन नाम का ये शख्स पहले भी कई बार नशे की शिकायत कर चुका.
फिर कौन ड्रग्स बेचता है?
हमें और एकाध परिवार को छोड़ बाकी सब. क्या आदमी, क्या औरत. अभी जब पुलिस का पहरा है तो ये काम बच्चे संभाल रहे हैं. स्कूल जाने या खेलने के बहाने चुंगी पहुंचकर वे ड्रग्स सप्लाई करते हैं. फोन पर बड़े बातचीत कर लेते हैं. पुलिस बच्चों की तलाशी नहीं ले रही. काम तो सारा चल रहा है.
अधकच्चे घर का मालिक मक्खन कई बार पुलिस से शिकायत कर चुका, लेकिन कथित तौर पर हर बार पुलिस उसे ही डराती है. हमारा यकीन पाने के लिए वे तपाक से कई कागज ले आते हैं. सीएमओ से लेकर सीएम तक को लिखे लेटर में ड्रग्स को लेकर वाकई शिकायत है. चिट्ठियों की रिसीविंग भी साथ में नत्थी.
इतना रिस्क क्यों लेते हैं?
सवाल पर वे कुछ देर चुप रहते हैं. शायद पुरानी चोट अब भी रिस रही हो. चेहरे पर हाथ फेरते हुए कहते हैं- पिताजी का मकान है. 20 सालों से यहीं रह रहा हूं. इसे छोड़कर कहां जाएं! घर में औरतें हैं. बच्चियां हैं. ड्रग्स खत्म हो जाए तो तसल्ली रहेगी. यही सोचते हुए शिकायत की तो पुलिसवाले उल्टा धमकाने लगे. गली से गुजरो तो ये लोग पत्थर मारते हैं.
मक्खन भीतर से कई और कागजों का पुलिंदा लाने को हैं, कि हम रोकते हुए निकल जाते हैं.
कारगिल मोहल्ले के लगभग हर बिजली खंभे पर किसी न किसी नशा मुक्ति केंद्र का एड चिपका हुआ. दीवारें भी विज्ञापनों से खाली नहीं.
ऐसे ही एक नंबर पर कॉल करने पर सुनाई पड़ता है- फोन पर हम कोई ‘डीलिंग’ नहीं करते. और आप तो हरियाणा की लगती भी नहीं! कहां का मरीज है आपका!
नशे के बाजार में एक पक्ष ड्रग डीएडिक्शन सेंटर चला रहे लोगों का भी है. ज्यादातर की शिकायत कि सरकार उनपर जरूरत से ज्यादा सख्त हो रही.
इस बारे में हमने लगभग 30 सालों से पियर एजुकेटर रहे करमवीर सहवाल से बात की.
गाइडलाइन इतनी ज्यादा कि कोई भी उसे फॉलो नहीं कर सकता. सरकार ने जो नियम बनाए हैं, उसमें 15 मरीजों के रिहैबिलिटेशन सेंटर पर महीनेभर का खर्च 12 से 13 लाख रुपए आएगा. एनजीओ ही सेंटर चला रहे हैं. उन्हें कोई सरकारी फंडिंग तो होती नहीं. ऐसे में वे क्या करें! ये लाखों का खर्च अलग 15 एडिक्ट्स में बांटा जाए तो हरेक को लगभग 90 हजार रुपए हर महीने देने होंगे, वो भी छह महीनों तक. आप ही सोचिए, नशे से जूझ रहे परिवार के पास क्या इतने पैसे होते हैं!
मरीज आ नहीं रहे, या गलत हाथों में पड़ रहे हैं. चिंता में सनी आवाज.
तो एक सेंटर का कुल मंथली खर्च 12 से 13 लाख है!
नहीं. ये सिर्फ 15 मरीजों वाले सेंटर के लिए है. पेशेंट्स का नंबर जैसे-जैसे बढ़ेगा, स्टाफ की संख्या भी उतनी बढ़ेगी और खर्च भी उतना ही ज्यादा होगा. प्राइवेट की क्या कहें, सिविल अस्पतालों में भी नशा मुक्ति केंद्र हैं. लेकिन स्टाफ वहां भी नहीं. विथड्रॉल सिम्पटम आ जाए तो रात में ही सिर-फुटौवल शुरू हो जाती है. ऐसे में कैसे मैनेज करें.
लेकिन हमने जिन सेंटरों को देखा, वहां मरीजों के साथ बदइंतजामी दिख रही थी. तो गाइडलाइन की जरूरत तो रही होगी, तभी प्रशासन ने निर्देश दिए!
हां. बदइंतजामी होती है. असल में देखा-देखी बहुतों ने सेंटर खोल लिए. वे तो रिहैब और डी-एडिक्शन में अंतर भी नहीं जानते. उनके पास न प्रोफेशनल ट्रेनिंग है, न संभालने के लिए लोग.
मरीज जब भड़कता है तो थोड़ा-बहुत प्यार से बोलते हैं लेकिन फिर मारपीट हो जाती है. बीच-बचाव में सेंटर के स्टाफ भी मरते रहे. मेरे सिर में ही कई टांके लगे थे एक बार. छुट्टी मिलने पर पुराने मरीज गोलियां चलाकर चले जाते हैं. या पत्थरबाजी करते रहते हैं.
हम तो अपनी तरफ से अच्छा करना चाहते हैं लेकिन प्रशासन हमें आतंकवादियों की तरह ट्रीट करने लगा है. हर महीने कई-कई विभाग इंस्पेक्शन पर आ जाते हैं. कमियां निकालते हैं. और कुछ न बने तो लाइसेंस में ही रोड़ा अटका देते हैं. हमारा खुद का रोहतक ब्रांच बंद हो चुका.
नशा मुक्ति केंद्रों की वक्तकटी और कथित सरकारी सख्ती के बीच संकरी मेड़ पर मरीज अटके हुए हैं. कई तालों में बंद सेंटर में उनके लिए इकलौता आसमान वो उम्मीद है, जब वे बाहर निकल सकेंगे.
सेंटर से छूटकर आया एक युवक पहचान छिपाने की शर्त पर हमसे बात करता है. ‘मुझे अक्सर चीनी के दाने गिनने को दे दिए जाते. किलोभर चीनी का एक-एक दाना अलग सरकाते हुए मैं जरा भी भड़का या थका तो मारपीट की जाती थी. यही उनकी काउंसलिंग थी. तोड़ उठने पर उल्टियां होतीं तो उसी हालत में बाथरूम साफ करवाया जाता था. यही उनका इलाज था!’
इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन- विजेंदर कुमार, जींद
मृदुलिका झा