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डिफेंस न्यूज

1962 की जंग ने खाली कराया उत्तराखंड का खूबसूरत गांव, अब वापस लौट रही जिंदगी

ऋचीक मिश्रा
  • नई दिल्ली ,
  • 15 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 3:50 PM IST
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उत्तराखंड के उत्तर में जोहार घाटी में बसा मरटोली गांव कभी हिमालय की ऊंची चोटियों से घिरा एक जीवंत स्थान था. यहां नंदा देवी पर्वत की चोटी सबसे ऊंची दिखाई देती थी. लेकिन आज इस गांव सिर्फ ढेर सारी पुरानी पत्थर की इमारतें बची हैं, जो टूट-फूट चुकी हैं. यह गांव भारत-तिब्बत सीमा पर था. Photo: AP

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यहां के लोग सर्दियों में मैदानी इलाकों में सामान इकट्ठा करते और गर्मियों में तिब्बती व्यापारियों से नमक-ऊन के बदले चीनी, दाल, मसाले और कपड़े बेचते. लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध ने सब बदल दिया. 1960 के दशक की शुरुआत में जोहार घाटी के सबसे बड़े गांवों में से एक मरटोली में करीब 500 लोग रहते थे. Photo: AP

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पूरे घाटी में 12-13 छोटे-बड़े गांव थे, जिनमें कुछ में सिर्फ 10-15 घर होते थे. कुल मिलाकर घाटी में 1,500 से ज्यादा लोग बसते थे. ये लोग खानाबदोश थे. सर्दियों में वे मैदानी इलाकों में जाते, जहां चीनी, दालें, मसाले और कपड़े इकट्ठा करते. गर्मियों में ऊंचे पहाड़ों पर लौट आते. तिब्बत से आने वाले व्यापारियों से नमक-ऊन का सौदा करते. Photo: AP

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यह व्यापार घाटी की जान था. हिमालय की ऊंची चोटियां—नंदा देवी सहित—गांव को प्राकृतिक सुरक्षा देती थीं. जमीन उपजाऊ थी. लोग काला जीरा, स्ट्रॉबेरी और कुटकी (बकवीट) उगाते. जीवन सादा लेकिन खुशहाल था. बच्चे पहाड़ों पर खेलते, मवेशी चराते. लेकिन यह सब 1962 तक ही चला. Photo: AP

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1962 में भारत और चीन के बीच सीमा पर युद्ध छिड़ गया. इसके बाद सीमा को पूरी तरह सील कर दिया गया. तिब्बत से व्यापार रुक गया. ऊंचे गांवों में रहना मुश्किल हो गया. लोग सर्दियों में मैदान लौटते, लेकिन गर्मियों में वापस आने का कोई फायदा न रहा. व्यापार बंद तो आय का स्रोत खत्म. धीरे-धीरे परिवार नीचे के गांवों में बसने लगे. Photo: AP

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मरटोली जैसे गांव खाली हो गए. लोग थल जैसे निचले गांवों में शिफ्ट हो गए. ऊंचाई पर ठंड, बर्फबारी और सीमा की सख्ती ने जीवन कठिन बना दिया. जोहार घाटी के ज्यादातर गांव आज भूतिया लगते हैं. सिर्फ पुरानी पत्थर की दीवारें खड़ी हैं, जिनकी छतें ढह चुकी हैं. Photo: AP

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किशन सिंह उस दौर के गवाह हैं. 1962 में जब वे सिर्फ 14 साल के थे, तो परिवार के साथ थल गांव चले गए. लेकिन आज 77 साल की उम्र में भी वे हर गर्मी में मरटोली लौट आते हैं. उनका पैतृक घर बिना छत का है. वे पड़ोसी के खंडहर घर में सोते हैं. खुद खाना बनाते हैं. जमीन जोतते हैं. Photo: AP

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वे मुस्कुराते हुए कहते हैं कि मुझे पहाड़ों में रहना अच्छा लगता है. यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है. गर्मियों के छह महीने वे कुटकी, स्ट्रॉबेरी और काला जीरा उगाते. शरद ऋतु में खच्चरों की मदद से फसल को मैदानी घर ले जाते और मामूली मुनाफे पर बेचते. किशन सिंह जैसे कुछ लोग ही घाटी को जिंदा रखे हुए हैं. Photo: AP

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अब मरटोली में हर गर्मी में सिर्फ तीन-चार लोग आते हैं. लेकिन आसपास के गांवों—जैसे लास्पा, घंगार और रिलकोट—में थोड़ी हलचल है. वजह है हाल ही में बनी एक कच्ची सड़क. अब वाहन गांवों के कुछ किलोमीटर दूर तक पहुंच जाते हैं. लोग गाड़ियों से आ-जा सकते हैं. पहले पैदल या खच्चरों पर ही सफर होता था. Photo: AP

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मरटोली के पुराने पत्थर के घरों के बीच एक नया मेहमानखाना (गेस्टहाउस) बन गया है. यह ट्रेकर्स के लिए है, जो नंदा देवी बेस कैंप जाते हुए गांव से गुजरते हैं. पर्यटन से थोड़ी कमाई हो रही है. लेकिन गांव अभी भी सुनसान है. सर्दियों में कोई नहीं रहता. लोग निचले इलाकों में नौकरी-धंधे की तलाश में चले गए. परिवार बिखर गए. Photo: AP

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मौसमी किसानी होती है. गर्मियों में खेती, फिर फसल बेचकर नीचे चले जाना. कुछ पर्यटन से जुड़ रहे हैं. लेकिन संख्या कम है—सिर्फ 3-4 प्रति गांव. नई सड़क से पहुंच आसान हुई. पर्यटन बढ़ सकता है. सरकार अगर बिजली, पानी और स्कूल जैसी सुविधाएं दे, तो ज्यादा लोग लौट सकते हैं. Photo: AP

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नंदा देवी का सौंदर्य पर्यटकों को खींचता है. लेकिन सीमा की सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन चुनौतियां हैं. मरटोली जैसे गांव हिमालय की संस्कृति को बचाने का प्रतीक हैं. मरटोली की कहानी सिखाती है कि युद्ध कैसे छोटे गांवों को नष्ट कर देता है. Photo: AP

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