अपनी ही पार्टी में हो रही बगावत, ट्रूडो के बाद कौन ले सकता है उनकी जगह, कनाडाई सिखों में कैसी छवि?

भारत और कनाडा में जारी कूटनीतिक विवाद के बीच प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अपनी ही पार्टी में घिरते दिख रहे हैं. हाल में लिबरल पार्टी के एक सांसद सीन केसी ने ट्रूडो से इस्तीफे की मांग कर डाली. कहा तो ये तक जा रहा है कि बागी खेमा अगले चुनाव से पहले पीएम से नेतृत्व छीन लेगा. लेकिन ट्रूडो के बाद पार्टी का पसंदीदा चेहरा कौन है?

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पीएम जस्टिन ट्रूडो पर पार्टी की लीडरशिप छोड़ने का दबाव बढ़ रहा है. (Photo- AP) पीएम जस्टिन ट्रूडो पर पार्टी की लीडरशिप छोड़ने का दबाव बढ़ रहा है. (Photo- AP)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 18 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 2:16 PM IST

जस्टिन ट्रूडो ने सियासी जमीन मजबूत करने के फेर में भारत से तो बिगाड़ कर ही डाली, उनकी अपनी पार्टी में भी नाराजगी दिख रही है. वहां के एक लिबरल सांसद सीन केसी ने खुलआम ट्रूडो से इस्तीफे की मांग करते हुए कह दिया कि अब उनके जाने का वक्त आ चुका है. वे इकलौते सांसद नहीं, एक पूरा खेमा है, जो नया नेतृत्व तलाश रहा है. यहां तक कि इस्तीफे की मांग करते हुए वे ऐसे रास्ते बना रहे हैं कि पीएम अगर खुद राजी न हों तो उन्हें पार्टी लीडर के पद से जबरन हटाया जा सके.

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इस सर्वे ने बढ़ाया असंतोष

पार्टी सदस्यों के गुस्से की बड़ी वजह हालिया सर्वे है, जिसमें ट्रूडो विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी से काफी पीछे दिख रहे हैं. दरअसल, कनाडाई ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के पोल ट्रैकर में दिखा कि लिबरल पार्टी विपक्षियों से 20 प्रतिशत पीछे चल रही है. यानी अगर तुरंत चुनाव हों तो लिबरल्स की हार तय है. वहीं कंजर्वेटिव नेता पियरे पोलिवरे साल 2025 के चुनाव में प्रधानमंत्री के लिए पसंदीदा उम्मीदवार की तरह देखे जा रहे हैं. 

ऐसे कई सर्वे हैं. इनमें से एंगस रीड इंस्टीट्यूट का पोल ट्रूडो के गिरते ग्राफ को साफ दिखाता है. इसके अनुसार पिछले साल सितंबर में पीएम से असंतुष्ट लोग 39% थे, जो अब बढ़कर 65% हो चुके. अब अगर देश के भीतर ही पूछ कम हो जाए तो जाहिर तौर पर इसका असर पार्टी में भी दिखेगा. तो वही हो रहा है. 

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क्या एकजुट हो रहे बागी नेता

कनाडियन मीडिया लगातार रिपोर्ट कर रहा है कि ट्रूडो को हटाने के लिए सांसद एकजुट हो रहे हैं. टोरंटो स्टार ने सबसे पहले इस तरह के अंदरुनी मूवमेंट का खुलासा किया. इसके अनुसार, लगभग 30 सांसदों ने लिखित में एक दस्तावेज दिया है, जिसमें ट्रूडो के लीडरशिप से हटने की डिमांड है. हालांकि फिलहाल इससे काम बनता नहीं दिख रहा. चूंकि संसद में 150 से ज्यादा लिबरल्स हैं, लिहाजा अगर पार्टी को अपना नेतृत्व बदलना है तो इसके लिए कम से कम 50 सांसदों की जरूरत होगी. लेकिन इतना साफ है कि ट्रूडो अब ओंटारियो और क्यूबेक कॉकस का समर्थन खो चुके क्योंकि इन जगहों के सांसदों ने सार्वजनिक तौर पर अपनी नाखुशी जताई है. 

किन मुद्दों पर हैं घिरे हुए

अगले साल अक्टूबर खत्म होने से पहले कनाडा में जनरल इलेक्शन्स होंगे. इससे पहले चल रही हवा में लिबरन्स को अपनी हार दिख रही है. ट्रूडो के हिस्से में कई नाकामयाबियां हैं. कनाडा में महंगाई लगातार बढ़ रही है. इसके अलावा वहां के लोग इमिग्रेंट्स की बढ़ती आबादी से भी डरे हुए हैं और देश की सुरक्षा का मुद्दा उठा रहे हैं. यही मुद्दे विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी के पक्ष में जा सकते हैं. चूंकि साल 2015 से ही देश में लिबरल्स की सरकार रही, लिहाजा उनके खिलाफ गुस्सा बढ़ चुका है, और लोग दूसरी पार्टी को मौका देने के मूड में हैं. 

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इस नेता को माना जा रहा मजबूत विकल्प

लिबरल्स के पास इसका तोड़ ये है कि वे अपनी पार्टी की लीडरशिप ही बदल दें, मतलब ट्रूडो की जगह कोई दूसरा नेता आए, जिसकी छवि जनता के बीच अच्छी हो, और जो कंजर्वेटिव्स की टक्कर का हो. इसमें एक नाम अक्सर आता रहा- क्रिस्टिया फ्रीलैंड. ठीक दशकभर पहले लिबरल पार्टी की सदस्य बनी फ्रीलैंड ने इतने ही समय में काफी लोकप्रियता कमाई. फिलहाल उप- प्रधानमंत्री यानी ट्रूडो के ऐन नीचे काम करती फ्रीलैंड साथ में वित्त विभाग भी देख रही हैं. इस दौरान उन्होंने कई बड़े फैसले लिए, जिससे न केवल पार्टी के भीतर, बल्कि आम लोगों में भी उनकी इमेज मजबूत नेता की बनी, जो ट्रूडो का विकल्प हो सकती हैं. 

संतुलन बनाकर चलती दिखीं 

फ्रीलैंड की विदेश नीतियां मौजूदा पीएम से महीन मानी जाती हैं. उन्होंने कई देशों के साथ कनाडा के रिश्ते सुधारने पर जोर दिया. भारत के मामले में भी वैसे तो वे सावधान होकर चलती हैं, लेकिन कहीं न कहीं बारीक फांस दिख ही जाती है. जैसे किसान आंदोलन के समय अपने यहां बसे सिख समुदाय को खुश करने के लिए फ्रीलैंड ने भी उनके पक्ष में आवाज उठाई, और यहां तक कह दिया था कि कनाडा में लोगों को शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट की छूट रहती है.

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दो साल पहले जेनेवा में यूएन की बैठक के दौरान भी उप प्रधानमंत्री ने भारत में कथित मानवाधिकार रिकॉर्ड्स पर चिंता जताते हुए कहा था कि कनाडा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ये मुद्दा उठाएगा. 

अक्सर संतुलित रहने के बाद भी फ्रीलैंड की अपने वोट बैंक यानी कनाडा में बसे सिखों के लिए उदारता दिख ही जाती है. इस रवैए के चलते वे सार्वजनिक मौकों पर घिरती भी दिखीं. जैसे हरदीप सिंह निज्जर की मौत के बाद बाकियों की तरह इस कनाडाई सांसद ने भी उसे श्रद्धांजलि दी थी. इसपर एक पत्रकार ने पूछ लिया कि जिस निज्जर के जीते-जी सरकार ने उसे नो-फ्लाई लिस्ट में डाल रखा था, अब मरने के बाद क्यों उससे इतना अपनापा दिखा रही है. इसपर हमेशा बेबाकी से बोलती डिप्टी पीएम अवाक रह गई थीं. काफी संभलने के बाद भी उन्होंने गोलमोल जवाब दिया, जिसपर दिनों तक चर्चा भी हुई थी. तो ट्रूडो अगर नेतृत्व छोड़ भी दें तो भी फ्रीलैंड पार्टी की आइडियोलॉजी वही रखने वाली हैं. 

क्या विपक्षी पार्टी को सिख वोट बैंक की जरूरत नहीं 

लिबरल्स पर लटकती तलवार के बीच कंजर्वेटिव्स की मांग बढ़ रही है. हालांकि इस पार्टी की कनाडियन सिख समुदाय के बीच उतनी पूछ नहीं. इसकी साफ वजहें भी हैं. ये पार्टी धार्मिक आजादी को लेकर उतनी खुली हुई नहीं. मिसाल के तौर पर विपक्षी नेताओं ने कई बार सिखों के सार्वजनिक जगहों पर कृपाण लेकर चलने पर गुस्सा जताया. 

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कंजर्वेटिव्स ने शरण लेने पर सख्त नियम बनाए थे

लिबरल्स अपने यहां सिखों का खुला वेलकम करते रहे, लेकिन कंजर्वेटिव्स इस मामले में सख्त हैं. वे सिख समुदाय ही नहीं, बाकियों को भी शरण देने में कड़ी नीतियां लागू कर चुके. जैसे साल 2006 से 2015 के बीच स्टीफन हार्पर सरकार के दौर में इमिग्रेशन कानूनों में बदलाव हुए, जिससे बाहरी लोगों का आना कम हो सके. इसका असर वहां बसी सिख कम्युनिटी पर भी हुआ था. ये वो समय था जब कनाडा में सबसे तेजी से शरणार्थी आवेदन खारिज हो रहे थे. हालांकि लिबरल पार्टी ने आते ही इसमें दोबारा ढील दे दी. 

शरणार्थियों समेत बस चुकी सिख कम्युनिटी को घटा भी दें तब भी कंजर्वेटिव्स के पास अपना खास वोट बैंक है, जिसमें बीते एक दशक में बढ़त दिखी, खासकर मौजूदा पीएम से असंतोष की वजह से. 

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