दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) के छात्रसंघ चुनाव में एक बार फिर लेफ्ट के 'लाल सलाम' नारे को स्टूडेंट्स ने सिर-आंखों पर चढ़ा लिया. ‘लेफ्ट यूनिटी’ गठबंधन ने 6 नवंबर को जेएनयू स्टूडेंट यूनियन (JNUSU) के सेंट्रल पैनल की चारों पोस्ट पर अपना परचम लहराया. अदिति मिश्रा प्रेसिडेंट, के. गोपिका बाबू वाइस प्रेसिडेंट, सुनील यादव जनरल सेक्रेटरी और दानिश अली जॉइंट सेक्रेटरी चुने गए हैं. राइट-विंग को सेंट्रल पैनल में कोई जगह नहीं मिल सकी है. इसी के साथ, एक बार फिर साबित हो गया कि जेएनयू स्टूडेंट पॉलिटिक्स पर लेफ्ट का दबदबा अब भी बरक़रार है.
इस चुनाव में 'लेफ्ट यूनिटी' गठबंधन में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन, स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया और डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फ्रंट शामिल थे. इसी साल अप्रैल में हुए पिछले छात्रसंघ चुनावों में लेफ्ट यूनिटी में फूट पड़ गई थी, जिससे एक सीट (जॉइंट सेक्रेटरी) एबीवीपी के हिस्से गई थी.
ऐतिहासिक रूप से जेएनयू लेफ्ट (वाम) का गढ़ रहा है, जहां अलग-अलग संगठन एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते रहे हैं. जेएनयू छात्र संघ चुनाव में सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ है, जब एबीवीपी ने प्रेसिडेंट पद पर जीत हासिल की.
अप्रैल 1969 में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई. सितंबर 1971 में छात्रसंघ (JNUSU) की स्थापना हुई और नवंबर में पहला चुनाव हुआ. ओएन शुक्ला (ON Shukla) छात्रसंघ के पहले अध्यक्ष बने. 1972 के चुनाव में वीसी कोशी (VC Koshy) स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट बने.
पहले चुनाव से लेकर 1978 तक, लेफ्ट विंग संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) का कैंपस पर दबदबा रहा. एसएफआई, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) का स्टूडेंट विंग है. SFI के उम्मीदवारों ने 1971, 1972, 1973, 1974, 1975, 1976, 1977 और 1978 में सभी चार सेंट्रल पैनल पोस्ट पर फतह हासिल की. साल 1972 में बांग्लादेश जंग की वजह छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए थे.
1975-76 में डीपी त्रिपाठी जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट बने, जिन्हें जेएनयू के आपातकाल विरोधी चेहरे के तौर पर भी पहचाना गया. तेज़, हाज़िरजवाब और पैनी नज़र वाले डीपी त्रिपाठी 1970 के दशक में इमरजेंसी के ख़िलाफ़ छात्रों के विरोध का चेहरा बने.
साल 1978 में पहली बार SFI ने AISF (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन, CPI का स्टूडेंट विंग) के साथ चुनावी समझौता किया और सीटें शेयर कीं. 1978 से 1990 तक, SFI-AISF गठबंधन सबसे ताकतवर राजनीतिक ताकत बना रहा. इस गठबंधन ने 1981, 1983, 1984, 1986, 1987 और 1988 में सभी चार पदों पर फतह का परचम लहराया.
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साल 1993 में लेफ्ट यूनिटी में पहली बड़ी दरार आई और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (AISA) का उदय हुआ. इस संगठन ने SFI-AISF गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ा. AISA, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन का स्टूडेंट विंग है. साल 1996 में AISA ने पहली बार प्रेसिडेंट का पद जीतकर इतिहास रच दिया. ये पहला मौक़ा था, जब लेफ्ट यूनिटी के बिना प्रेसिडेंट के पद पर जीत हुई थी. इससे पहले 1993 और 94 में AISA ने पहली बार जनरल सेक्रेटरी का पद जीता था. 1997 में लेफ्ट यूनिटी वापस आई और सभी 4 सीटों पर जीत हासिल की. इसके बाद साल-दर-साल जेएनयू में लेफ्ट अपना परचम लहराता रहा.
जेएनयू में आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का आगमन 1980 के आख़िरी दौर में हुआ. 1991 में एबीवीपी ने सेंट्रल पैनल के संयुक्त सचिव पद पर जीत हासिल की. एबीवीपी ने पहली सबसे बड़ी जीत 1996 में हासिल की जब, संगठन ने उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव पद पर अपना परचम लहराया. इस चुनाव में एबीवीपी अध्यक्ष पद के लिए सिर्फ़ चार वोटों से हारी थी.
साल 2000 में पहली बार ऐसा हुआ, जब एबीवीपी के संदीप महापात्र ने बहुत कम अंतर से प्रेसिडेंट पद पर जीत हासिल करते हुए इतिहास रचा. इसके बाद से अब तक लगातार लेफ्ट विंग के छात्र नेता प्रेसिडेंट बनते रहे हैं.
साल 2015 में लेफ्ट को तब झटका लगा. इस बार के चुनाव में एबीवीपी के सौरभ शर्मा ने जॉइंट सेक्रेटरी पद पर जीतकर 14 साल का सूखा ख़त्म किया. इस साल लेफ्ट की तरफ से कन्हैया कुमार (प्रेसिडेंट), शेहला रशीद (वाइस प्रेसिडेंट) और रामा नागा (जनरल सेक्रेटरी) के पद पर जीते थे.
इसके बाद, चार लेफ्ट संगठन- SFI, AISA, DSF और AISF ने एक साथ आकर 'यूनाइटेड लेफ्ट' गठबंधन बनाया. तब से, सिर्फ़ एक चुनाव को छोड़कर यूनाइटेड लेफ्ट ने लगातार सभी चार सेंट्रल पैनल पोस्ट जीते हैं. पिछले चुनाव में वैभव मीणा ने ज्वाइंट सेक्रेटरी पद जीतकर संगठन को केंद्रीय पैनल में एक दशक बाद वापसी दिलाई थी.
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जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर हरीश वानखेड़े aajtak.in के साथ बातचीत में कहते हैं, "यूनिवर्सिटी की स्थापना से ही कैंपस का माहौल बहुत ही लोकतांत्रिक रहा है. जेएनयू एक सोशल साइंस की यूनिवर्सिटी रही है. इसमें ऐसा एजुकेशन दिया जाता है, जो आलोचनात्मक, बौद्धिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर का होता है. बौद्धिक स्टूटेंड्स के लिए लेफ्ट की विचारधारा के साथ समझ बनाना आसान हो जाता है. इसी का नतीजा है कि स्टूडेंट्स लेफ्ट की विचारधारा और अकादमिक अनुशासन के साथ कनेक्शन बनाकर समझ पाते हैं. इसी वजह से जेएनयू में पहले दिन से आज तक लेफ्ट को स्टूडेंट्स का समर्थन मिलता रहा है."
कुछ अन्य वजहों पर बात करते हुए प्रोफ़ेसर हरीश वानखेड़े आगे कहते हैं, "जेएनयू में लोअर मिडिल क्लास और पिछले समाज के लोग पढ़ने के लिए आते हैं. इनकी राजनीतिक चिंताएं लेफ्ट के साथ मेल खाती हैं. इस वजह से सपोर्ट मिलता है. 1990 में ओबीसी रिज़र्वेशन लागू होने के बाद जेएनयू में आने वाले तबक़े में ओबीसी, एससी/एसटी और मुस्लिम स्टूडेंट्स की तादाद जेएनयू में बहुत ज़्यादा बढ़ी हुई है. जेएनयू की ये डेमोग्राफ़ी लेफ़्ट की विचारधारा को बहुत सपोर्ट करती है."
वे आगे बताते हैं कि लेफ्ट के संगठन कैंपस में साल भर काम करते हैं. कई तरह के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इवेंट्स किए जाते हैं. इसमें स्टूटेंड्स को बेहद प्रभावशाली ढंग से बांधा जाता है. इसी के चलते आज तक यहां पर लेफ्ट के ख़त्म नहीं किया जा सका है.
'आधे हिस्से में पूरा लेफ्ट, आधे में एबीवीपी...'
दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर और दक्षिणपंथी राजनीति को क़रीब से समझने वाले स्वदेश सिंह कहते हैं, "जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में आधे हिस्से में पूरा लेफ्ट है, जिसमें कई संगठन शामिल हैं. सभी संगठन मिलकर लड़ते हैं, तो आधी ताक़त बनती है. वहीं, दूसरी तरफ़ आधे में एक अकेला संगठन एबीवीपी है."
प्रोफ़ेसर स्वदेश सिंह कहते हैं कि चुनाव के वक़्त सारे कम्युनिस्ट छात्र संगठन 'लेफ्ट यूनिटी' के तहत एक हो जाते हैं, जिससे उनका वोट बंटता नहीं है और वे जीत जाते हैं. अगर लेफ्ट संगठन एक साथ चुनाव नहीं लड़ें, तो इनकी स्थिति बहुत ख़राब हो जाएगी.
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'लेफ्ट का दबदबा कहना अतिशयोक्ति...'
जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर विवेक कुमार कहते हैं, "सारे कम्युनिस्ट संगठनों को लेफ्ट कह कर एक ब्रश से पेंट नहीं किया जा सकता है. मंडल कमीशन के बाद एसएफआई और एआईएसएफ़ मिलकर लड़ने लगे. इसकी वजह थी लेफ्ट का कमज़ोर पड़ना. लेकिन एबीवीपी अकेले चुनाव लड़ता रहा. इसलिए सिर्फ़ यह नहीं कहा जा सकता है कि जेएनयू छात्रसंघ में सिर्फ़ लेफ्ट का क़ब्ज़ा है. लेफ्ट बंट रहा है लेकिन राइट का एक ही फ़ोर्स एबीवीपी है. अगर तीनों लेफ्ट और एबीवीपी का वोट मिलाएँ और तुलना करें तो, कहीं न कहीं राइट मज़बूत नज़र आता है."
प्रोफ़ेसर विवेक कुमार आगे कहते हैं, "जेएनयू में मौजूदा वक़्त की राजनीति की बात करें तो लोग कहते हैं कि लेफ़्ट की जीत हो गई, वास्तविकता में तो लेफ्ट बंटा हुआ है और 'लेफ्ट यूनिटी' की जीत हुई है. दूसरी तरफ़, एबीवीपी तो अकेला है. ये कहीं न कहीं लेफ़्ट के घटते हुए प्रभाव की तरफ़ इशारा है. दूसरी तरफ़ NSUI और BAPSA अलग-अलग लड़ रहे हैं. सामाजिक न्याय की बात करने वाली ताक़तें बंटी हुई नज़र आती हैं. मुझे लेफ्ट की ताक़त बढ़ती हुई नहीं दिखाई दे रही है. जेएनयू से AISF साफ हो गया है, जिससे कन्हैया कुमार आते थे. मेरे हिसाब से 'लेफ्ट का दबदबा' कहना अतिशयोक्ति होगी. कहीं न कहीं सच्चाई से मुंह मोड़ने जैसा है."
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जेएनयू में वामपंथी राजनीति पर बात करते हुए प्रोफ़ेसर विवेक आगे कहते हैं कि जेएनयू का शिक्षण-कार्य आलोचनात्मक, सवाल पूछने वाला और वैज्ञानिक नज़रिए वाला है. यह सामाजिक न्याय की बात करने वालों और लेफ्ट में दिखाई पड़ता है. इसीलिए छात्र वामपंथ की तरफ़ आकर्षित होते हैं.
'प्रोग्रेसिव और सवाल करने वाले लोग...'
जेएनयू के पूर्व छात्र और वामपंथी राजनीति के जानकार अब्दुल हफ़ीज़ गांधी कहते हैं, "जेएनयू एक ऐसी यूनिवर्सिटी है, जहाँ हिंदुस्तान के हर हिस्से से लोग आते हैं. ये वो लोग होते हैं, जो प्रोग्रेसिव हैं, जो जाति-धर्म को बीच में नहीं आने देते हैं. उनका लक्ष्य होता है कि मज़लूम, ग़रीब, मज़दूर तबक़े के मुद्दों पर बात हो. जेएनयू के वातावरण में किसान, मज़दूर और ग़रीब की साथ देने की सोच प्रबल रही है. इसलिए कैंपस में लेफ्ट की राजनीति करने वाले लोग हावी रहते हैं."
वे आगे कहते हैं कि साल 2014 के बाद सरकार ने जेएनयू के प्रो-लेफ्ट चरित्र को बदलने की कोशिश की है. जेएनयू की ज़बान बंद करने की कोशिश की गई. क्योंकि यह एक ऐसा विश्वविद्यालय है, जहाँ सरकार से सवाल पूछे जाते थे. सरकार वक़्ती तौर पर ऐसा कर सकती है लेकिन असली जेएनयू प्रो-लेफ्ट ही रहा है और जेएनयू में इस विचारधारा को तोड़ना बहुत मुश्किल काम है.
मोहम्मद साक़िब मज़ीद