Crime Katha of Bihar: बिहार का इतिहास और संघर्ष से गहरा रिश्ता है. यह वो भूमि है, जहां विकास की राह में अपराध, नक्सलवाद और भ्रष्टाचार की काली छाया पड़ती रही है. आज़ादी के बाद से अब तक कई ईमानदार सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को वहां अपनी जान गंवानी पड़ी क्योंकि उन्होंने ड्यूटी निभाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई.
गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया से लेकर मुजफ्फरपुर के जूनियर इंजीनियर मोहम्मद मुमताज तक, ये कहानियां बिहार के सुशासन की कमजोरियों को उजागर करती हैं. 'बिहार की क्राइम कथा' सीरीज में इस बार पेश है, उन लोगों की अनकही दास्तान, जिन्होंने सच और इंसाफ के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी. आइए, जानते हैं इन सभी अफसरों को बिहार में ईमानदारी की कीमत कैसे चुकानी पड़ी.
संघर्षों की धरती बिहार
बिहार में 1994 से 2025 तक दर्जनों ऐसे मामले सामने आए, जिनमें अफसरों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई. ये घटनाएं बिहार के सुशासन की कमजोरियों को उजागर करती हैं. आज हम इन सच्ची कहानियों को समय के क्रम से जानेंगे.
नक्सलवाद का उदय
सूबे में 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह से नक्सलवाद की नीव पड़ी थी. बिहार में 1970-80 के दशक में यह आग फैलती चली गई. नक्सली गरीबों के लिए लड़ते थे, लेकिन सरकारी अफसरों पर हमले बढ़ते गए. भूमि सुधार और भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे हमले होते थे. बिहार में वो दौर ऐसा था कि गया, जहानाबाद और औरंगाबाद जैसे जिलों में नक्सली सक्रिय हो गए थे. वे पुलिस और अफसरों को निशाना बनाते थे. कई प्रशासनिक और पुलिस अफसर भी उनका शिकार बने. नक्सलियों के हमले और हिंसा इलाके के विकास को रोकती रही. हालात ऐसे बन गए थे कि बिहार में कानून-व्यवस्था की नींव हिल गई थी.
1990 का दशक: नक्सली हमलों का चरम
नक्सली हमलों के मामले में 1990 का दशक ऐसा था कि उस दौर में खूब हमले हुए. 1993 में हैदराबाद में पीपुल्स वार ग्रुप ने डीआईजी के.एस. व्यास की हत्या कर दी थी. बिहार में साल 2000-2010 के बीच सैकड़ों पुलिसकर्मी मारे गए थे. नक्सली स्कूलों को बम से उड़ा देते थे. अफसरों पर सीधे हमले आम हो गए थे. विकास परियोजनाएं ठप होती जा रही थीं. मगर हालात ऐसे थे कि सरकार की कोशिशें भी कमजोर रहीं. अधिकांश हमले भूमि विवादों से जुड़े थे. वो दशक ऐसा था कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में डर का राज कायम हो गया था. अफसरों की सुरक्षा पर बड़ा सवाल उठने लगा था. कोई सरकारी शख्स नक्सलियों के इलाके में महफूज नहीं था.
IAS जी. कृष्णैया की कहानी
जी. कृष्णैया की कहानी बिहार की राजनीतिक हिंसा का सबसे दर्दनाक चेहरा है. 1957 में तेलंगाना के महबूबनगर में एक भूमिहीन दलित परिवार में जन्मे थे जी. कृष्णैया. उनके पिता कुली थे, लिहाजा, खुद भी कृष्णैया कम उम्र में कुलीगिरी करने लगे थे. लेकिन उनका पढ़ाई की तरफ बहुत रुझान था. वो कड़ी मेहनत करते रहे और 1985 बैच के आईएएस अधिकारी बने. उन्होंने बिहार कैडर चुना था ताकि वो गरीबों की मदद कर सकें. उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि बिहार में ही उनकी मौत लिखी थी. उन्हें वेस्ट चंपारण में पहली पोस्टिंग मिली, जहां डकैतों का आतंक हुआ करता था. भूमि सुधार पर शानदार काम किया. 1994 में राज्य सरकार ने उन्हें गोपालगंज का डीएम बनाया. गोपालगंज लालू प्रसाद यादव का गृह जिला था. वहां कृष्णैया ने गरीबों के अधिकारों को लेकर काफी काम किया.
5 दिसंबर 1994 - भीड़ का कहर
उसी शाम जी. कृष्णैया हाजीपुर से एक बैठक में भाग लेकर वापस गोपालगंज लौट रहे थे. वह अपनी लालबत्ती वाली सरकारी कार में सवार थे. उनके साथ कार में सरकारी गनर और ड्राइवर थे. आगे हाइवे पर चल रहे हंगामे से वो अंजान थे. असल में 4 दिसंबर को उस इलाके का कुख्यात गैंगस्टर छोटन शुक्ला मारा गया था. उसका मर्डर हुआ था. इसी वजह से मुजफ्फरपुर में लोगों के बीच भारी नाराजगी थी. सरकार और पुलिस के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन हो रहा था. छोटन शुक्ला की लाश भी सड़क पर रखी थी. उस वक्त हाइवे पर हजारों लोग नारेबाजी कर रहे थे. जैसे ही गोपालगंज के डीएम की कार प्रदर्शनकारियों के करीब पहुंची तो वहां जमा लोग सरकारी कार देखकर भड़क उठे. फिर डीएम की कार पर पथराव हुआ. ड्राइवर और गनर ने डीएम कृष्णैया को बचाने की कोशिश की. लेकिन भीड़ के सामने वो टिक नहीं सके.
पीट-पीटकर DM की हत्या
इस दौरान कृष्णैया चीख-चीखकर भीड़ को बता रहे थे कि वह गोपालगंज के डीएम हैं, मुजफ्फरपुर के नहीं. लेकिन किसी ने उनकी एक नहीं सुनी. उन्हें जबरन कार से बाहर खींच लिया गया. उनके साथ मार-पीट की गई. हिंसक भीड़ ने खाबरा गांव के पास डीएम कृष्णैया को पीट-पीटकर मार डाला. पिटाई के दौरान उन्हें गोली भी मारी गई थी.
हत्याकांड का सदमा
आईएएस जी. कृष्णैया की हत्या ने पूरे देश को सन्न कर दिया था. मौत के वक्त वह सिर्फ 37 साल के थे. ऑटोप्सी में पता चला कि उनके सिर में दो गोलियां मारी गई थीं. जबकि उनका चेहरा पत्थरों से कूटा गया था. उनके ड्राइवर दीपक ने बताया था कि कृष्णैया ने आखिरी सांस तक बॉडीगार्ड और उसे बचाने की कोशिश की थी. इस वारदात के बाद वहां जातीय तनाव बढ़ गया था. बाद में गोपालगंज में उनकी मूर्ति लगाई गई. जिसे ईमानदारी की मिसाल के तौर पर देखा जाता है. अपराधियों को सजा मिलने में कई साल लगे. इसी के बाद राजनीतिक गुटों का गठजोड़ भी सामने आया. यह घटना दलित अफसरों पर खतरे का प्रतीक बन गई थी.
इंसाफ की लड़ाई
गोपालगंज के डीएम की हत्या के मामले में माफिया डॉन आनंद मोहन सिंह, उसकी पत्नी लवली आनंद और मुन्ना शुक्ला जैसे 36 आरोपी थे. साल 2007 में पटना कोर्ट ने आनंद मोहन को मौत की सजा सुनाई थी. साल 2008-2009 में पटना हाईकोर्ट ने उसकी मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला कायम रखा. लेकिन साल 2023 में नीतीश सरकार ने जेल के नियम बदल डाले. और आनंद मोहन 14 साल बाद रिहा हो गया. उसकी रिहाई को लेकर बहुत विवाद हुआ. आईएएस एसोसिएशन ने उसकी रिहाई का विरोध किया. जी कृष्णैया की पत्नी उमा ने पीएम मोदी से भी अपील की. मगर राजनीतिक दबाव ने इंसाफ को प्रभावित कर दिया.
नक्सली हिंसा में तेजी का दौर
दलित आईएएस जी कृष्णैया की मौत के बाद नक्सली हिंसा ने रफ्तार पकड़ ली. साल 1990 के दशक में बिहार के कई जिले नक्सल प्रभावित हो चुके थे. सरकारी निजी कंपनियों के अफसरों पर हमले आम हो गए थे. राज्य में तमाम विकास कार्य रुक गए थे. सरकार ने कई ऑपरेशन चलाए, लेकिन सफलता कम मिली. साल 2000 तक सैकड़ों जवान शहीद हो गए. नक्सली संगठन सीपीआई (माओवादी) ने हमलों और हत्याओं की जिम्मेदारी ली. भूमि सुधार के नाम पर हिंसा का नंगा नाच हुआ. बिहार पुलिस कमजोर पड़ चुकी थी. ये दौर अफसरों के लिए सबसे खतरनाक साबित हुआ और सुशासन की राह में बड़ा रोड़ा बना.
IPS सुरेंद्र बाबू की शहादत
साल 2005 में मुंगेर के पुलिस अधीक्षक (SP) थे आईपीएस अधिकारी के.सी. सुरेंद्र बाबू. वह ऐसे पुलिस अधिकारी थे, जिन्होंने नक्सली इलाकों में साहस से काम करने की हिम्मत दिखाई थी. सुरेंद्र बाबू नक्सली गतिविधियों पर नकेल कस रहे थे. यही वजह थी कि वे नक्सलियों के निशाने पर आ गए थे. 1 जनवरी 2005 का दिन था. वे सरकारी जीप में सवार होकर गश्त पर निकले थे. तभी रास्ते में एक लैंडमाइन ब्लास्ट हुआ. और उनकी जीप तेज धमाके के साथ उड़ गई. इस हमले में एसपी सुरेंद्र बाबू के अलावा पांच अन्य पुलिसकर्मी भी मारे गए थे. इस हमले ने बिहार पुलिस को झकझोर दिया था. इस हमले की जिम्मेदारी सीपीआई (माओवादी) संगठन ने ली थी. ड्यूटी निभाने वाले अफसरों पर खतरा साफ था. वो बिहार में नक्सलवाद का चरम था.
नक्सलवाद के खिलाफ जंग
वक्त बदला. बिहार की सियासत ने करवट ली. नीतीश कुमार सूबे के मुख्यमंत्री बने. साल 2010 के बाद नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया. जिसकी वजह से नक्सली प्रभाव कम हुआ. लेकिन हत्याओं का सिलसिला अब भी जारी था. साल 2000-2010 में सैकड़ों अफसर शहीद हुए. स्कूलों पर बम अटैक जारी रहे. बिहार-झारखंड बॉर्डर पर नक्सलियों की सक्रियता बनी रही. सरकार ने पुनर्वास कार्यक्रम शुरू किए. युवाओं को नक्सल से दूर किया. लेकिन नक्सलवाद की जड़ें गहरी थीं. ये घटनाएं बताती हैं कि विकास के नाम पर हिंसा कैसे अफसरों की जान लेती रही.
भ्रष्टाचार के दुश्मन थे सत्येंद्र दुबे
इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा उदाहरण है. साल 1973 में बिहार के सीवान में जन्मे दुबे ने आईआईटी कानपुर से इंजीनियरिंग की थी. फिर वह इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस के अधिकारी बने. साल 2002 में उन्हें एनएचएआई में डिप्टी प्रोजेक्ट डायरेक्टर बनाया गया. इसके बाद उन्हें कोडरमा, झारखंड में गोल्डन क्वाड्रिलेटरल हाईवे प्रोजेक्ट का काम दिया गया. ठेकेदारों ने सब-कॉन्ट्रैक्टिंग नियम तोड़े और घटिया काम किया. सत्येंद्र दुबे ने तीन इंजीनियर सस्पेंड करवा दिए. पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा और भ्रष्टाचार की पूरी कहानी लिख दी.
साइकिल रिक्शा पर मर्डर
प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र में सत्येंद्र दुबे ने अपनी पहचान गोपनीय रखने की गुजारिश की थी. लेकिन पीएमओ ने वो पत्र संबंधित मंत्रालय को भेज दिया और उनकी पहचान खुल गई. नतीजा ये हुआ कि अगस्त 2003 में उनका ट्रांसफर कर दिया गया. 27 नवंबर 2003 को वह ट्रेन के ज़रिए वाराणसी से लौटे थे. उन्होंने स्टेशन से बाहर आकर साइकिल रिक्शा किया और उस पर सवार होकर जा रहे थे. सुबह 3:30 बजे सर्किट हाउस के पास तीन बदमाशों ने उन पर धावा बोल दिया. विरोध करने पर मंटू कुमार नाम के बदमाश ने उनके सिर में कट्टा मार दिया. जिससे उनकी रिक्शा पर ही मौत हो गई थी. उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 30 साल थी. मौका-ए-वारदात पर उनकी लाश के पास ब्रीफकेस और कुछ दस्तावेज मिले थे. इस वारदात को लूट का मामला बताया गया, लेकिन सच तो यही था कि ये भ्रष्टाचार से जुड़ा मामला था. लिहाजा, 14 दिसंबर 2003 को इस केस की जांच सीबीआई के हवाले कर दी गई.
सत्येंद्र दुबे हत्याकांड का असर
सत्येंद्र दुबे की मौत से देश में आक्रोश फैला. आईआईटी छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किए. मीडिया ने इस मामले की जमकर कवरेज की. संसद में इस हत्याकांड को लेकर लंबी बहस चली. फिर 3 सितंबर 2004 को सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल की. 22 मार्च 2010 को पटना सीबीआई कोर्ट ने मंटू कुमार, उदय कुमार, पिंकू रविदास को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई. उन पर आईपीसी की धारा 302, 394 और आर्म्स एक्ट लगाया गया था. उस वक्त इंजीनियर सत्येंद्र दुबे के भाई धनंजय ने कहा था कि असली अपराधी आजाद हैं. ठेकेदार माफिया ने उनकी हत्या की साजिश रची थी. इसके बाद व्हिसलब्लोअर प्रोटेक्शन पर बहस छिड़ गई. साल 2004 में पीआईबीडीपीआईआर रिजॉल्यूशन लाया गया. साल 2005 में आरटीआई एक्ट लागू हुआ. इसके बाद साल 2014 में व्हिसलब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट भी लागू किया गया.
इंजीनियर योगेंद्र पांडेय की डेथ मिस्ट्री
सत्येंद्र दुबे की हत्या के बाद इंजीनियरों पर खतरा बढ़ गया था. साल 2009 में एक और चौंकानेवाला मामला सामने आया. सीतामढ़ी के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर योगेंद्र पांडेय की संदिग्ध हालत में मौत हो गई. वह रोड कंस्ट्रक्शन विभाग में तैनात थे. ठेकेदार माफिया के भ्रष्टाचार उजागर कर रहे थे. 18 जून 2009 को कलेक्ट्रेट की तीसरी मंजिल की छत से वो अचानक नीचे आ गिरे. मौके पर ही उनकी मौत हो गई. पुलिस ने पहले इसे सुसाइड बताया. लेकिन पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने कुछ और कहानी बयां की. उनकी पीएम रिपोर्ट से हत्या का इशारा कर रही थी. एफएसएल रिपोर्ट ने भी मामले की पुष्टि कर दी. पता चला कि योगेंद्र पांडेय लगातार अवैध ठेकों पर सवाल उठा रहे थे. उनके परिवार ने भी हत्या का शक जताया था. इसी दौरान पता चला कि ठेकेदार किशोर सिंह ने 6 जून को उनके साथ मारपीट भी की थी. इस मामले ने इंजीनियरों में डर भर दिया था.
योगेंद्र पांडेय की मौत पर आंदोलन
एग्जीक्यूटिव इंजीनियर योगेंद्र पांडेय की हत्या ने ठेकेदार माफिया का खौफ जाहिर कर दिया. असल में योगेंद्र लगातार मनरेगा और सड़क प्रोजेक्ट्स में भ्रष्टाचार रोक रहे थे. उनके सहकर्मियों ने भी उनकी मौत को लेकर साजिश का आरोप लगाया. सरकार ने इसके लिए डीएम-एसपी को जिम्मेदार ठहराया. अक्टूबर 2009 तक फाउल प्ले के सबूत नहीं मिले. इस दौरान अभियंताओं ने हड़ताल कर दी. 21 जून 2009 को पटना में एक रैली आयोजित की गई. सीबीआई जांच की मांग उठाई गई. मामले के तूल पकड़ने के बाद इस केस की जांच जून 2009 में सीबीआई को सौंप दी गई.
जूनियर इंजीनियर मुमताज की हत्या
अधिकारियों की हत्या का सिलसिला अभी तक नहीं थमा. इसी साल 2025 में मुजफ्फरपुर के जूनियर इंजीनियर मोहम्मद मुमताज की हत्या ने सनसनी फैला दी. 7 जुलाई 2025 की रात 3 बजे काजी मोहम्मदपुर में मौजूद उनके घर में कुछ बदमाश दाखिल हुए. मुमताज ने उनका विरोध किया. नतीजा ये हुआ कि बदमाशों ने उन्हें चाकू से गोद डाला. उनके जिस्म पर चाकू के 17 वार किए गए. उनका गला रेत दिया गया. अफसोस की बात ये है कि यह सब उनकी पत्नी सबा फिरदौस और बच्चे की आंखों के सामने हुआ. इसके बाद बदमाश उनके घर में रखे नकदी-गहने लेकर भाग निकले. बदमाशों ने वहां लगे सीसीटीवी डीवीआर को नष्ट कर दिया था. इंजीनियर मुमताज वैशाली के रहने वाले थे. उनकी तैनाती भगवानपुर ब्लॉक में थी. उनके पड़ोसियों ने बताया था कि वे बहुत ईमानदार थे. किसी से उनकी कोई दुश्मनी नहीं थी. पुलिस ने इस केस में पहले लूट का मामला दर्ज किया था. बाद में यह मामला हत्या का निकला.
सरकारी अफसरों की इन हत्याओं ने बिहार में सुशासन पर बहस छेड़ी. जी कृष्णैया से लेकर मुमताज तक, अफसरों ने भ्रष्टाचार, नक्सल और अपराध के खिलाफ लड़ाई लड़ी. यही नहीं, इन अफसरों के अलावा बिहार में 20 आरटीआई एक्टिविस्ट मारे गए. सरकार ने नक्सलवाद तो कम कर दिया, लेकिन माफिया अभी तक बिहार में बरकरार है.
परवेज़ सागर