चरमपंथ की आग में जल रहे बांग्लादेश में जहां एक तरफ लोकतंत्र की हत्या हो चुकी है तो इसी के साथ यहां संस्कृति और परंपराओं के भी क्षत-विक्षत शव पड़े हैं. बीते सालभर से बांग्लादेश में जिस तरह की अस्थिरता लगातार बनी हुई है और सामान्य जनजीवन बहाली की कोई आशा अभी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है, ऐसे में कभी भारत का हिस्सा रहे और बंगाली संस्कृति के अभिन्न अंग रहे इस देश में सनातन के बचने की उम्मीद भी कम ही नजर आती है.
कभी बंगाल का ही हिस्सा रहे बांग्लादेश में सनातन की शाक्त परंपरा का ही असर रहा था. इसलिए यहां देवी सती के गिरे अंग के कारण कई सिद्ध शक्तिपीठों की स्थापना हुई थी और लंबे समय तक इनकी मान्यता रही है. इन शक्तिपीठों में जयंती, सुगंधा और अपर्णा शक्तिपीठ प्रमुख हैं. इसके अलावा भी चार ऐसे शक्तिपीठ हैं जो तंत्र परंपरा और सिद्धियों के लिए तप क्षेत्र माने जाते हैं. सप्तशती के अलावा तंत्र चूड़ामणि जैसे ग्रंथों में भी इनका उल्लेख है.
भारत के विभाजन के साथ पाकिस्तान का हिस्सा बने और फिर बांग्लादेश के रूप में स्वतंत्र देश बनने के बाद भी भले ये पड़ोसी देश अपनी मुस्लिम पहचान के साथ जाना जाता रहा है, बावजूद यहां शाक्त परंपरा के चिह्न अभी तक बाकी ही थे, जिनको संरक्षण मिलता रहा था. हालांकि कुछ छिटपुट विरोध भी होते आए थे, जिससे इनके अस्तित्व पर संकट मंडराया फिर भी हालात उतने बदतर नहीं हुए जितने की पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के रहे.
...लेकिन अब जब बांग्लादेश में खुले आम बंगाली संस्कृति, अस्मिता, संगीत, कला और परंपरा को नष्ट किए जाने की होड़ जारी है तो ऐसे में ये सिद्ध शक्तिपीठ भी खतरे में आ गए हैं. दुर्गासप्तशती में देवी के जो 108 नाम बताए गए हैं, यह शक्ति पीठ उन्हीं नामों पर स्थापित हैं. यहां सुगंधा शक्तिपीठ, जसोरेश्वरी शक्तिपीठ, भवानी शक्तिपीठ, जयंती शक्तिपीठ, महालक्ष्मी शक्तिपीठ, अपर्णा शक्तिपीठ और स्त्रावनी शक्तिपीठ हैं. किस शक्तिपीठ की क्या है मान्यता, इस पर डालते हैं एक नजर-
जेसोरेश्वरी शक्तिपीठ - सतखिरा
जेसोरेश्वरी शक्तिपीठ जिसे शुद्ध रूप में ज्येष्ठोरेश्वरी या ज्येष्ठा काली मंदिर कहा जाता है. यह बांग्लादेश में प्राचीन हिंदू मंदिर है, जो देवी काली को समर्पित है. यह मंदिर सतखिरा के श्यामनगर उपजिले के एक गांव ईश्वरपुर में है और 51 शक्तिपीठों में से एक है, मान्यता है कि यहां देवी सती की हथेलियां गिरी थीं. जेसोरेस्वरी" नाम का अर्थ है "जेशोर की देवी". प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2021 में इस मंदिर का दौरा किया था और मां की मूर्ति के लिए एक सोने का मुकुट भेंट किया था, लेकिन साल 2024 के बांग्लादेश में हिंदू-विरोधी हिंसा के दौरान यह चोरी हो गया.
एक किंवदंती है कि यहां किसी समय में एक महाराजा प्रतापादित्य का शासन था. एक दिन उनके सेनापति ने किस सैन्य अभियान के दौरान झाड़ियों से निकलती हुई एक चमकदार रोशनी देखी. उन्होंने रोशनी का सोर्स खोजा तो घनी झाड़ियों के बीच मानव हथेली के आकार में तराशे गए पत्थर का टुकड़ा मिला. बाद में, इसी स्थान पर राजा प्रतापादित्य ने काली पूजा शुरू की और पीठ की स्थापना की. आधुनिक मंदिर 400 साल से ज्यादा पुराना बताया जाता है, जबकि साल 2021 में इसका सौंदर्यीकरण किया गया था.
सुगंधा शक्तिपीठ - शिकारपुर
सुगंधा शक्तिपीठ बांग्लादेश के शिकारपुर में स्थित एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है, जो देवी सुनंदा या उग्रतारा को समर्पित है. यह शक्तिपीठ सुनंदा नदी के तट पर स्थित है. मान्यता है कि यहां सती की नाक गिरी थी. यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है और हिंदू भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है. यहां के रक्षक भैरव त्रियंबक हैं. 1971 से पहले और बाद में यहां मूर्तियों की लूट हुई, फिर पुनः स्थापना की गई. पद्मा ब्रिज बनने से यहां पहुंच आसान हुई थी, लेकिन अतिक्रमण यहां की मुख्य समस्या रही है, जिससे स्थानीय संघर्ष हमेशा खबरों में बना रहा है.
चट्टल मां भवानी शक्तिपीठ - सीताकुंडा
चट्टल मां भवानी शक्तिपीठ बांग्लादेश के चटगांव (चिट्टागोंग) जिले में स्थित है. शक्तिपीठ सीताकुंड स्टेशन के पास चंद्रनाथ पर्वत के शिखर पर है. पौराणिक कथा के अनुसार देवी सती की ठुड्डी का हिस्सा गिरा था. यहां माता सती को 'भवानी' के रूप में पूजा जाता है और उनके भैरव 'चंद्रशेखर' हैं. चट्टल शक्तिपीठ को भवानी शक्तिपीठ के नाम से भी संबोधित करते हैं. भैरव का मंदिर चंद्रनाथ हिल की चोटी पर स्थित है.
जयंती शक्तिपीठ - कनाईघाट
जयंती शक्तिपीठ (कनाईघाट, सिलहट) में देवी सती की बाईं जांघ गिरी थी. इसका दूसरा स्थान भारत के मेघालय राज्य में स्थित नर्तियांग दुर्गा मंदिर है. बांग्लादेश के सिलहट जिले के कनाईघाट के बौरबाग गांव में यह मंदिर स्थित है. पवित्र जयंती शक्ति पीठ शांतिपूर्ण बाउरबाग गांव में है, जो बांग्लादेश के सिलहट के विभागीय मुख्यालय से लगभग 55 किलोमीटर दूर कनाईघाट उपजिला में बसा है, इसे मूल रूप से श्रीहट्टा के नाम से जाना जाता था. लगभग 5.90 एकड़ भूमि में फैला, बौरभाग का मंदिर श्रद्धा का केंद्र है.
महालक्ष्मी शक्तिपीठ - सिलहट
महालक्ष्मी शक्तिपीठ बांग्लादेश के सिलहट जिले में, गोटाटिकर के पास, दक्षिण सुरमा के जोइनपुर गांव में स्थित है. इसे श्रीशैल महालक्ष्मी शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है, जहां देवी महालक्ष्मी को धन और समृद्धि की देवी के रूप में पूजा जाता है. देवी महालक्ष्मी की पूजा के साथ भैरव संभरानंद की भी पूजा होती है. माना जाता है कि यहां देवी की गर्दन का हिस्सा गिरा था.इसका उल्लेख 'शक्ति पीठ स्तोत्र' में मिलता है. पाटरा समुदाय आज भी इस स्थल को बचाने में जुटा है.
श्रीशैले च मम ग्रीवा महालक्ष्मीस्तु देवता।
भैरवः सम्बरानन्दो देशो देशो व्यवस्थितः ॥ 33॥
स्रवानी शक्तिपीठ - कुमीरग्राम
बांग्लादेश में कुमारी कुंड शक्तिपीठ चटगांव जिले के कुमीरा रेलवे स्टेशन के पास स्थित है. मानते हैं कि यहां देवी सती की रीढ़ की हड्डी गिरी थी. यह स्थान गुप्त शक्तिपीठों में से एक माना जाता है. यहां देवी को सर्वाणी, श्रावणी या सत्या देवी के रूप में पूजा जाता है और यहां के भैरव "निमिषवैभव" माने जाते हैं. श्री सर्वाणी करुणाकुमारी मंदिर का संबंध तंद्र चूड़ामणि से भी है. संस्कृत में 'कुमारी' का अर्थ अविवाहित कन्या होता है, जो समय के साथ 'कुमीरा' में परिवर्तित हो गया है.
अपर्णा शक्ति पीठ - करतोया - शेरपुर
अपर्णा शक्ति पीठ बांग्लादेश के शेरपुर जिले के भवानीपुर गांव में करतोया नदी के तट पर स्थित है. यहां देवी अपर्णा (जिन्हें देवी भवानी भी कहते हैं) की पूजा की जाती है और इनके भैरव वामन हैं. शेरपुर शहर से लगभग 28 किलोमीटर दूर, यह मंदिर अपने प्राकृतिक परिवेश के लिए भी जाना जाता है. देवी का एक नाम त्रिस्रोता भी है, क्योंकि यह स्थल करतोया, यमुनेश्वरी और बूढ़ी तीस्ता तीन नदियों के संगम पर स्थित है. कुछ मान्यताओं के अनुसार, इसी स्थान पर देवी सती का बायां पैर या पैर का आभूषण गिरा था.
कुछ मान्यताएं हैं कि, यहां देवी सती का 'टखना' गिरा था. यह मंदिर पाल काल का माना जाता है और इसे कूचबिहार के राजा प्रण नारायण ने पुनर्निर्मित कराया था. यहां महालया और अक्षय तृतीया जैसे पर्व बड़े पैमाने पर मनाए जाते हैं. महालया पर यहां पितरों के तर्पण के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं. 2022 की महालया के दौरान नाव दुर्घटना में यहां 71 लोगों की मृत्यु हो गई थी.
इतिहास पर नजर डालें तो 1661 ईस्वी में राजा प्रण नारायण ने मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया. इस युद्ध में हार के बाद उन्होंने इसी शक्तिपीठ में देवी से प्रार्थना की और गुरिल्ला युद्ध के जरिए तीन वर्षों में अपना राज्य वापस पाया. विजय के बाद उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. उनके उत्तराधिकारियों और अहोम शासकों ने मिलकर 1671 में सराइघाट के युद्ध में लाचिद बोरफुकन की विजय में भी योगदान दिया था और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
अपर्णा शक्तिपीठ का इतिहास 'रानी भवानी' से भी जुड़ा है. 1716 ईस्वी में जन्मी रानी भवानी ने पति की मृत्यु के बाद नाटोर ज़मींदारी की बागडोर संभाली. यह ज़मींदारी बंगाल के बड़े हिस्से में फैली थी. नवाब सिराजुद्दौला के बढ़ते प्रभाव के बीच रानी भवानी ने अपने राज्य की रक्षा की. उन्होंने नवाब की सेना को पराजित किया और अपनी बेटी तारा को नवाब के हरम में जाने से बचाया.
1770 के भीषण बंगाल अकाल के समय रानी भवानी ने अपने खर्च पर वैद्य नियुक्त किए और गरीबों की सहायता की. उन्होंने सन्यासी विद्रोह के दौरान हिंदू सनातनी संन्यासियों को आर्थिक सहयोग दिया, जिसे अंग्रेजों ने “विद्रोह” कहा, लेकिन वह वास्तव में विदेशी शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष था. रानी भवानी ने विधवा पुनर्विवाह, शिक्षा और सामाजिक सुधारों का भी समर्थन किया. हावड़ा से वाराणसी तक सड़क निर्माण, वाराणसी में दुर्गा कुंड मंदिर और तारापीठ जैसे स्थलों में उनका योगदान आज भी याद किया जाता है.
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