'सुपर 301' क्या बला है? असली दुश्मन को छोड़ हमेशा कारोबारी बदले के लिए भारत को ही क्यों चुनता है अमेरिका

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 11 अगस्त को अमेरिका-चीन टैरिफ सीजफायर को अतिरिक्त 90 दिन के लिए, यानी 10 नवंबर तक बढ़ा दिया. दूसरी ओर, रूसी तेल को लेकर ट्रंप की ओर से भारत पर टैरिफ और जुर्माना लगाए जाने के बाद, नई दिल्ली के सामने 27 अगस्त से अमेरिका को किए जाने वाले अपने निर्यात पर 50% टैरिफ लगाने की संभावना है.

Advertisement
राष्ट्रपति एच. डबल्यू. बुश ने 80 के दशक में की थी सुपर 301 की शुरुआत (Photo: Getty Images/AFP) राष्ट्रपति एच. डबल्यू. बुश ने 80 के दशक में की थी सुपर 301 की शुरुआत (Photo: Getty Images/AFP)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 19 अगस्त 2025,
  • अपडेटेड 2:51 PM IST

'अमेरिका दोहरे मानदंडों का दोषी है और वह हर उस क्षेत्र में बाधाएं खड़ी कर रहा हैं, जहां हम प्रतिस्पर्धी बनते हैं.' यह भारत के पूर्व वाणिज्य मंत्री का बयान है. हालांकि यह डोनाल्ड ट्रंप सरकार की ओर से घोषित टैरिफ के खिलाफ वर्तमान सरकार की टिप्पणी भी लग सकती है, लेकिन यह 35 साल से भी ज़्यादा पुरानी बात है. राजीव गांधी मंत्रिमंडल के मंत्री दिनेश सिंह ने 1989 में अमेरिकी सरकार की ओर से 'सुपर 301' पर यह प्रतिक्रिया दी थी.

Advertisement

पहले जापान था अमेरिका का 'दुश्मन'

अस्सी के दशक के आखिर में अमेरिकी सरकार की कार्रवाई जापान पर टारगेटेड थी, जो उस समय अमेरिका का मुख्य आर्थिक प्रतिद्वंद्वी था, लेकिन बाद में भारत प्राइमरी टारगेट में से एक बन गया. यह एक बार फिर कल की बात है.

ये भी पढ़ें: 'भारत पर टैरिफ लगाओ... रूस को बर्बाद करो', ट्रंप के बाद अब US सीनेटर दे रहे बेतुके तर्क, यूरोप से मांग

अब बात करते हैं 2025 की. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को अपना सबसे बड़ा निशाना बनाकर अपने ट्रेड वॉर की शुरुआत की थी. यह समझ में आता था क्योंकि चीन ने अमेरिका से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का दबदबा छीन लिया. लेकिन अब ऐसा लगता है कि भारत के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की संभावना पर अमेरिका हैरान हो रहा है.

Advertisement

चीन को मोहलत, भारत पर सख्ती

अमेरिका-चीन टैरिफ़ विवाद तो कम हो गया है, लेकिन भारत के साथ व्यापार वार्ता में रुकावट आ गई है. अमेरिका, रूस से चीन की कच्चे तेल की ख़रीद को भी नज़रअंदाज़ कर रहा है, जबकि इसके लिए भारत पर निशाना साध रहा है.

ट्रंप ने 11 अगस्त को अमेरिका-चीन टैरिफ सीजफायर को अतिरिक्त 90 दिन के लिए, यानी 10 नवंबर तक बढ़ा दिया. दूसरी ओर, रूसी तेल को लेकर ट्रंप की ओर से भारत पर टैरिफ और जुर्माना लगाए जाने के बाद, नई दिल्ली के सामने 27 अगस्त से अमेरिका को किए जाने वाले अपने निर्यात पर 50% टैरिफ लगाने की संभावना है.

अमेरिका के डबल स्टैंडर्ड

पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबकि व्यापार समझौते के लिए 25 अगस्त को भारत आने वाला अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल संभवतः इसे टाल कर सकता है. अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने अमेरिका के ताजा दोहरे मानदंडों का बचाव करते हुए कहा कि रूसी तेल को रिफाइन करने के लिए चीन पर सेकेंडरी टैरिफ लगाने से वैश्विक ऊर्जा कीमतें बढ़ सकती हैं, जबकि वॉशिंगटन ने मॉस्को से कच्चे तेल की खरीद के लिए दिल्ली पर अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया है.

ये भी पढ़ें: 'अभी कोई नया सेकेंडरी टैरिफ नहीं, 2-3 हफ्ते बाद सोचेंगे', रूस से तेल खरीदने वाले देशों पर बोले ट्रंप

Advertisement

एशिया विशेषज्ञ और दो अमेरिकी विदेश सचिवों के सलाहकार इवान ए. फेगेनबाम का कहना है, 'अमेरिका किस तरह चीन विरोधी गठबंधन से भारत विरोधी गठबंधन बनाने की ओर बढ़ा, यह किसी दिन अमेरिकी कूटनीतिक इतिहास की सबसे अजीब कहानियों में से एक के रूप में सुनाई जाएगी.'

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) जॉन बोल्टन ने कहा, 'चीन के प्रति ट्रंप की नरमी और भारत पर भारी टैरिफ लगाने से भारत को रूस और चीन से दूर लाने के अमेरिका के दशकों के प्रयास खतरे में पड़ गए हैं.'

हालांकि, मैन टारगेट को भारत में ट्रांसफर करने की अमेरिकी नीति में यह भारी बदलाव 80 के दशक के अंत और 90 के दशक के शुरुआत के सुपर 301 की याद दिलाता है.

सुपर 301 क्या था और मकसद क्या था?

अस्सी के दशक में, जापान, जो उस समय दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी, व्यापार के मामले में अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी था. दोनों देशों के बीच सहयोग था, विशेष रूप से टेक्नोलॉजी सेक्टर में, लेकिन व्यापार के मामले में मतभेद था, विशेष रूप से जापान के पास अमेरिका की तुलना में ज्यादा सरप्लस होने के कारण.

'आज अमेरिका का जापानीकरण' और 'जापान हमारे पैसे से अमेरिका को खरीदता है' जैसी सुर्खियां बताती हैं कि तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला एशियाई दिग्गज अमेरिका के लिए वैसा ही था जैसा आज चीन है.

Advertisement

बुश ने की प्रतिबंध लगाने की शुरुआत

1981 में रोनाल्ड रीगन के व्हाइट हाउस में आने के बाद, अमेरिका ने जापान पर अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने और व्यापार असंतुलन को कम करने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया. लेकिन 1988 में जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश के राष्ट्रपति बनने के बाद दंडात्मक कार्रवाई शुरू हो गई.

ये भी पढ़ें: टैरिफ को लेकर Plan-B पर काम करने लगा भारत, ट्रंप की धमकी को अब मिलेगा जवाब!

1988 के सर्वव्यापक व्यापार और प्रतिस्पर्धात्मकता अधिनियम के साथ, अमेरिका ने 1974 के अमेरिकी व्यापार अधिनियम की धारा 301 में बदलाव किया. इसका मकसद 'अनुचित व्यापार प्रथाओं' वाले देशों की पहचान करना था, जो अमेरिकी निर्यात में बाधा के रूप में काम करते थे, और उन पर व्यापार प्रतिबंध लगाना था.

सेक्शन 301 से ही सुपर 301 नाम का जन्म हुआ, और इसका प्राइमरी टारगेट जापान था.

साल 2019 की सीएनएन रिपोर्ट के मुताबिक, 1989 में एक इंटरव्यू में ट्रंप ने शिकायत की थी कि जापान ने 'व्यवस्थित रूप से अमेरिका का खून चूसा है.'

भारत कैसे बना सुपर 301 का टारगेट

मई 1989 में, संयुक्त राज्य व्यापार प्रतिनिधि (USTR) ने अपनी पहली सुपर 301 लिस्ट जारी की और जापान, ब्राजील और भारत को सबसे अधिक 'अनुचित व्यापार प्रथाओं' वाले आठ देशों में शामिल किया. रिपोर्टों के मुताबिक, भारत जिसका व्यापार सरप्लस 690 मिलियन डॉलर था, को जापान के साथ जोड़ दिया गया, जिसका सरप्लस अरबों डॉलर था.

Advertisement

दिल्ली में सरकार बदलने के कारण टैरिफ का खतरा एक साल से ज्यादा समय तक बना रहा. यह बोफोर्स के बाद का दौर था और राजीव गांधी की जगह वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार आई. जनता दल के अध्यक्ष के रूप में वीपी सिंह ने पहले कहा था, 'हमें अमेरिका को यह साफ कर देना चाहिए कि हमें अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के खिलाफ जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.'

राजीव गांधी की तरह वीपी सिंह ने भी अमेरिकी कदम के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया. मई 1989 की इंडिया टुडे मैगजीन की रिपोर्ट के अनुसार, ऐसी आशंकाएं थीं कि अमेरिकी उपायों से निर्यात प्रभावित हो सकता है, टेक्नोलॉजी तक भारतीय पहुंच सीमित हो सकती है और यहां तक कि ट्रेड वॉर भी छिड़ सकता है.

अमेरिकी धमकियों का क्या नतीजा हुआ?

अमेरिका की प्रमुख मांगों में अमेरिकी बीमा कंपनियों, फ़िल्मों और होम वीडियो के लिए भारतीय बाज़ार में आसान पहुंच शामिल थी. इसके अलावा, वह चाहता था कि विदेशी कंपनियों को भारत में अपने उद्यमों में 50% से ज़्यादा इक्विटी की इजाजत दी जाए, और पेटेंट व कॉपीराइट क़ानूनों को और सख़्त किया जाए.

अमेरिका भारतीय निर्यातकों के लिए एक बड़ा बाज़ार था, और किसी भी दंडात्मक कार्रवाई के नतीजे को लेकर आशंकाएं थीं. यह याद रखना होगा कि उस समय भारत भी आर्थिक रूप से अस्थिर था.

Advertisement

मई 1989 की रिपोर्ट में कहा गया कि इस 'हंगामे' के बावजूद, अमेरिकी कानून ने जवाबी कार्रवाई में देरी की, क्योंकि किसी भी कार्रवाई से पहले यूएसटीआर द्वारा 'जांच' की जानी जरूरी है, ताकि भारत की व्यापारिक प्रथाओं के कारण अमेरिकी कंपनियों को हुए नुकसान का आकलन किया जा सके.

वापस लौटा वो 35 साल पुराना दौर

अप्रैल 1990 में, अमेरिका ने ब्राज़ील और जापान, जो इस वार्ता में शामिल थे, लेकिन भारत नहीं, दोनों को सुपर 301 लिस्ट से हटा दिया. भारत को दो महीने में कार्रवाई की धमकी दी गई. हालांकि, वह कार्रवाई कभी नहीं हुई और भारत ने 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल में अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया. उदारीकरण ने कुछ अमेरिकी चिंताओं का समाधान किया.

हालांकि भारत 35 साल पहले जवाबी कार्रवाई से बच गया था, लेकिन ट्रंप के शासन में तलवार लटकी हुई है, जिन्होंने अपना शुरुआती राजनीतिक जीवन टैरिफ को हथियार बनाने पर आधारित बनाया था. ट्रंप ने अपना ट्रेड वॉर चीन पर नज़र रखकर शुरू किया था, लेकिन अब भारत उनके निशाने पर है. सुपर 301 मामला अमेरिकी धारणाओं में अचानक बदलाव का एक ऐतिहासिक उदाहरण है. हालांकि तब जापान था और अब चीन, लेकिन दोनों ही बार भारत किसी न किसी तरह निशाने पर आ ही गया.

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement