होम कंट्री के न अपनाने पर क्या निर्जन द्वीप ही शरणार्थियों का अकेला सहारा, क्या है थर्ड कंट्री डिपोर्टेशन, जिस पर उठे सवाल?

अमेरिका समेत कई देशों ने मास डिपोर्टेशन मुहिम चला रखी है. जो लोग वैध तरीके से नहीं आए, उन्हें हिरासत में लेकर वापस उनके देश भेजा जा रहा है. जिन्हें उनके देश अपनाने को राजी नहीं, उन्हें किसी तीसरे देश में डिपोर्ट किया जा सकता है. ये मुल्क भी घुसपैठियों को अपने मुख्य शहरों नहीं, बल्कि किसी दूरदराज के द्वीप में बसा रहे हैं.

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प्रवासियों को किसी तीसरे देश भेजने के लिए समझौते किए जा रहे हैं. (Photo- AFP) प्रवासियों को किसी तीसरे देश भेजने के लिए समझौते किए जा रहे हैं. (Photo- AFP)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 03 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 2:41 PM IST

हाल-हाल के समय में पश्चिम के लगभग सारे देश माइग्रेंट्स पर ज्यादा ही उग्र हो चुके. अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक अपनी जमीन पर उनकी आबादी कम करने में जुटे हैं. अगर संबंधित देश अपने लोगों को स्वीकार न करें तो उन्हें थर्ड कंट्री में भेजा जा सकता है. पैसों के बदले लोगों को अपने यहां बसाने को तैयार ये देश भी उन्हें सीधे अपने बड़े शहरों में नहीं, बल्कि निर्जन द्वीपों पर बसाने की योजना में हैं. 

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इन दिनों कई देश अवैध रूप से अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रवासियों को तीसरे देश भेजने के लिए समझौते कर रहे हैं. इसे थर्ड-कंट्री डिपोर्टेशन कहते हैं. इसमें घुसपैठियों को न तो गेस्ट देश स्वीकारता है, न ही उनका अपना मुल्क. ऐसे में गेस्ट कंट्री किसी थर्ड से करार करती है कि वो अवैध प्रवासियों को अपने यहां रख ले.

निश्चित हेड काउंट पर निश्चित रकम दी जाती है. बीते दिनों अमेरिका ने कई देशों के साथ ऐसे समझौते किए, जिनमें ग्वाटेमाला, कोस्टा रिका, पनामा, कोसोवो, रवांडा, और इस्वातिनी शामिल हैं. ये अमेरिकी प्रवासियों को अपने यहां रखेंगे.

ऑस्ट्रेलिया भी घुसपैठ पर सख्त हो चुका. वहां अवैध तौर पर आए लोग नाउरु जैसे तीसरे देश में भेजे जा सकते हैं. दो दशक पहले भी ये प्रोसेस की गई थी. दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित देश असल में द्वीपों से बना है. वहां के निर्जन आइलैंड पर नए लोग बसाए जा सकते हैं. इसके बदले में नाउरु सरकार को 2.5 बिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर मिलेगा. 

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(Photo- AFP)

ब्रिटेन ने भी नियम तोड़कर भीतर आए लोगों को रवांडा भेजने के लिए एग्रीमेंट किया था. लेकिन भारी विरोध के बीच इस प्लान को खत्म कर दिया गया, या कम से कम संसद में यही कहा गया. इमिग्रेंट्स को सुरक्षा आश्वासन देने के बीच भी साल 2024 में लेबर सरकार ने 35 हजार से ज्यादा लोगों को बाहर निकाला, जो पिछले साल की तुलना में 25 फीसदी ज्यादा था. 

अब बात करें यूरोप की, तो वहां भी ऐसी योजना पर बात हो रही है. मई में यूरोपियन यूनियन ने इसी तरह का प्रस्ताव दिया, जिसमें लोगों को तीसरे देशों में भेजा जा सकता है. शरण के लिए आवेदन कर रहे लोग भी वहां डिपोर्ट हो सकते हैं. 

अनचाही आबादी को जबरन कहीं और भेजना नई बात नहीं. प्रवासियों को न तो उनका अपना देश अपनाएगा, न ही वे, जहां वे बसना चाहते हैं. ऐसे में वे स्टेटलेस होकर जिएं, इससे बेहतर यही है कि कोई ठिकाना मिल जाए. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो रही. मुश्किल यहां है कि ज्यादातर थर्ड कंट्रीज वे हैं, जहां इकनॉमिक और पॉलिटिकल हालात काफी खराब हैं. जैसे अफ्रीकी देशों को लें तो वहां कब, क्या हो जाएगा, ये तय नहीं रहता. बहुत से मुल्क सालों से सिविल वॉर में उलझे हुए हैं. मिलिटेंट्स के कई समूह हैं, जो आपस में हमलावर रहते हैं. यहां नशा और हिंसा की खबरें आती रहती हैं.

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जिस देश में खुद स्थिरता नहीं, वो बाहरियों को कैसे अपना सकेगा! पैसों के लिए वो इसपर हामी भले कर दे, लेकिन तय है कि अवैध प्रवासियों को सुरक्षा नहीं मिल सकेगी. 

 (Photo- AFP)

एक समस्या और है. थर्ड कंट्री डिपोर्टेशन के नाम पर छांट-छांटकर द्वीप देश चुने जा रहे हैं. ये छोटे और दूर-दराज इलाके हैं, जहां प्रवासियों को अलग रखना आसान होता है. सरकारें इसे अक्सर कंटेनमेंट या अलग-थलग रखने की तरह देखती हैं. तीसरे देशों के लिए भी ये फायदे का सौदा है. उन्हें विकास के लिए भारी फंड मिल रहा है, साथ ही नए आए मेहमान सीधे उनके मेनलैंड की बजाए द्वीपों में बस रहे हैं. इससे स्थानीय आबादी के भड़कने का खतरा कम हो जाता है. 

खुद को दबाव से बचाने के लिए सरकार ऐसा करती है लेकिन अपना घर छोड़कर आए लोगों के लिए एडजस्टमेंट आसान नहीं. कंटेनमेंट का मतलब है कि अवैध रूप से आने वाले या शरणार्थी प्रवासियों को मुख्य आबादी या शहरों से दूर रखा जाए. ये ऐसे द्वीप होते हैं, जो निर्जन पड़े हों. अब जाहिर है कि जमीन की मारामारी के बीच कोई आइलैंड यूं ही तो सूना नहीं पड़ा रहेगा. ये द्वीप समुद्र के बीचोंबीच हो सकते हैं, जहां तूफान या बाढ़ का खतरा बहुत ज्यादा हो. जहां कोई रिसोर्स या इंफ्रास्ट्रक्चर न बन सकता हो. 

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ऑस्ट्रेलिया इसका बड़ा उदाहरण है. दो दशक पहले उसने नाउरु द्वीप को को शरणार्थियों के लिए डिटेंशन सेंटर के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया. ये बहुत छोटा और अलग-थलग द्वीप है. मुख्य शहरों से दूर रहते लोगों के पास न काम था, न सुरक्षा. अस्पताल, बिजली, स्कूल जैसी बेसिक सुविधाएं भी वहां नहीं थीं. द्वीप पर मौसम की चुनौतियां अलग थी. द्वीप से डिप्रेशन और हिंसा की खबरें लगातार आने लगीं. 

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स्थिति इतनी बिगड़ी कि मानवाधिकार संस्थाएं आवाज उठाने लगीं. तब जाकर लीडर्स ने वादा किया कि शरणार्थी वापस बुलाए जाएंगे. बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते ऑस्ट्रेलिया ने उन्हें धीरे-धीरे वापस लाना शुरू किया, लेकिन अब फिर उनके डिपोर्टेशन की बात हो रही है. 

द्वीपों को डिपोर्टेशन सेंटर की तरह इस्तेमाल करने की बड़ी मिसाल बांग्लादेश का भाषण चार आइलैंड है. म्यांमार में बौद्ध आबादी और मुस्लिमों के बीच हिंसा के बाद मुस्लिम आबादी भागकर बांग्लादेश जाने लगी. यूएन के मदद के भरोसे के बाद ढाका सरकार ने उन्हें कॉक्स बाजार में बसाया. बंगाल की खाड़ी में बसे समुद्री तट में जल्द ही लाखों रिफ्यूजी बस गए. लेकिन जल्द ही यहां समस्या होने लगी. स्थानीय लोग शिकायत करने लगे कि शरणार्थी तस्करी और मारपीट में लिप्त रहते हैं, जिसका असर उनपर हो रहा है. 

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शिकायतों के बीच एक हल निकाला गया. म्यांमार से आए रिफ्यूजी अब भाषण चार द्वीप पर बसाए जाने लगे. ये साइक्लोन से घिरा हुआ द्वीप है, जहां कोई नहीं रहता, न कोई सुविधा है. तटीय क्षेत्रों से लगभग 60 किलोमीटर दूर बसा द्वीप लगातार बाढ़ और तूफान जैसी आपदाओं में फंसा रहता है. लगभग दो दशक पहले अस्तित्व में आए आइलैंड के बारे में बड़ा डर यह भी है कि यह जल्द ही समुद्र में समा सकता है. ऐसे में शरणार्थियों का क्या होगा? 

मानवाधिकार संस्थाएं इस पर बात तो कर रही हैं, लेकिन धीरे-धीरे कई देश थर्ड कंट्री डिपोर्टेशन की योजना पर काम कर रहे हैं, जिसमें द्वीप देश ऊपर हैं.

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