एक तरफ बिहार में लोकतंत्र के महापर्व का दौर चल रहा है तो दूसरी तरफ भारत के इस पूर्वी राज्य की धरती पर खुद इतने त्योहारों से समृद्ध है कि कहने ही क्या..., कार्तिक का महीना जब अपने आखिरी दौर में होता है. एक-एक दिन खिसकने के साथ सर्दियां अपने कदम बढ़ा रही होती हैं, अक्टूबर का मध्य या नवंबर के शुरुआती दिन होते हैं. इस दौरान गंगा की लहरें भी मंद-मंद होकर बह रही होती हैं, ठीक इसी समय बिहार के अंग प्रदेश, मिथिला की धरती पर पंख फड़फड़ाते हुए उतरते हैं प्रवासी पक्षी.
प्रवासी पक्षियों के स्वागत का उत्सव है सामा चिकेवा
रंग-बिरंगे, कोई सीधी-नुकीली चोंच वाले, कुछ आकार में बड़े तो कुछ बहुत छोटे-छोटे मनोहारी पक्षी. पहाड़ की ऊंचाई से उतर कर नीचे तराई में आने वाले पक्षियों की चहचहाट से घर-मुंडेर, खेत-खलिहान, ताल-पोखरा और नदी तट गुलजार होने लगते हैं. गनीमत है कि बिहार के सुदूर गांवों में अभी भी ये सब देखने को मिल जाते हैं और ये बात किताबी नहीं लगती है. इन्हीं पक्षियों के स्वागत का उत्सव है 'सामा चिकेवा'
छठ त्योहार के बीच होने लगती हैं तैयारियां
मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में दिवाली के बाद से ही छठ के ही पैरलल एक और उत्सव की तैयारी शुरू हो जाती है. भाई-बहन के प्रेम और उनके बीच विश्वास के धागे से कसे गए ताने-बाने में बुने गए इस त्योहार की तैयारी लड़कियां करती हैं. भाई इसमें उनकी सहायता करते हैं. कार्तिक की षष्ठी से पूर्णिमा तक हर रात को सामा-चिकेवा खेला जाता है, जिसमें लोकगीत की शक्ल में बुनी हुई कहानियां होती हैं. इन कहानियों के जो पात्र होते हैं, उनकी तरह अभिनय करके सामा-चिकेवा मनाया जाता है.
क्या है सामा-चिकेवा उत्सव
इसमें कुछ-कुछ नाटक-नौटंकी जैसी गतिविधियां होती हैं, जो बिहार के मिथिला क्षेत्र की नाट्य परंपरा की धरोहर हैं. लड़कियां मिट्टी से सामा (जो कि एक राजकुमारी थी) और चिकेवा (सामा का भाई) की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाती हैं. इन मूर्तियों को जिस आधार पर रखा जाता है, उस पर अलग-अलग रंग-बिरंगी चिड़िया भी सजाई जाती हैं. कहते हैं कि सामा एक राजकुमारी थी, जो एक शाप के कारण चिड़िया बन गई थी, और पक्षियों के बीच रहकर जंगल-जंगल फुदकने को मजबूर थी.
कौन हैं सामा-चिकेवा?
उसके संगी-साथी के तौर पर रंग-बिरंगी चिड़िया बनाई जाती हैं. चिकेवा को बहन के लिए लड़ने वाला, उसकी सहायता करने वाला और उसके लिए त्याग करने वाले भाई के तौर पर देखा जाता है, जिसने अपनी बहन सामा को शाप से मुक्ति दिलाने के लिए बहुत संघर्ष किया था. चिकेवा ही सच्चाई को सामने लाकर सामा को निर्दोष साबित करता है, सामा अपने भाई पर खूब प्यार लुटाती है. सामा-चिकेवा इसीलिए भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक का त्योहार बन जाता है.
इस पर्व को लेकर दरभंगा के ऋषि चौधरी काफी विस्तार से बताते हैं. वह कहते हैं कि सामा-चिकेवा न सिर्फ उनकी संस्कृति है, बल्कि क्षेत्र विशेष की पहचान भी है. वह बचपन से सामा-चिकेवा के उत्सव को देखते आ रहे हैं. ऋषि कहते हैं कि, यह पर्व भाई-बहन के बीच अटूट रिश्ते की रक्षा और मजबूती का प्रतीक है और 7 से 10 दिनों तक चलता है.
इसका आरंभ छठ पूजा के खरना (या पारण) के अगले दिन यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से हो जाता है और फिर इसका समापन कार्तिक पूर्णिमा की रात को होता है. इस पर्व का सबसे आकर्षक हिस्सा इसकी सांस्कृतिक रस्में हैं, जो समूह में निभाई जाती हैं. बहनें अपने हाथों से मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाती हैं.
मुख्य पात्र
सामा: भगवान कृष्ण की पुत्री (बहन).
चकेवा: सामा का पति (भाई का प्रतीक).
चुगला: वह दुष्ट व्यक्ति जिसने सामा पर झूठा आरोप लगाया था.
वृंदावन: वह स्थान जहां ये घटनाएं हुईं.
सामा-चिकेवा की कहानी और इसके पात्रों से संबंधित खेल ही सामा-चिकेवा का उत्सव है. यह बिहार और खासकर मिथिलांचल की लोक-संस्कृति है. जिसमें पक्षियों के प्रति खासतौर पर प्रेम झलकता है. जिस समय सामा-चिकेवा उत्सव मनाया जाता है, इस दौरान कई प्रवासी पक्षी मिथिलांचल के जंगलों और जल स्त्रोतों के किनारे डेरा डालने लगते हैं. सामा-चिकेवा की मूर्ति निर्माण में इन पक्षियों को भी बनाया जाता है. असल में सामा, जो श्रीकृष्ण की बेटी थी वह एक शाप के कारण चिड़िया बन गई थी, इसलिए हर चिड़िया को सामा का ही रूप माना जाता है.
विकास पोरवाल