लगातार विस्फोट से बेहद ठंडी हो सकती है दुनिया, क्या ज्वालामुखी का फटना हिमयुग की शुरुआत हो सकती है?

इथियोपिया में हायली गुब्बी ज्वालामुखी के फटने का असर भारत तक दिख रहा है. आसमान धूल और राख के गुबार से भर चुका, जिसकी वजह से कई इंटरनेशनल उड़ानें रद्द हो गईं. अगर वॉल्केनिक इरप्शन लगातार होता रहा तो धरती और आसमान के बीच धूल की मोटी परत आ जाएगी, जिससे तापमान काफी नीचे भी गिर सकता है.

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इथियोपिया में रविवार को हुए ज्वालामुखीय विस्फोट का असर एशिया तक दिखने लगा. (Photo- Pixabay) इथियोपिया में रविवार को हुए ज्वालामुखीय विस्फोट का असर एशिया तक दिखने लगा. (Photo- Pixabay)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 25 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 11:59 AM IST

इथियोपिया में लगभग बारह हजार साल बाद हायली गुब्बी ज्वालामुखी के फटने पर उससे पैदा राख और जहरीली गैसें हजारों किलोमीटर तक पहुंच गईं. भारत समेत कई देशों में इसका असर हवाई उड़ान पर हो रहा है. इस बीच एक चर्चा ये भी है कि जब एक ज्वालामुखी के फटने से इतना कुछ बदलता है, तो सुपर वॉल्केनिक इरप्शन की स्थिति में क्या होता है?

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यहां एक बात समझने की ये है कि जब भी राख और गैसों की मोटी परत धरती और आसमान के आड़े आती है, तापमान नीचे गिरने लगता है. कई बार ये इतना नीचे चला जाता है कि बेमौसम सर्दियां पड़ने लगती हैं. 

मिस्ट्री इरप्शन से बदल गई थी दुनिया

लगभग दो सदी पहले की एक घटना ज्वालामुखियों के इतिहास में सबसे रहस्यमयी मानी जाती है. 19वीं सदी की शुरुआत से कई सालों तक इंडोनेशिया के माउंट तंबोरा में लगातार ऐसे विस्फोट हुए, जिन्हें आज मिस्ट्री इरप्शन कहा जाता है. इन धमाकों के बारे में वैज्ञानिक रिकॉर्ड, गवाह और लोकल दस्तावेज, तीनों ही बहुत सीमित  हैं.

तकनीक तब वैसी विकसित नहीं थी कि चीजें समझ आ पातीं. तब तंबोरा में लगातार इरप्शन हो रहा था. जल्द ही हवा में इतनी ज्यादा राख और सल्फेट एयरोसोल जमा हो गए कि सूरज की किरणें धरती तक पहुंचनी कम हो गईं. नतीजा यह हुआ कि तापमान में मामूली नहीं, बल्कि पूरे 1.7 डिग्री सेल्सियस तक की गिरावट आ गई. यह बहुत बड़ी बात थी. 

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इसका असर दुनिया भर में दिखा. यूरोप और उत्तरी अमेरिका में पूरे एक साल गर्मियां आई ही नहीं. भारी बर्फबारी हुई. फसलें लगभग तबाह हो गईं. एशिया में भी मानसून पैटर्न बिगड़ गया और अनाज का संकट छा गया. 

बारह हजार सालों बाद हायली गुब्बी ज्वालामुखी में विस्फोट का पहला मामला आया. (Representative Photo- AP)

इस धमाके के बाद लिंक जोड़ने लगे वैज्ञानिक

साल 1883 में इंडोनेशिया का क्राकाटोआ विस्फोट भी इसी तरह का था. वो धमाका इतना जबरदस्त था कि उसकी आवाज सैकड़ों किलोमीटर तक सुनाई दी. विस्फोट के दौरान ज्वालामुखी से राख, धूल और सल्फेट गैसों की भारी मात्रा निकलकर पूरे वायुमंडल में फैलने लगी. इससे चारों ओर एक तरह की धुंधली, चमकीली परत बन गई, जो सूरज की रोशनी को सीधे धरती तक पहुंचने से रोकने लगी. तब ग्लोबल टेंपरेचर में लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की गिरावट आई थी. 

कैसे ज्वालामुखी के फटने से गर्म होने की बजाए धरती का तापमान कम होता है

वॉल्केनिक इरप्शन पर आमतौर पर लगता है कि धरती गर्म होगी, लेकिन उल्टा असर होता है. दरअसल, विस्फोट के दौरान भारी मात्रा में राख, धूल और गैसें ऊपरी वायुमंडल तक जाती हैं. ये कण स्ट्रैटोस्फियर में एक परत तैयार करते हैं, जो अंब्रेला की तरह काम करता है. सूरज की गर्मी इससे टकराकर वापस लौट जाती है.

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इस बीच ज्वालामुखी से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड गैस ऊपर जाकर सल्फेट एयरोसोल बनाती है. एयरोसोल सूर्य की किरणों को और भी ज्यादा रोकते हैं, जिससे ठंडक कई महीनों से लेकर दो-तीन साल तक बनी रह सकती है. 

आइस एज के लिए वॉल्केनिक इरप्शन ही नहीं, बल्कि कई कारक एक साथ काम करते हैं. (Photo- Pixabay)

तो क्या इससे हिमयुग आ सकता है

ज्वालामुखी के बड़े विस्फोट धरती को कुछ समय के लिए ठंडा कर सकते हैं. इसे ग्लोबल कूलिंग पीरियड कहते हैं लेकिन हिमयुग इससे नहीं आ सकता. हिमयुग के लिए हजारों सालों तक लगातार कम तापमान, बर्फ की मोटी परतों का हर साल बढ़ते जाना जैसी कई वजहें जरूरी हैं. ज्वालामुखी का असर इतना लंबा नहीं, बल्कि ज्यादा से ज्यादा दो या तीन साल तक हो सकता है. 

साइंटिस्ट कर रहे प्रयोग

अब कई दशक से वैज्ञानिक ज्वालामुखीय इरप्शन की तर्ज पर ग्लोबल वार्मिंग कम करने की कोशिश कर रहे हैं. इस सोच को स्ट्रैटोस्फेरिक एयरोसोल इंजेक्शन (SAI) कहा जाता है. इस प्रोसेस में सल्फेट के कण ऊपरी वायुमंडल में भेजे जाते हैं ताकि वे सूरज की किरणों को वापस लौटा सकें. इससे तापमान कुछ हद तक कम किया जा सकता है. 

लेकिन इसकी भी सीमाएं हैं, साथ ही खतरे भी हैं. इससे टेंपरेचर से अस्थाई तौर पर तो राहत मिल जाएगी लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की जड़ खत्म नहीं होगी. साथ ही यह बारिश के पैटर्न बदल सकता है. इससे कहीं बाढ़ दिखेगी तो कहीं सूखा. यही वजह है कि कई देश इसके इस्तेमाल पर चिंता जता चुके और कोई भी देश बड़े स्तर पर ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा. 
 

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