रूस और यूक्रेन की भौगोलिक और सैन्य ताकत में काफी अंतर है. इसके बाद भी मॉस्को अक्सर ही कीव को लेकर उग्रता दिखाता रहा. यहां तक कि सोवियत संघ (अब रूस) का बंटवारा होने के बाद भी उसका रवैया यही था. उसकी शर्त थी कि यूक्रेन अपने हिस्से आए परमाणु भंडार को लौटा या नष्ट कर दे तो वो शांत हो जाएगा. हालांकि ऐसा हुआ नहीं. तो क्या कुछ परमाणु ताकत अब भी कीव के पास बाकी है?
सोवियत के टूटने के बाद साल 1991 में यूक्रेन एक आजाद देश बन गया. उस समय सोवियत संघ के पास न्यूक्लियर हथियारों का विशाल भंडार था. सोवियत रणनीति के तहत, ये हथियार अलग-अलग जगहों पर थे और यूक्रेन में वे सबसे ज्यादा थे. हथियारों का कंट्रोल भले ही मॉस्को के पास था, लेकिन थे वे यूक्रेनी जमीन पर. यह जखीरा अमेरिका और रूस के बाद सबसे विशाल था.
रूस को क्यों दिलचस्पी थी
अगर किसी भी तरह से यूक्रेन को इनपर कंट्रोल मिल जाता तो रूस की स्थिति कमजोर हो सकती थी. उसके लिए यह राष्ट्रीय सुरक्षा का बड़ा मुद्दा था. रूस को डर भी था कि अगर यूक्रेन NATO के करीब चला गया, तो न्यूक्लियर हथियार पश्चिम के हाथ लग सकते हैं. ये सीधे तौर पर शीत युद्ध में कमजोर पड़े रूस पर बड़ा हमला होता.
अलगाव के बाद यूक्रेन राजनीतिक और आर्थिक तौर पर अस्थिर था. मॉस्को ने इसी कमजोर नस को दबाना शुरू किया. उसने उसे भरोसा दिलाया कि अगर वो परमाणु भंडार रूस को लौटा दे तो उसकी सीमाएं सुरक्षित रहेंगी. मॉस्को से ही यूक्रेन को तब ऊर्जा सप्लाई हो रही थी. हथियार सौंपने पर उसे आर्थिक मदद और कच्चा तेल-गैस सस्ती दर पर मिलने का भरोसा दिया गया.
यूक्रेन ने क्यों दी सहमति
वो खुद उकताया हुआ था. उसके पास हथियारों के नाम पर सफेद हाथी आ चुका था, जो किसी काम का था नहीं, उल्टे जिसके रखरखाव पर हर साल बड़ा भारी खर्च था, जो उस जैसा कमजोर देश अफोर्ड नहीं कर सकता था. साथ ही उसपर बाकी मजबूत देशों से दबाव था कि वो हथियार छोड़ दे. राजनीतिक समर्थन और आर्थिक मदद मिलने की बात पर उसने हथियार सौंपने पर हामी दे दी. साल 1994 में बुडापेस्ट मेमोरेंडम पर साइन हुए और लेनदेन पूरा हुआ.
मेमोरेंडम में रूस ने वादा किया था कि अगर यूक्रेन अपने न्यूक्लियर हथियार सौंप दे, तो उसकी सुरक्षा और सीमाओं का सम्मान करेगा, लेकिन तब से वो यूक्रेन पर दो बार हमले कर चुका. पहली बार साल 2014 में अटैक के बाद उसने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. अब जो युद्ध छेड़ा है, वो लगभग चार सालों से जारी है. हमला करना और जमीन पर कब्जा सीधे तौर पर इस वादे के खिलाफ है.
क्या यह कानूनी तौर पर अपराध है
नहीं. बुडापेस्ट मेमोरेंडम एक राजनीतिक वादा था. इसमें सीमाओं के सम्मान की बात थी, न कि इसकी कि वो सैन्य सुरक्षा देगा. वैसे भी यह राजनीतिक और नैतिक दोस्ती थी, न कि कोई कानून. कानूनी तौर पर रूस पर सैन्य कार्रवाई न करने का सीधा दबाव नहीं है. संधि यानी ट्रीटी इससे अलग है, जिसका मतलब है कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि, जिसे तोड़ने पर इंटरनेशनल कोर्ट में कानूनी कार्रवाई की जा सकती है.
कुछ सालों में यूक्रेन जब अमेरिका या वेस्ट के ज्यादा करीब दिखने लगा तो रूस को असुरक्षा महसूस हुई और उसने राजनीतिक वादे को तोड़ते हुए यूक्रेन पर हमला कर दिया.
तो क्या यूक्रेन के पास अब कोई परमाणु हथियार या प्लांट बाकी नहीं
फिलहाल उसके पास कोई न्यूक्लियर हथियार नहीं, न ही कोई एक्टिव परमाणु प्लांट है. अब जो प्लांट है, उसमें केवल बिजली बनाई जाती है. इसपर भी अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी (IAEA) की नजर है.
अब इसपर क्यों हो रही चर्चा
कुछ दिन पहले खबर आई कि डोनाल्ड ट्रंप और व्लादिमीर पुतिन हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में मिलने वाले हैं, और असल मुद्दा होगा यूक्रेन. करीब तीस साल पहले भी इसी मसले पर अमेरिका और रूस के बीच बातचीत हुई थी, तब बुडापेस्ट समझौता हुआ था.
लेकिन इस बार हालात अलग हैं. मंजूरी मिलने के बाद अचानक दोनों नेताओं ने मिलना स्थगित कर दिया. माना जा रहा है कि ट्रंप और पुतिन एक लाइन पर नहीं हैं, और शायद पुतिन किसी भी हाल में अपनी शर्तों से डिगने को तैयार नहीं. तो इस तरह से बुडापेस्ट एक बड़े समझौते का साक्षी होते-होते रह गया.
वापस परमाणु-शक्ति संपन्न बनना चाहते हैं लोग
दिलचस्प ये है कि तीन दशक पहले अपने हथियार सौंप चुके यूक्रेनी अब चाहते हैं कि वो ये ताकत दोबारा हासिल करें, फिर भले ही इसके लिए उनके हाथों से पश्चिम की दोस्ती चली जाए. कीव इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशियोलॉजी के इस सर्वे में निकलकर आया कि 58% यूक्रेनी नागरिक ये चाहते हैं. उन्हें लगता है कि अगर उनके पास परमाणु शक्ति होती तो रूस बार-बार उनकी सीमाओं पर धौंस नहीं जमाता.
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