दर्शक के खून में उबाल ला देने, रोमांच से भर देने और कुछ भी कर के जेब से टिकट के पैसे निकलवा लेने की होड़ में जुटी फिल्मों के दौर में 'सितारे जमीन पर' वो फिल्म बनकर आई है, जिसे देखकर निकलते हुए आपके होठों पर मुस्कराहट रह जाती है. किसी भी फिल्म को देखते हुए उसपर पैनी नजर बनाए रखना, उसके स्क्रीनप्ले, एक्टर्स के काम और तमाम तकनीकी पहलुओं पर दिमाग में नोट बनाते चलना हम लोगों के काम का हिस्सा होता है. लेकिन कभी-कभार कुछ ऐसी फिल्में बड़े पर्दे पर हमारे सामने उतरती हैं जिन्हें देखते हुए पता नहीं चलता कि दिल ने कब दिमाग को उठाकर पिछली सीट पर भेज दिया है और स्टीयरिंग अपने हाथों में ले लिया है.
सितारों के गुलशन की कहानी
बौद्धिक अक्षमता वाले लोगों के साथ हमारे आसपास के लोगों का बर्ताव काफी शर्मनाक रहा है. ये मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि एक खास उम्र और सोशल सेटिंग में आने के बाद ही हम लोगों में 'अपने से अलग' हर व्यक्ति के साथ, कम से कम एक आम इंसान की तरह पेश आने की सेंसिटिविटी और समझ आई है. हालांकि, आज के दौर में भी ये एक दुर्लभ चीज ही है और कभी-कभार ही पाई जाती है. 'सितारे जमीन पर' ऐसे ही कुछ लोगों की कहानी है.
ये एक कोच की कहानी भी है जिसने जिंदगी में कभी अपने किसी डर का सामना ही नहीं किया. वो जब भी जिंदगी के पाटों के बीच फंसता है, तो अपना बूता आजमाने की बजाय भाग खड़ा होता है. चाहे अपने पिता से मिला ट्रॉमा हो, या अपनी पत्नी की इच्छाओं पर खरा उतरने की बात हो, गुलशन अरोड़ा (आमिर खान) से आप यही उम्मीद रखते हैं कि वो जबतक हो सकेगा अकड़ से काम लेगा और जब बात उसके पक्ष में नहीं झुकेगी तो भाग खड़ा होगा. दिल्ली की बास्केटबॉल टीम के असिस्टेंट कोच गुलशन अरोड़ा कोच तो बहुत अच्छे हैं मगर आदमी सही नहीं हैं.
हालांकि, कानून एक ऐसी चीज है जो अच्छे-अच्छे भागने वालों की लगाम खींचना जानता है. एक 'कांड' करने के बाद अरोड़ा साहब पर कोर्ट में ऐसे ही नकेल कसी जाती है. पहली बार अपराध हुआ है इसलिए दया दिखाते हुए जेल नहीं भेजा जाता, मगर उन्हें बैद्धिक अक्षमता वाले लोगों की एक टीम को बास्केटबॉल की कोचिंग देने का आदेश दिया जाता है. गुलशन को इस बात की तसल्ली नहीं है कि वो जेल होने से बच गया है, बल्कि उसे चिंता है कि उसे तीन महीने इन 'पागल' लोगों को कोचिंग देनी होगी.
दिक्कत ये नहीं है कि गुलशन को ऑटिज्म के बारे में नहीं पता, डाउन सिंड्रोम नहीं पता या ऑटिज्म स्पेक्ट्रम नहीं पता. दिक्कत ये है कि वो इन डिसऑर्डर के साथ जन्मे लोगों को 'नॉर्मल' इंसान भी नहीं मानता. गुलशन की एक दिक्कत ये भी है कि वो दूसरों की बात समझना ही नहीं जानता और इसीलिए अपनी पत्नी सुनीता (जेनेलिया डी'सूजा) से भी उसका रिश्ता गड़बड़ चल रहा है. अपनी नई बास्केटबॉल टीम को कोचिंग देते हुए गुलशन के दिमाग के पेंच खुलना और उसके दिल के तार सुलझना 'सितारे जमीन पर' का मुद्दा हैं.
अपनी कमियों से बनी एक परफेक्ट फिल्म
बतौर एक्टर या सुपरस्टार नहीं, बल्कि सिनेमा में इमोशनल और सोशल मैसेज देने वाली फिल्मों को बढ़ावा देने वाले एक आर्टिस्ट के तौर पर आमिर खान ने सालों से एक विश्वास कायम किया है. उनके करियर में कुछ भी चल रहा हो मगर ये विश्वास कायम तो रहता ही है. इस बार 'सितारे जमीन पर' से आमिर ने फिर एक बार से उस विश्वास को मजबूत किया है कि वो ऐसी कहानियां को बढ़ावा देते रहेंगे जिनका दिल, इमोशन और मैसेज एकदम सही ठिकाने पर होगा.
ये फिल्म ऑटिज्म स्पेक्ट्रम या डाउन सिंड्रोम की नॉलेज देने के चक्कर में नहीं पड़ती और ना ही इसे पड़ना चाहिए था. फिल्म का फोकस इस बार पर है कि जो भी आपसे 'अलग' है उससे आप किस तरह डील करें. ऐसे ही एक सीन में जब गुलशन नहाने से घबराने वाले एक लड़के का डर दूर करता है तो ये सीन बहुत प्यारा लगता है. ये कोच जब अपने खिलाड़ियों को बास्केटबॉल की ट्रेनिंग देने के साथ-साथ उनसे जिंदगी को खुशनुमा और सरल बनाने की ट्रेनिंग लेता है तो सिनेमा स्क्रीन की तरफ देखते हुए आप को भी एक खुशी फील होती है.
ऐसा नहीं है कि फिल्म में सिर्फ इमोशन और ड्रामा ही है. 'सितारे जमीन पर' की कॉमेडी जिस तरह लिखी गई है, वो पिछले कुछ वक्त में आई कई 'कॉमेडी' फिल्मों से भी बहुत बेहतर है. इस फिल्म के पंच बहुत मजेदार हैं और डायलॉग बहुत चटपटे. आमिर और बाकी एक्टर्स की कॉमिक टाइमिंग बहुत दमदार है. फिल्म में एक ऐसा मैसेज है जिसे एक फिल्म भर में समेट पाना असल में एक बहुत मुश्किल टास्क रहा होगा. मगर 'सितारे जमीन पर' इस बात को लेकर सतर्क नजर आती है कि लगातार मैसेज या ड्रामा का डोज बहुत ज्यादा ना हो जाए. और जब भी कहानी इस तरह के जों में जाती है और फिल्म थोड़ी स्लो होनी शुरू होती है, कोई ऐसा कॉमेडी भरा सीन आता है जो माहौल बदल देता है. यहां देखें 'सितारे जमीन पर' का ट्रेलर:
आमिर के एक्टिंग टैलेंट पर कभी किसी को कोई शक रहा ही नहीं, लेकिन 'सितारे जमीन पर' में उनकी परफॉरमेंस अलग से याद रह जाने वाली चीज है. खासकर फिल्म के अंत की तरफ उनका एक इमोशनल मोनोलॉग बहुत ज्यादा दमदार है. इसका इमोशन सिनेमा के पर्दे से निकलकर आपके दिल में उतरने लगता है. 'सितारे जमीन पर' में आमिर के साथ नजर आ रहे बाकी आर्टिस्ट रेगुलर एक्टर नहीं हैं. वे असल जिंदगी में बैद्धिक अक्षमताओं के साथ जी रहे लोग हैं जिन्हें देशभर से चुना गया है.
आरुष दत्ता. गोपी कृष्णन, वेदांत शर्मा, नमन मिश्रा, ऋषि शहानी, ऋषभ जैन, आशीष पेंडसे, संवित देसाई, सिमरन मंगेशकर और आयुष भंसाली ने जिस तरह अपने किरदार निभाए हैं वो अपने आप में स्क्रीन पर देखने लायक एक एक्सपीरियंस है. डॉली अहलुवालिया ने एक बार फिर से मम्मी जी के किरदार को मजेदार बना दिया है और ब्रिजेन्द्र काला अपने लिमिटेड सीन्स में माहौल बना देते हैं. गुरपाल सिंह ने प्रिंसिपल का किरदार ऐसे निभाया है कि आप ना सिर्फ उनसे सीखते हैं बल्कि उनपर प्यार भी आता है.
'सितारे जमीन पर' में भी अपने हिस्से की कमियां हैं. कहीं-कहीं पर फिल्म थोड़ी स्लो लगती है. कुछ जगह एक डिसकनेक्ट सा भी है. गुलशन की मां की कहानी का ट्विस्ट और कुछेक चीजें नहीं भी होतीं तो काम चल जाता. लेकिन इस फिल्म की कमियां जैसे ही उभरनी शुरू होती हैं, आमिर के स्पेशल सितारे अपने काम से उन्हें गायब कर देते हैं. हर बार जब ये कलाकार स्क्रीन पर आते हैं तो आपकी नजरें इनपर टिकी रह जाती हैं. 'सितारे जमीन पर' की कमियां ही इसे खूबसूरत बनाती हैं.
आमिर ने परफॉरमेंस तो कमाल की दी ही है, मगर बतौर प्रोड्यूसर इस कहानी के साथ खड़े होने के लिए उनकी अलग से तारीफ बनती है. फिल्म इंडस्ट्री में 'परफेक्शनिस्ट' कहे जाने वाले आमिर इस बार एक परफेक्ट फिल्म तो नहीं लेकर आए. मगर 'सितारे जमीन पर' उनकी वो फिल्म है जो अपनी कमियों के बावजूद सबसे ज्यादा खूबसूरत है.
सुबोध मिश्रा