लड्डू गोपाल से शादी के लड्डू तक... तिरुपति प्रसादम् विवाद के बीच जानिए क्यों खास हैं लड्डू

तिरुपति तिरुमला देवस्थानम के प्रमुख प्रसाद लड्डू में मिलावट की खबर ने भक्तों की आस्था को ठेस पहुंचाई है. भगवान वेंकटेश के भोग के रूप में प्रसिद्ध यह लड्डू श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक माना जाता है. लड्डू गोपाल की लोककथाएं और इतिहास इसे विशेष महत्व देते हैं.

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भारतीय खाद्य, स्वाद और प्रसाद परंपरा में लड्डुओं का खास स्थान है भारतीय खाद्य, स्वाद और प्रसाद परंपरा में लड्डुओं का खास स्थान है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 13 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 8:28 PM IST

बीते कुछ समय से तिरुमला तिरुपति देवस्थानम् या यूं कहें कि भगवान वेंकटेश को चढ़ने वाला प्रमुख प्रसाद लड्डू विवादों में है. वजह है कि GI टैग वाले इस लड्डू में बड़े पैमाने पर मिलावट और इस खबर ने निश्चित ही भगवान वेंकटेश के भक्तों की आस्था में ठेस पहुंचाने का काम किया है. तिरुपति के मंदिर में विराजित भगवान वेंकटेश अपनी पत्नियों पद्मा और भार्गवी के साथ भक्तों को दर्शन देते हैं और उनका यह रूप श्रीकृष्ण का ही एक रूप है. लड्डू उनका प्रमुख भोग है और भक्तों को यह प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है.

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सिर्फ भगवान का भोग नहीं तिरुपति लड्डू
इस तरह तिरुपति के लड्डू सिर्फ भगवान का भोग नहीं, बल्कि आस्था, श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक हैं. इसे भगवान वेंकटेश की कृपा भी माना जाता है और श्रद्धालु इसे समृद्धि के तौर पर भी देखते हैं. सिर्फ तिरुपति के ही लड्डू नहीं, बल्कि मिठाइयों के बीच लड्डुओं का जलवा अपने आप में अलग ही है. इन्हें लेकर कई तरह की मान्यताएं, पूजा-पाठ में इनका प्रयोग और देवताओं से सीधे तौर पर इनका जुड़ाव ही लड्डुओं को विशेष बना देता है. 

अब तिरुपति की ही बात करें तो यह भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण का ही एक स्वरूप है. दक्षिण में जहां श्रीकृष्ण तीनों लोकों के स्वामी (तिरुपति) के रूप में पूजे जाते हैं और युवावस्था की झांकी में देखे जाते हैं तो वहीं उत्तर भारत खासतौर पर गंगा-यमुना के दोआब में उनके बालस्वरूप की मान्यता अधिक है. श्रीकृ्ष्ण के साथ नाम जुड़ जाने से लड्डू का महत्व और भी बढ़ जाता है और वह खुद लड्डू के ही नाम से लड्डू गोपाल कहलाते हैं. 

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लड्डू गोपाल कैसे बनें?
लड्डू गोपाल घुटवन चलते हैं, एक से तीन वर्ष की उम्र के हैं. उनकी कमर में करधनी है, लंगोट पहने हैं, गले में माला है, माथे पर हरिचंदन और वैष्णव तिलक और घुंघराले बाल हैं. इस स्वरूप में उन्होंने नंद बाबा और यशोदा के भवन में बाल क्रीड़ायें की हैं. 

लोककथा में दर्ज है कि एक दिन बाल कृ्ष्ण घुटवन चलते हुए नंद बाबा के पूजा स्थल पर पहुंच गए. वहां उन्होंने थाल में सजे भोग के लड्डू देखे और उठाने लगे. तब नंद बाबा ने उन्हें ऐसा करते देख मना कर दिया और बोले कि लाला- ये लड्डू भगवान विष्णु के भोग के लिए हैं. पूजा हो जाने दे फिर प्रसाद में दूंगा. इसके बाद नंद बाबा आंख बंद करके भगवान विष्णु का आह्वान करने लगे और लड्डू समर्पित करने लगे. उन्होंने देखा कि बाल कृष्ण के दोनों हाथों में लड्डू है और वे बड़े आनंद से लड्डू खा रहे हैं. अपने बाल-गोपाल को ऐसे देखकर नंदबाबा आनंद विभोर होकर देखते ही रह गए. थोड़ी देर में यशोदा मां भी उन्हें देखने आईं और ये छवि देखकर वह भी निहाल हो गईं. इस तरह नंद बाबा के नटखट गोपाल लड्डू गोपाल बन गए.

जब कुंभनदास को देख जड़वत हो गए बाल गोपाल
लड्डू गोपाल की एक लोककथा पु्ष्टिमार्गी कृ्ष्ण भक्ति शाखा में भी मिलती है. भक्त कवि कुंभनदास के पुत्र रघुनंदन बचपन से ही कृष्णभक्त हो गए थे. एक दिन कुंभनदास को कहीं जाना था, लिहाजा उन्होंने बेटे से लाला को भोग लगाने को कह दिया. अब बालक रघुनंदन लड्डू की थाल लेकर आए भोग लगाया, लेकिन गोपाल लाला लड्डू खाए नहीं. रघुनंदन ये देख रोने लगे कि गोपाल जी भोग क्यों नहीं लगा रहे हैं? बालक की सच्ची निष्ठा देखकर श्रीकृष्ण ने घुटवन चलते बालक का रूप लिया और प्रकट हो गए और लड्डू खाने लगे. 

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अब तो ये सिलसिला बन गया. रघुनंदन ने कुंभनदास से शिकायत की और कहा कि बाबा- तुम्हारे दिए सारे लड्डू तो गोपाल जी अकेले खा जाते हैं, मुझे अलग से लड्डू दिया करो. रघुनंदन बार-बार ये बात कहने लगा तो कुंभनदास बड़े सोच में पड़ गए. अगले दिन उन्होंने रघुनंदन को भोग लगाने के लिए लड्डू दिए और खुद छिपकर सारा हाल देखने लगे. अब रघुनंदन जोर-जोर से पुकारे आओ गोपाल जी, प्यारे गोपाल जी, लड्डू का भोग लगाओ गोपाल जी... कुंभनदास की आंखें ये देखकर फैल गईं कि मूर्ति में से एक तीन वर्ष का बालक प्रकट हुआ और एक हाथ में लड्डू उठाए, उसे मुंह में रखा और दूसरे हाथ से भी झटपट लड्डू उठा लिए. 

लज्जा के मारे और भाव विभोर कुंभनदास दीवार की ओट से बाहर निकल आए और सीधे बाल गोपाल के सामने दंडवत लेट गए. कुंभनदास के सामने आ जाते ही ठाकुर गोपाल जी उसी लड्डू लिए हाथ वाले रूप में जड़वत हो गए. मूर्तिमान हो गए. कुंभनदास ने रो-रोकर उन्हें पुकारा, उनकी निश्छल भक्ति देखकर गोपाल जी ने इसी रूप में उन्हें दर्शन दिए और फिर कुंभनदास जी इसी लड्डू स्वरूप गोपाल जी की पूजा करने लगे. तो ऐसे पुष्टिमार्गी कवियों की काव्य और पूजा परंपरा में लड्डू गोपाल प्रसिद्ध हो गए. 

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लड्डू नहीं नवनीत प्रिय गोपाल
हालांकि सूरदास ने अपने पदों में लड्डू गोपाल का नहीं बल्कि माखन प्रिय बाल गोपाल का ही वर्णन किया है. उनके कृष्ण नवनीत प्रिय हैं. नवनीत का अर्थ है मक्खन. जब मटकी में माखन इकट्ठा करके रखा जाता है तो वह गोल-गोल गेंद के आकार में हो जाता है. तर्क ये है कि बाल कृष्ण के आकार में गोल-गोल दिखने वाला खाद्य लड्डू नहीं है, बल्कि माखन ही है. 

सभ्यता के विकास के साथ बढ़ता गया लड्डू का स्वाद 
खैर... लड्डू का इतिहास सभ्यताओं की शुरुआत से ही है. ऋग्वेद में इक्षु रस का जिक्र है. यानी वैदिक सभ्यता में लोगों को गन्ने के रस की जानकारी थी. वैदिक काल में अपाला नाम की विदुषी ऋषि पुत्री इंद्र की पूजा में उन्हें गन्ने का रस और सत्तू का नैवेद्य अर्पित करती हैं. उसने सत्तू में रस मिलाया और उसके पिंड का भोग लगाया. इसी तरह जौ के आटे को घी में तलकर शहद में भिगोकर अपूप नाम का पकवान बनाया जाता था. हालांकि यह लड्डू की तरह गोल नहीं था, लेकिन आज के मालपूए का पूर्वज जरूर है. 

गुड़ बनाने का काम ईसा से 1000-1500 वर्ष पूर्व शुरू हुआ. संभव है कि गुड़ खुद में एक तरह का लड्डू रहा होगा. टेढ़े-मेढ़े गोल गेंद के आकार का. एक दावा जो इतिहासकार अक्सर करते हैं कि आयुर्वेद में प्राचीन सर्जन सुश्रुत का उल्लेख आता है. उन्होंने दवा के रूप में लड्डू का निर्माण किया था. इसमें सारी ऐसी जरूरी चीजें थीं जो स्वास्थ्य के लाभदायक थीं. 

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रामायण और महाभारत में तो लड्डू का जिक्र विशुद्ध मिठाई के तौर पर होता है. पुराणों में लड्डू का स्वरूप मोदक से प्रेरित है, जो गणपति को प्रिय है. इसलिए उनके हाथ में मोदक के साथ-साथ लड्डू भी दिखाई देता है. मोदक शब्द ही आनंद के अर्थ में लिया गया है. आमोद-प्रमोद का ही अर्थ मोदक ही है. 

लड्डू इकलौती ऐसी मिठाई है जिसकी इलाकाई पहचान है. पंजाब के पिन्नी के लड्डू, यूपी के बेसन के लड्डू, जोधपुर के जोधपुरी मोटी बूंदी के लड्डू, तीज पर बनने वाले सत्तू के लड्डू, बिहार के ढोंढा लड्डू जो चावल के आटे से बनते हैं. मकर संक्रांति पर बनने वाले लाई और तिल के लड्डू. मूंगफली और गुड़ के लड्डू. जयपुर-उदयपुर के चूरमा लड्डू. इंदौर के दाल के लड्डू और फिर अलग-अलग मंदिरों में मिलने वाले भोग-प्रसाद के लड्डू. इतनी वैरायटी किसी और मिठाई में नहीं है, जितनी लड्डू में हैं.

लड्डू सिर्फ स्वाद नहीं है, साहित्य भी है.‘दोनों हाथों में लड्डू होना, ‘मन में लड्डू फूटना, 'शादी के लड्डू' खाना और शादी के बाद लड्डू बंटवाना आम है. मुंह मीठा कराने के लिए पहले लड्डू ही खोजे जाते हैं और कुछ भी अच्छा हो जाए तो लड्डू ही मंगवाए जाते हैं. 

लड्डू शुभता का प्रतीक हैं. वह विघ्नहर्ता गणपति को प्रिय हैं तो उनका पहले आना अपने आप में सौभाग्य का आना है. मिठास जब आपके जीभ के तंतुओं के एक्टिव करती है तो यह दिलो-दिमाग में हैपी हार्मोन्स को बढ़ाते हैं और खुशमिजाजी को बढ़ावा देते हैं. लड्डू के कण-कण मिठास की चिपचिपाहट से चिपके रहते हैं और एकता का बोध कराते हैं. ये एक पवित्र बंधन की गारंटी बनते हैं और  ईश्वर को सान्निध्य में पहुंचकर पवित्र हो जाते हैं. 

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अब सोचिए ऐसे पवित्र लड्डुओं के साथ ऐसी अशुद्ध हरकत... कितनी शर्मनाक बात है.
 

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