जब 1965 की जंग में कब्जा कर लिया था... तो फिर पाकिस्तान को वापस क्यों दिया हाजी पीर पास?

क्या आप जानते हैं कि साल 1965 की जंग में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के कब्जे से हाजी पीर पास को ले लिया था. लेकिन, उसे फिर से पाकिस्तान को दे दिया. तो जानते हैं इस हाजी पीर पास की कहानी....

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एक नष्ट हो चुके पाकिस्तानी शेरमन टैंक पर भारतीय वायु सेना के जवान (File Photo) एक नष्ट हो चुके पाकिस्तानी शेरमन टैंक पर भारतीय वायु सेना के जवान (File Photo)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 31 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 1:41 PM IST

'1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में, हमारी सेना ने पाकिस्तान से हाजी पीर दर्रा वापस ले लिया था, लेकिन बाद में कांग्रेस ने उसे वापस कर दिया...' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऑपरेशन सिंदूर पर लोकसभा में हो रही बहस के दौरान ये बात कही. दरअसल, पीएम मोदी ने उस वक्त विपक्ष को ये जवाब दिया जब कांग्रेस नेशन सिक्योरिटी को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश कर रही थी. पीएम मोदी की ओर से अपने स्टेटमेंट में जिक्र किए जाने के बाद एक बार फिर हाजी पीर पास की चर्चा हो रही है.

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ऐसे में जानते हैं कि आखिर हाजी पीर पास की कहानी क्या है और जब सेना ने 1965 की जंग में यहां कब्जा कर लिया था तो फिर क्यों इसे पाकिस्तान को वापस दिया गया.

1965 में कैसे भारत ने हाजी पीर पास पर कब्जा किया?

सबसे पहले तो आपको बताते हैं कि आखिर हाजी पीर पास है क्या? ये पीर पंजाल रेंज में 2,637 मीटर की ऊंचाई पर है और हमेशा से एक प्रमुख लैंड रूट रहा है. यहां तक कि साल 1947 के मुजाहिदीन आक्रमण के दौरान भी यह घुसपैठ का एक अहम रास्ता था. लेकिन, जब साल 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ी तो 15 अगस्त 1965 को भारतीय सेना ने पाकिस्तानी गोलाबारी और घुसपैठ का मुकाबला करने के लिए सीजफायर लाइन पार की थी. बख्शी नाम के इस ऑपरेशन में मेजर रणजीत सिंह दयाल के नेतृत्व में 1 पैरा के साथ 19वीं इन्फैंट्री डिवीजन ने अटैक किया था.

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इस ऑपरेशन में 28 अगस्त की सुबह 10:30 बजे, मेजर दयाल की टीम ने पाकिस्तानी सैनिकों को पछाड़ दिया और हाजी पीर पास पर कब्जा कर लिया. इस जीत से पुंछ-उरी मार्ग 282 किलोमीटर से घटकर 56 किलोमीटर रह गया और भारत का सैन्य नियंत्रण मजबूत हो गया. इस पास का भारत के कब्जे में होने का मतलब था कि भारत घुसपैठियों की ओर से इस्तेमाल किए जाने वाले प्राकृतिक रास्ते को बंद रख सकता था, लेकिन ये कंट्रोल ज्यादा समय तक नहीं रहा.

इसके साथ ही भारतीय सेना ने 1965 की इस जंग में हाजी पीर पास के साथ हाजी पीर बल्ज को भी अपने कब्जे में कर लिया था. हाजी पीर की लड़ाई के नायक कहे जाने वाले लेफ्टिनेंट जनरल रणजीत सिंह दयाल (सेवानिवृत्त) (तब मेजर) ने 2002 में एक इंटरव्यू में कहा था, ' हाजी पीर पास भारत को एक निश्चित रणनीतिक लाभ देता. इसे वापस करना एक गलती थी. हमारे लोग नक्शे नहीं पढ़ते.'

फिर भारत ने वापस क्यों दिया?

बता दें कि 1965 की जंग में 10 जनवरी, 1966 को सोवियत संघ की मध्यस्थता से ताशकंद समझौता हुआ और उसके बाद युद्ध खत्म हुआ. इसमें भारत और पाकिस्तान दोनों को अपनी पुरानी सीमा तक पीछे हटने के लिए कहा गया. रिपोर्ट्स के अनुसार, ताशकंद समझौते की शर्तों के तहत, भारत ने हाजी पीर पास और 1,920 वर्ग किलोमीटर कब्जा किया हुआ एरिया छोड़ दिया, जबकि पाकिस्तान ने छंब सहित 550 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वापस कर दिया.

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इस समझौते में हाजी पीर पास का जिक्र किए बिना कहा गया था, 'दोनों पक्ष संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे पड़ोसी संबंध बनाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. वे चार्टर के तहत अपने दायित्व की पुनः पुष्टि करते हैं कि वे बल प्रयोग का सहारा नहीं लेंगे और अपने विवादों को शांतिपूर्ण तरीकों से सुलझाएंगे.' इस समझौते का उद्देश्य शांति बहाल करना था, लेकिन इसमें युद्ध-विरोधी संधि या गुरिल्ला युद्ध को लेकर कुछ नहीं था, जिसकी आज तक भारत में आलोचना हो रही है.

क्या भारत ने कोई रणनीति के तहत ऐसा किया?

हाजी पीर को लौटाने का फैसला भारत ने अखनूर पुल के पास, छंब की वजह से लिया था, जो पाकिस्तान के कब्जे में आ गया था और ये एक महत्वपूर्ण आपूर्ति लाइन थी. मेजर जनरल शेरू थपलियाल (रि) ने स्ट्रैटेजिक स्टडी इंडिया पोर्टल में अपने 2015 के लेख में लिखा था, 'जब जनवरी 1966 में सोवियत संघ के हस्तक्षेप के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता शुरू हुई तो भारत के सामने छंब सेक्टर अहम विषय था. उस वक्त पाकिस्तानी की सेना अखनूर से केवल चार किलोमीटर दूर फतवाल रिज तक पहुंच चुकी थीं, इसलिए वे अखनूर पर कब्जा करने के लिए अभियान फिर से शुरू कर सकते थे.'

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छंब सेक्टर, मुन्नवर तवी नदी के पश्चिम में भारत के लिए एक अहम डिफेंसिव आउटपोस्ट भी है. ये जम्मू को पुंछ और कश्मीर घाटी से जोड़ने वाली एकमात्र बारहमासी सड़क की सुरक्षा के लिए भी अहम है. प्रधानमंत्री शास्त्री के दल के सदस्य पत्रकार कुलदीप नैयर ने दावा किया कि सोवियत दबाव और कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र के वीटो समर्थन को रोकने की धमकियों ने प्रधानमंत्री के निर्णय को प्रभावित किया, जिनकी अगले दिन संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई.

लेफ्टिनेंट जनरल दयाल (रि) और दूसरे आलोचकों का तर्क है कि हाजी पीर को बनाए रखने से घुसपैठ कम हो जाती, जो आज भी इस पास से जारी है. लेफ्टिनेंट जनरल डीबी शेकटकर (रि) ने 2015 में रेडिफ इंडिया न्यूज़ को बताया, 'अगर हमने उस चौकी को बरकरार रखा होता, तो हालात अलग हो सकते थे.' इस वापसी को एक रणनीतिक भूल माना गया और विशेषज्ञों और हितधारकों ने इसकी आलोचना की, जिन्होंने कहा कि इससे पाकिस्तानी घुसपैठ को बढ़ावा मिला और कश्मीर में भारत की दीर्घकालिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचा.

(रिपोर्ट- Sushim Mukul )

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