जिन नीतीश को कहा विपक्ष ने 'पलटूराम', उन्हीं ने उलट-पलट दिए सारे चुनावी समीकरण

बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए दो-तिहाई बहुमत के साथ सरकार बनाती नजर आ रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह से विपक्ष के सारे समीकरण और दांव को पूरी तरह से पलटकर रख दिया, उससे बिहार के सियासी बादशाह बनकर फिर उभरे हैं.

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बिहार के सियासी बादशाह बनकर उभरे नीतीश कुमार (Photo-ITG) बिहार के सियासी बादशाह बनकर उभरे नीतीश कुमार (Photo-ITG)

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली,
  • 14 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 6:50 PM IST

बिहार विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बढ़ती उम्र और खराब सेहत को बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा था. आरजेडी नेता तेजस्वी यादव और जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर सहित तमाम विपक्षी नेता जिस नीतीश कुमार को 'पलटूराम' कहकर निशाना साध रहे थे, उसी नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा चुनाव के सारे सियासी समीकरण को उलट-पलट कर रख दिया है.

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बिहार चुनाव के रुझानों में एनडीए दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में ज़बरदस्त तरीके से वापसी करता दिख रहा है जबकि महागठबंधन बुरी तरह से हारता दिख रहा है. सूबे की 243 सीटों में से एनडीए को 190 से ज़्यादा सीटें मिल रही हैं तो महागठबंधन 50 से कम सीटों पर सिमटता जा रहा है। जेडीयू को सीटें बीजेपी से ज़्यादा मिलती दिख रही हैं.

विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने से पहले जो लोग सीएम नीतीश कुमार की बढ़ती उम्र पर सवाल उठा रहे थे, नीतीश ने उन लोगों को ही मुश्किल में डाल दिया है. महागठबंधन ने रोज़गार और पलायन के मुद्दे पर जब घेरने का प्रयास किया तो 75 साल की उम्र में नीतीश कुमार बिहार की ज़मीन पर उतरकर ऐसा माहौल बनाया कि तेजस्वी यादव और राहुल गांधी का कोई भी दांव काम नहीं आया. विपक्ष के सारे अस्त्र नीतीश-मोदी की जोड़ी के सामने काम नहीं आए. 

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नीतीश ने बताया 'ना टायर्ड और ना रिटायर्ड'

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महागठबंधन के नेताओं ने नीतीश कुमार की आयुजनित थकान के साथ सत्ता के लिए पलटी मारने की आलोचना करते रहे. वादा यह था कि सत्ता मिली तो 20 महीने में ऐसा बदलाव लाएंगे कि बिहार अद्भुत हो जाएगा. साथ ही नीतीश पर वादे पूरे नहीं करने और ईवीएम (SIR की जगह EVM मानकर सुधार) से वोट चोरी के आरोप भी एनडीए पर लगाए. तेजस्वी ने हर घर को सरकारी नौकरी देने का वादा भी किया तो महिलाओं को भी लुभाने के लिए बड़े ऐलान किए.

तेजस्वी यादव का युवाओं को आकर्षित करने का दांव ज़ोर पकड़ता, उससे पहले नीतीश कुमार बिहार की ज़मीन पर उतर गए. उन्होंने करीब 90 जनसभाएं कीं। सीएम नीतीश ने न केवल हेलीकॉप्टर से रैलियां कीं, बल्कि खराब मौसम और भारी बारिश के बीच सड़क मार्ग के ज़रिए भी 1000 किलोमीटर की यात्रा की.

नीतीश कुमार चुनाव प्रचार के आखिरी दिन तक डटे दिखे। इस तरह उन्होंने बताया कि भले ही वो 75 साल के हो गए हों, लेकिन उनमें ऊर्जा और उत्साह में कमी नहीं आई. न ही टायर्ड हैं और न ही रिटायर्ड हैं. यही वजह है कि बिहार की सड़कों पर नीतीश कुमार को लेकर पोस्टर लगे हैं कि टाइगर अभी ज़िंदा है. वहीं, पीएम मोदी की लोकप्रियता का भी एनडीए को फायदा मिला. 

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नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग रही सफल

नीतीश कुमार ने अपनी हर रैली में लोगों को विश्वास दिलाया है कि अब किसी के साथ नहीं जाएंगे और बीजेपी के साथ ही रहेंगे. 2020 की तरह चिराग पासवान को एनडीए से अलग नहीं रखा बल्कि साथ में बनाए रखने की कवायद सफल रही. जेडीयू ने इस बार बीजेपी के साथ चिराग पासवान की एलजेपी, जीतनराम मांझी की हम और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के साथ गठबंधन बनाए रखा.

बिहार की राजनीति में सामाजिक समीकरण सिर्फ आंकड़े नहीं, बल्कि भरोसा जीतने का भी है. महागठबंधन ने जातीय समीकरण का बिहार में अति-विश्वासपूर्वक इस्तेमाल किया, लेकिन सामाजिक परिवर्तन और नए समीकरणों को समझने में चूक गया. निम्नवर्गीय और पिछड़े तबकों में एक नई राजनीतिक चेतना उभर रही थी, जिसका लाभ एनडीए ने बेहतर ढंग से उठाया

मुख्यमंत्री एनडीए की एकजुटता को मजबूत बताते हुए कहा कि बिहार में फिर से डबल इंजन की सरकार बनना तय है. नीतीश कुमार ने कहा था कि मोदी जी और नीतीश की जोड़ी पर बिहार का भरोसा अटल है, इसी विश्वास को जीत में बदलना है. वहीं, आरजेडी ने अपने सियासी फॉर्मूले को दुरुस्त करने की कवायद की, लेकिन नीतीश की स्ट्रेटेजी के आगे फेल रही. बिहार का 36 फीसदी अति-पिछड़ा वर्ग का बड़ा हिस्सा नीतीश के साथ मजबूती से जुड़ा रहा.

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चिराग पासवान की बाधा को खत्म किया

2020 में चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के अलग चुनाव लड़ने से जेडीयू को 30 सीटों पर नुकसान उठाना पड़ा था. इस बार नीतीश कुमार ने भले ही कम सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन चिराग और कुशवाहा के ज़रिए बिहार की सोशल इंजीनियरिंग को साधने का दांव सफल रहा.

जेडीयू की सीटें पिछली बार से करीब दोगुना मिल रही हैं। जेडीयू को 2020 में 43 सीटें मिली थीं जबकि इस बार उसे 75 से ज़्यादा मिलती दिख रही हैं। नीतीश के साथ होने का लाभ चिराग पासवान की पार्टी को मिला, उन्हें 20 से ज़्यादा सीटें मिल रही हैं.

एनडीए में एक दूसरे को वोट ट्रांसफर हुए

बिहार के नतीजों से साफ है कि इस बार एनडीए के घटक दलों का वोट एक दूसरे को ट्रांसफर हुए. पिछली बार जेडीयू इसीलिए पीछे रह गई थी कि कई सीटों पर बीजेपी का वोट जेडीयू को ट्रांसफर नहीं हो सका था. इस बार बीजेपी के साथ होने से सवर्ण वोटों को सियासी फायदा मिला तो चिराग और मांझी के ज़रिए दलित वोट साधे रखे। इसके अलावा नीतीश कुमार ने खुद के सहारे ग़ैर-यादव ओबीसी और अति-पिछड़े वोटबैंक पर पकड़ मजबूत बनाए रखी.

नीतीश कुमार ने महागठबंधन को सिर्फ यादव और मुस्लिम वोटों तक ही सीमित रखा, उससे बाहर सियासी आधार नहीं बढ़ाने दिया। इसीलिए महागठबंधन का कोई भी दांव काम नहीं आया। बिहार के चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि महागठबंधन की तुलना में एनडीए ज़्यादा मज़बूती से लड़ा और उनका वोट भी सहयोगी दलों के बीच ट्रांसफर हुए हैं.

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नीतीश पर महिलाओं का भरोसा कायम

नीतीश कुमार ने चुनाव के ऐलान से पहले ही एक के बाद एक लोक-लुभावन ऐलान शुरू कर दिया था. 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश का फोकस समग्र विकास, आधारभूत संरचना और कौशल विकास पर रहा। महिलाओं के साथ किसानों के लिए नकदी लाभ दिया। मतदाताओं के रूप में महिलाएं तो 2010 से ही एक वर्ग बन चुकी हैं, लेकिन इस बार नीतीश ने युवाओं के साथ किसानों को भी इसी सांचे में ढालने का भरसक प्रयास किया.

नीतीश कुमार ने कहा कि हम सीधे दस-दस हज़ार रुपए नए रोज़गार शुरू करने के लिए बहनों के खाते में जमा कर रहे हैं. अभी तक डेढ़ करोड़ बहनों के खाते में ये पैसा पहुंच चुका है. आप कल्पना कीजिए अगर बिहार का सबसे भ्रष्ट परिवार और देश का सबसे भ्रष्ट परिवार, जो ज़मानत पर बाहर है, ये दोनों अगर सत्ता में होते तो ये पैसे बहनों के खाते में नहीं, ये कांग्रेस-आरजेडी के नेताओं की तिजोरी में पहुंच जाते.

बिहार चुनाव से पहले ही नीतीश सरकार ने महिला रोज़गार योजना के तहत करीब 1.51 करोड़ महिलाओं के खाते में 10-10 हज़ार रुपए की किस्त डाली. बिहार देश का पहला राज्य है जहां 31 लाख से अधिक जीविका दीदियां लखपति हैं.

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बिहार में महिला वोटों की आबादी लगभग आधी है और '10 हज़ारी' महिलाएं करीब 40 फीसदी हैं. इस तरह नीतीश कुमार के लगातार सत्ता में बने रहने में महिला मतदाताओं का अहम रोल रहा है और उन्होंने अपने कोर वोटबैंक पर पकड़ मज़बूत बनाए रखी, जिसका असर वोटिंग में दिखा और नतीजों में तब्दील होता दिख रहा है.

नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द सिमटी सत्ता

बिहार की सत्ता 2005 से नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. नीतीश कुमार सत्ता के धुरी बने हुए हैं. वो बिहार के किंगमेकर नहीं बल्कि किंग बन रहे हैं। नीतीश कुमार इस बार वापसी किए हैं और दोबारा इस स्थिति में खड़े हैं, जहां उनके बिना किसी की सरकार नहीं बन सकती. 

नीतीश कुमार की सीटों का आंकड़ा जिस तरह 43 सीटों से बढ़कर 75 पार पहुंच रहा है, उससे साफ है कि नीतीश कुमार की सियासी ताक़त बढ़ी है और अब उन्हें सीएम की कुर्सी को हिलाना नामुमकिन है. हालांकि, बीजेपी की सीटें भी काफी बढ़ी हैं और साथ ही चिराग पासवान की भी सीटें बढ़ी हैं. 

नीतीश के आगे प्रशांत किशोर फेल

जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर का पूरा फोकस नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ सियासी माहौल बनाने का था. तीन साल तक उन्होंने बिहार की यात्रा करके हर संभव कोशिश की, लेकिन नीतीश कुमार ने चुनाव से ठीक पहले लोगों के साथ संवाद करने का प्रोग्राम बनाया. इस तरह से उन्होंने अपने ख़िलाफ़ बन रहे सियासी माहौल को तोड़ने का काम किया और ये बताया कि बिहार में जो भी विकास के काम हुए हैं, वो नीतीश सरकार में हुए हैं.

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जन सुराज के सियासी तौर पर एक्टिव होने का नुकसान केवल महागठबंधन के वोट प्रतिशत को पहुंचाया है और इस आधार पर कहा जा सकता है कि इस बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया. बिहार में फिर से एनडीए की सरकार आ रही है और उसके चेहरे नीतीश कुमार बनकर उभरे हैं, क्योंकि अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए चुनाव लड़ रहा है.

महागठबंधन का दांव क्यों हो गया फेल

महागठबंधन चुनावी एजेंडा तय करने में पूरी तरह असफल रहा. रोजगार, महंगाई, शिक्षा और कृषि जैसे बड़े मुद्दे जरूर उठाए गए, लेकिन जो नैरेटिव बनना चाहिए था, वह नहीं बन पाया. तेजस्वी यादव की सभाओं में भी वही पुराने वादों की पुनरावृत्ति होती दिखी, जिससे युवाओं को नई दिशा का भरोसा नहीं मिला.महिला और पहली बार वोट करने वाले युवाओं और गैर-परंपरागत जातीय समूहों में महागठबंधन अपनी पकड़ नहीं बना सका. 

महागठबंधन का एक बड़ा स्तंभ होने के बावजूद कांग्रेस इस चुनाव में लगातार बोझ की तरह साबित हुई. पार्टी में टिकट वितरण को लेकर भारी नाराजगी थी. आरजेडी-कांग्रेस के बीच सीट शेयरिंग को लेकर गहरे मतभेद शुरू से अंत तक बने रहे, नतीजा यह हुआ कि संयुक्त लड़ाई कमजोर, बिखरी और अविश्वसनीय दिखी. कांग्रेस की कमजोर ग्राउंड मशीनरी और प्रचार की अनियमितता महागठबंधन के लिए घाटे का सौदा साबित हुई.  

वहीं, एनडीए ने विकास, कानून-व्यवस्था और स्थिर सरकार के माडल को आक्रामक तरीके से जनता तक पहुंचाया. महागठबंधन पर एनडीए का दांव सियासी तौर पर भारी पड़ा. 

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