शांति की तलाश में लोग दुनिया के आखिरी कोने तक के जंगल-पहाड़ घूम आते हैं, लेकिन कोई न कोई आवाज वहां भी पीछा करती है. वहीं अमेरिका के वॉशिंगटन में एक कमरा ऐसा है, जहां सुई-पटक सन्नाटा मिलेगा. यहां शांति इतनी ज्यादा है कि लोगों को अपने ही दिल की धड़कन भी कई गुना तेज होकर सुनाई देने लगती है. बाहरी आवाजों की कमी से शख्स ऑडिटरी हैल्यूसिनेशन का शिकार भी हो सकता है. यह एनेकॉइक चेंबर है, जहां तुरंत ही लोग घबराकर बाहर निकल जाते हैं.
दुनिया का सबसे शांत कमरा अमेरिका के वॉशिंगटन में माइक्रोसॉफ्ट के हेडक्वार्टर में स्थित है. यह चेंबर इतना शांत है कि यहां आवाज का स्तर शून्य से भी नीचे चला जाता है. मतलब हमारे कान जिस न्यूनतम ध्वनि को सुन सकते हैं, उससे भी कम ध्वनि यहां दर्ज होती है. इसे नेगेटिव डेसिबल कहा जाता है.
इसका मकसद क्या है
एनेकॉइक चेंबर बनाने का मकसद है ध्वनि का शुद्ध परीक्षण करना. यहां दीवारें, छत और फर्श ऐसे बनाए गए हैं कि कोई भी आवाज वापस न लौटे. इसका इस्तेमाल माइक्रोफोन, स्पीकर, मोबाइल, लैपटॉप, कीबोर्ड जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की आवाज जांचने के लिए होता है. कंपनियां पता लगाती हैं कि उनकी डिवाइस बिना किसी बाहरी खलल के कैसी आवाज पैदा करती है.
किस तरह बना ये चेंबर
कमरे को तैयार करने के लिए मोटी स्टील की दीवारें, मोटा कंक्रीट और उनके अंदर खास तरह का फाइबर-ग्लास लगाया जाता है. कई लेयर का यह स्ट्रक्चर आवाज को निगल लेता है, यानी कोई भी आवाज दीवारों से टकराकर वापस नहीं लौट पाती. कमरे का फर्श भी जाल जैसा है, ताकि नीचे मौजूद केबल्स साउंड को पूरी तरह सोख सकें. पूरा चैंबर एक बड़े कंक्रीट बॉक्स के अंदर होता है, यह इसलिए कि बाहर का कोई भी वाइब्रेशन या शोर अंदर न पहुंचे. कुल मिलाकर, इसका स्ट्रक्चर प्याज की तरह है, जिसमें कई-कई परतें हैं, जो चैंबर को बाहरी दुनिया से पूरी तरह काट देती हैं.
अंदर क्या महसूस होता है
ज्यादातर लोग यहां घुसते ही बाहर निकलने के लिए बेचैन हो जाते हैं. अंदर जाते ही कानों में भरा-भरापन लगने लगता है. छोटी से छोटी आवाज साफ सुनाई देने लगती है. जैसे आप अपनी गर्दन भी घुमाएं तो हड्डियों की चट-कट की आवाज सुनेंगे. अपनी सांसों को सुनना भी ऐसा लगता है जैसे लाउड स्पीकर पर सुनाई दे रहा हो.
माइक्रोसॉफ्ट के इस चैंबर का नाम दुनिया की सबसे शांत जगह के तौर पर गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है. कुछ साल पहले ये रिकॉर्ड मिनियापोलिस स्थित ऑरफील्ड लैब्स के नाम था. यहां भी मिलता-जुलता स्ट्रक्चर है, जो आम लोगों के लिए खुला हुआ है. यहां घूमने आने वालों ने कई बार ये रिक्वेस्ट भी की, कि उन्हें ज्यादा देर रुककर रिकॉर्ड बनाने दिया जाए लेकिन मानसिक खतरों को देखते हुए इसकी इजाजत नहीं दी गई.
खो जाता है शरीर का संतुलन
एनेकॉइक चेंबर में बाहर की हर आवाज बंद होती है और अंदर की आवाज भी दीवारों में अवशोषित हो जाती है. यानी वहां पूरी तरह सन्नाटा मिलेगा. इंसानी दिमाग हमेशा किसी न किसी बैकग्राउंड साउंड पर निर्भर रहता है. जब बिल्कुल आवाज न मिले, तो दिमाग यह समझ नहीं पाता कि शरीर का ऑरिएंटेशन किस दिशा में है. इससे कई बार लोग भीतर ही गिर जाते हैं. कई बार अपने शरीर के भीतर की हलचल ही इतनी तेज सुनाई देती हैं कि घबराहट होने लगती है और चक्कर आने लगता है. इसी वजह से ज्यादातर लोग इस कमरे में कुछ सेकंड या मिनट से ज्यादा नहीं टिक पाते.
एब्सॉल्यूट साइलेंस में रहने से ब्रेन का क्या होगा
अगर इंसान लंबे समय तक कोई आवाज न सुने, तो इसका दिमाग और शरीर पर गहरा असर पड़ता है. साइंस के मुताबिक, हमारा ब्रेन हमेशा आसपास की आवाजों को प्रोसेस करता रहता है. ये आवाजें बहुत हल्की हों तब भी दिमाग को स्थिर रखती हैं. लेकिन जब आवाजें पूरी तरह गायब हो जाएं तो ब्रेन को कोई बाहरी संकेत नहीं मिलता. कुछ ही मिनटों में वह अपनी ही बॉडी की धड़कन, ब्लड फ्लो और मसल मूवमेंट सुनने लगता है.
बहुत देर तक ऐसे साइलेंस में रहने से मस्तिष्क ओवरएक्टिव हो जाता है. बाहरी आवाजें न मिल पाने पर वह खुद साउंड तैयार करने लगता है, जिससे शख्स को भ्रम होने लगता है. उसे नकली आवाजें सुनाई देने लगती हैं. इस स्थिति को ऑडिटरी हैल्यूसिनेशन कहते हैं. चूंकि हमारा बैलेंस सिस्टम भी आवाजों से संकेत लेता है. इसलिए लोग ऐसे कमरों में चलते समय लड़खड़ा जाते हैं.लंबे समय इस तरह के एक्सपोजर से मानसिक सेहत पर गंभीर असर भी पड़ सकत है, इसलिए दुनिया के सबसे शांत कमरों में कोई ज्यादा देर नहीं रुक पाता.
वैज्ञानिक इस कमरे में कैसे काम करते हैं
एक्सपर्ट एनेकॉइक चेंबर में जाते भी हैं और काम भी कर लेते हैं, लेकिन वे सामान्य लोगों की तरह पूरी तरह साइलेंस में नहीं बैठे रहते. उनका काम एक तय प्रोसेस के साथ होता है, ताकि दिमाग पर असर कम से कम हो.
- इसके लिए उनकी पूरी ट्रेनिंग होती है. उन्हें मनोवैज्ञानिक तौर पर तैयार किया जाता है कि अंदर कैसी शांति होगी, कानों को लगेगा कि कुछ गड़बड़ है, और शरीर संतुलन भी खो सकता है. इसलिए वे पैनिक नहीं करते और दिमाग यह मान लेता है कि यह काम का हिस्सा है.
- वैज्ञानिक कमरे में ज्यादातर समय मशीनें चलाते, माइक्रोफोन सेट करते या ध्वनि मापते हैं. यानी वहां हमेशा कोई न कोई साउंड टेस्ट चल रहा होता है. इस वजह से उन्हें वो गहरी, कानों को परेशान करने वाली शांति महसूस नहीं होती जो आम इंसान को डराती है.
- वे लंबे सेशन नहीं करते, बल्कि 10–20 मिनट के इंटरवल में काम करते हैं, बीच में बाहर आकर ब्रेक लेते हैं. इससे शरीर को रीसेट होने का समय मिलता है. इसके बाद भी अगर किसी को घबराहट हो तो तुरंत मेडिकल मदद मिलती है.
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