पिछले कुछ साल राजनीति और कूटनीति में काफी खलबली लेकर आए. रूस और यूक्रेन हमले के बीच हुआ ये कि सच्चे साथी दिखते यूरोप और अमेरिका के बीच संदेह की फांक पड़ गई. NATO पर खर्च को लेकर तनातनी और बढ़ी. अब स्थिति ये है कि यूरोपीय देश बार-बार मीटिंग लेते हुए नाटो के विकल्प खोज रहे हैं. इस बीच यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप की चर्चा जोर मारने लगी. वैसे फिलहार यह एक ऑनलाइन प्रोपेगेंडा है, जिसमें यूरोपियन यूनियन के 27 देश यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका की तरह एक देश नजर आ रहे हैं, लेकिन इसपर बात कई बार हो चुकी.
यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप एक ऐसी सोच है, जिसमें यूरोप के देश अमेरिका की तरह एक साझा राजनीतिक, आर्थिक और संस्थागत ढांचे में शामिल हों, यानी उनकी सीमाएं मिटाकर एक देश मान लिया जाए.
विश्व युद्ध के ऐन बाद शुरू हुई चर्चा
इस विचार को उठाने वालों में सबसे बड़ा नाम विंस्टन चर्चिल का है. साल 1946 में स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख में दिए गए भाषण में चर्चिल ने पहली बार जोर देकर कहा कि यूरोप को यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप की दिशा में बढ़ना चाहिए. दिलचस्प बात यह है कि उस समय चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नहीं थे, बल्कि विपक्ष में थे. उन्होंने कहा कि यूरोप का भविष्य तभी सुरक्षित होगा, जब पुराने दुश्मन देश आपसी दूरी मिटाकर एक साझा यूरोपीय स्ट्रक्चर बनाएं. हालांकि ये बात करते हुए भी चर्चिल अपने देश यानी ब्रिटेन को इस ढांचे का पूरा हिस्सा नहीं सोच पाते थे और उसे एक संरक्षक की तरह देखते थे.
यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप की तरफ क्या-क्या प्रयास हो चुके
दो विश्व युद्ध झेल चुका यूरोप तबाह हो चुका था. कई देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर पूरी तरह खत्म था. कई कोल्ड वॉर सहने को मजबूर थे. वहीं किसी समय पर बेहद अमीर देश भी अमेरिका की छाया बने रहने को मजबूत थे. ऐसे समय में यूएसई की बात उठी. धीरे-धीरे कुछ मामलों में यह आकार भी लेने लगी.
- पहला बड़ा कदम पचास के दशक का यूरोपियन कोल एंड स्टील कम्युनिटी था. इससे फ्रांस और जर्मनी जैसे पुराने दुश्मन साथ आ गए.
- साल 1957 की रोम संधि ने यूरोपियन इकोनॉमिक कम्युनिटी बनाई. इससे साझा बाजार और लोगों की आवाजाही का रास्ता खुला.
- यूरो करेंसी ने यूरोप को लगभग एक आर्थिक देश जैसा बना दिया. आज लगभग 20 देश एक ही मुद्रा इस्तेमाल कर रहे हैं.
- ऑर्गेनाइजेशन के स्तर पर देखें तो यूरोपीय संसद और यूरोपीय कोर्ट जैसे ढांचे हैं, जो सरकारों से ऊपर जाकर फैसले लेते रहे.
फिर कहां आ रही अड़चन
यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप सोचने में चाहे जितना ताकतवर लगे, लेकिन इसका रास्ता आसान नहीं. कई देश इसपर एतराज उठाते रहे. जैसे ब्रिटेन को ही लें तो यूरोपीय संघ का हिस्सा रहते हुए भी वो लगातार महसूस करता रहा कि संघ उसके कानूनों, इमिग्रेशन नीति और अदालतों में जरूरत से ज्यादा दखल दे रहा है. असंतोष इतना बढ़ा कि वो ब्रेक्ज़िट से बाहर निकल गया. एक वक्त पर लगभग सारी दुनिया पर राज कर चुका ये देश खुद को किसी और के साथ मिलाकर नहीं देख पाता.
ग्रीस और जर्मनी भी एक उदाहरण हैं. कुछ सालों पहले ग्रीस आर्थिक तौर पर बदहाल हो चुका था. इस समय जर्मनी ने उसकी मदद की. इस सहायता के बदले उसने इकनॉमिक रिफॉर्म की शर्त रख दी. इसे ग्रीस ने अपने भीतरी मामलों पर वार की तरह देखा, और नाराज हो गया. इधर जर्मनी में सवाल था कि जर्मन टैक्स-पेयर ग्रीक संकट की कीमत क्यों चुकाएं.
एक और उदाहरण हंगरी का है. हंगरी की सरकार कई बार यूरोपीय संघ के कानूनों और मूल्यों, खासकर न्यायपालिका और मीडिया की आजादी से जुड़े मुद्दों पर टकराव चुकी है. ब्रसेल्स की दखलअंदाजी को वह अपनी राष्ट्रीय पहचान के खिलाफ बताता रहा.
अमेरिका और यूरोप की तुलना करने पर यह सवाल आता है कि जब यूएसए एक देश बन सका, तो यूरोप क्यों नहीं?
सबसे बड़ा अंतर शुरुआत का है. अमेरिका 18वीं सदी में ब्रिटिश उपनिवेशों से निकला, जहां लगभग दर्जन-भर कॉलोनियों ने एक साथ आजादी की लड़ाई लड़ी. यानी वे अलग-अलग देश नहीं थे, बल्कि एक साझा दुश्मन से भिड़ रहे थे. इससे अलग यूरोप में फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसे देश सैकड़ों-सैकड़ों साल पुराने देश रहे जिनकी जड़ें बहुत गहरी हैं.
अमेरिका ने 18वीं सदी में ही यह तय कर लिया कि कौन-सी शक्तियां संघ के पास होंगी और कौन-सी राज्यों के पास. यूरोप में ऐसा कोई साझा संविधान नहीं. जब 2005 में यूरोपीय संविधान का प्रस्ताव आया, तो वह जनमत-संग्रह में खारिज हो गया.
अमेरिका में एक भाषा है, जिसने लोगों को एक तार में बांधा. वहीं यूरोप में लगभग सारे देशों के पास कोई अलग प्राइमरी भाषा रही, जिससे जुड़ा कोई बेहद समृद्ध इतिहास भी रहा. एक देश में आने पर उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति को खोने का डर भी बना रहता है.
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