गाजियाबाद की पॉश कॉलोनी में एक शख्स हर्षवर्धन जैन नकली एंबेसी चलाता पकड़ा गया. वो खुद को वेस्टार्कटिका का डिप्लोमेट बताता था. स्पेशल टास्क फोर्स ने अरेस्ट के दौरान पाया कि उसने दूतावास के नाम पर नकली मोहरें, फ्लैग और नकली नंबर प्लेट वाली गाड़ियां भी रखी हुई थीं ताकि किसी को शक न हो.
फिलहाल जांच चल रही है, लेकिन इस बीच ये बात भी आती है कि क्या सिस्टम को बायपास कर दूतावास जैसी संस्था भी बनाई जा सकती है? क्या किसी देश में दूतावास खोलने के नियम नहीं, या फिर खुलने के बाद उसकी जांच नहीं होती? और जब नकली पासपोर्ट जैसी चीजें पकड़ में आ जाती हैं तो पूरा का पूरा फर्जी दूतावास कैसे टिका रह गया?
पहले जानते चलें आरोप की मायावी दुनिया के बारे में. हर्षवर्धन जैन खुद को वेस्टार्कटिका का कॉन्सुलेट जनरल बताता था. छापा पड़ने से कुछ दिन पहले ही सोशल मीडिया अकाउंट पर क्लेम किया गया कि आरोपी साल 2017 से कान्सुलेट चला रहा है और लगातार चैरिटी करता है. महंगी कारों पर फेक डिप्लोमेटिक नंबरों की वजह से जैन लगातार सिक्योरिटी चेक से बचता रहा.
क्या है वेस्टार्कटिका
यह एक माइक्रोनेशन है, यानी देश का एक फलसफा, जिसमें असल कुछ भी नहीं होता. साल 2001 में एक अमेरिकी नागरिक ने अंटार्कटिका के एक कोने को अपना देश बनाने का दावा किया और नाम दिया- वेस्टार्कटिका. लेकिन यूनाइटेड नेशन्स समेत भारत के लिए ये कोई देश नहीं. जैन ने इसी क्लेम का फायदा उठाते हुए खुद को वेस्टार्कटिका का राजनयिक घोषित कर दिया.
खुद को जेनुइन दिखाने के लिए आरोपी ने सारे खटराग किए. पॉश गाड़ियों पर डिप्लोमेटिक कॉर्प्स (डीसी) की नंबर प्लेट ली गई. गाजियाबाद स्थित घर पर फेक फॉरेन फ्लैग्स लगे हुए थे. फेक आईडी, लेटरहेड के अलावा लोग झांसे में रहें, इसके लिए उसने पीएम और राष्ट्रपति के साथ मॉर्फ्ड फोटो भी लगा रखी थी. शुरुआती जांच में माना जा रहा है कि इस तथाकथित एंबेसी के जरिए जैन कई आर्थिक गड़बड़ियां कर रहा था.
जांच एजेंसियों को कैसे पता लगा
न्यूज18 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश एसटीएफ को किसी ने सूचना दी थी कि मामला संदिग्ध है. इसके बाद मिनिस्ट्री ऑफ एक्सटर्नल अफेयर्स में जांच हुई, जहां पता लगा वेस्टार्कटिका नाम से कोई देश ही लिस्ट में नहीं. इसके बाद छापेमारी में बाकी जानकारियां भी सामने आईं. जैन का मामला पहला नहीं. पहले भी ऐसा हो चुका है कि फर्जी दूतावास न सिर्फ खुले, बल्कि सालों तक बेरोक-टोक चलते रहे. उन्हें पहचानने में जांच एजेंसियों को सालोंसाल लगे.
क्या होता है दूतावास
यह किसी देश की तरफ से दूसरे देश में खोला गया आधिकारिक दफ्तर होता है, जहां गेस्ट नेशन के प्रतिनिधि काम करते हैं. यह एक बेहद औपचारिक प्रक्रिया होती है, जिसमें दोनों देशों के विदेश मंत्रालय शामिल होते हैं. दूतावास के मुख्य अधिकारी राजनयिक कहलाते हैं, जिन्हें डिप्लोमेटिक इम्युनिटी मिली होती है. एंबेसी दो देशों के बीच पुल का काम करता है. यहीं से वीजा जारी होता है. इसके अलावा अगर होस्ट देश में कोई समस्या आ जाए तो दूतावास अपने नागरिकों को मदद करता है.
अगर कोई फर्जी देश के नाम पर एंबेसी बना ले तो क्या वो तुरंत शक में नहीं आएगा
तुरंत नहीं. असल में दूतावास के लिए जो तामझाम चाहिए, अगर शख्स वो सब जुटा सके तो तुरंत किसी को शक नहीं होगा. जैसे एंबेसी हमेशा पॉश इलाके में होती है. नकली झंडा चाहिए होता है, जो असल जैसा लगे. नकली आईडी, डिप्लोमेटिक नंबर वाली गाड़ियां और कुछ स्टाफ, जो कनविंसिंग लगे. कई बार लोग नकली देश के डिप्लोमेट बन जाते हैं तो कई बार असल देश के नाम पर भी झांसा देने लगते हैं.
कब-कब आ चुके मामले
ऐसा एक बेहद चर्चित केस घाना में आया था. लगभग एक दशक पहले राजधानी अक्रा में फर्जी अमेरिकी दूतावास चल रहा था. ये कुछ दिन या महीनों नहीं, बल्कि पूरे दस सालों तक चलता रहा. यहां से नकली वीजा जारी किए जाते थे. ठगी का काम एक इंटरनेशनल गिरोह कर रहा था, जिसमें वकील और जाली दस्तावेज बनाने वाले भी शामिल थे. मजेदार बात ये है कि गिरोह ने असली वीजा भी जारी किए थे, मतलब असल अमेरिकी दूतावास में भी उनके कुछ लोग थे.
हमारे यहां भी दो साल पहले कोलकाता के पास एक नकली बांग्लादेशी एंबेसी का पता लगा था. खुद को कॉन्सुलेट जनरल बताने वाला एक स्थानीय शख्स बांग्लादेश से भारत और भारत से बांग्लादेश भेजने के लिए नकली दस्तावेज बनाता और आर्थिक घपले भी करता था.
तो क्या इस सबकी चेकिंग नहीं होती
एंबेसी की जांच दो स्तरों पर होती है. एक तो खुद होस्ट देश की जिम्मेदारी है कि वो अपने यहां काम कर रहे सभी दूतावासों और मिशनों पर नजर रखे. मिनिस्ट्री ऑफ एक्सटर्नल अफेयर्स और इंटरनेशनल सिस्टम जैसे यूएन या वीजा वैरिफिकेशन सिस्टम के पास भी वैलिड दूतावासों की लिस्ट होती है. इसके बाद भी फर्जी एंबेसी लंबे समय तक बच पाती है अगर लोकल स्तर पर कुछ भ्रष्ट अधिकारी उसके साथ हों.
कई बार अधिकारियों या स्थानीय पुलिस को भी खास जानकारी नहीं होती कि दूतावासों का सिस्टम कैसे काम करता है. इसके अलावा नकली दस्तावेज भी इतने असली लगते हैं कि पहली नजर में शक की गुंजाइश कम ही रहती है. दूतावास का क्लेम करने वाले लोग बात करते हुए बड़े नाम लेते हैं, बड़े संपर्कों का हवाला देते हैं. यह सब इतना पेशवेर लगता है कि लोग इनपर आसानी से हाथ नहीं डालते और फर्जी एंबेसी भी सालों टिक जाती है.
सजा को लेकर इंटरनेशनल कानून क्या कहता है
विएना कन्वेंशन ऑन डिप्लोमेटिक रिलेशन्स 1961 के मुताबिक, कोई भी दूतावास तभी वैध माना जाएगा जब होस्ट देश की सहमति से खोला गया हो. इसी तरह से किसी को डिप्लोमेट या कॉन्सुलेट जनरल तब माना जाता है, जब उसे गेस्ट देश ने खुद अधिकृत किया हो. ऐसे में अगर कोई खुद ही दूतावास खोल ले तो ये गंभीर अपराध है. इसपर जालसाजी की धाराएं तो लगेंगी ही, साथ ही अगर वो लोगों को धोखे से विदेश भेज रहा हो तो मानव तस्करी का आरोप भी लग सकता है. अगर शख्स के साथ विदेशी लोग मिले हों तो देश की सुरक्षा पर खतरा भी माना जा सकता है.
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