एक फिल्म है 'गोलमाल'. साल 1979 की अमोल पालेकर और उत्पल दत्त वाली. अमोल पालेकर के दोहरे किरदार का नाम 'राम प्रसाद' और 'हरि प्रसाद' (डबल रोल) होता है. यूं तो इस फिल्म के सारे दृश्य ही अद्भुत और लोटपोट करने वाले हैं. लेकिन एक मजेदार सीन उस वक्त आता है, जब मोहन बागान और ईस्ट बंगाल दो टीमों के बीच फुटबॉल मैच होता है. राम प्रसाद किसी तरह छुट्टी लेकर यह मैच देखने जाता है और वहां उत्पल दत्त यानी भवानी शंकर भी दिखते हैं. दोनों एक-दूसरे को देख लेते हैं. अगले दिन इनका आमना-सामना होता है. ये संवाद भी दिलचस्प है. खैर, आगे की कहानी तो आप फिल्म में देख सकते हैं. लेकिन इस पूरे वाकये के जिक्र का मकसद यह था कि इस फिल्म को देखकर ही मैंने पहली बार फुटबॉल को थोड़ा ढंग से जाना. उन दोनों टीमों की प्रतिद्वंद्विता को समझा. फिर तो इस खेल में रुचि इतनी बढ़ती गई कि 'ला लीगा' मुकाबला हो या 'इंग्लिश प्रीमियर लीग', शायद ही कुछ छूटा. इसका चरम उस वक्त पहुंचा, जब 2014 के फीफा वर्ल्डकप में जर्मनी ने फेवरिट टीम ब्राजील को हराया. जर्मनी ने पहले हाफ के महज 18 मिनट में पांच गोल दागकर ब्राजील को 7-1 से हराकर सेमीफाइनल में प्रवेश किया.
इन तमाम कहानियों का जिक्र इसलिए क्योंकि GOAT (Greatest of All Time) और अर्जेंटीना के मशहूर फुटबॉलर लायनल मेसी इसी सप्ताह भारत आ रहे हैं. मेसी के 14 दिसंबर को मुंबई में होने वाले बहुप्रतीक्षित आगमन ने पूरे देश में उत्साह की लहर दौड़ा दी है. अनगिनत भारतीय प्रशंसकों के लिए यह यात्रा एक साझा सपने के साकार होने जैसी लगती है. ऐसा पल जिसके बारे में कइयों ने नहीं सच होगा कि वो आएगा. वर्षों से भारतीय फुटबॉल प्रशंसक, क्रिकेट की श्रेष्ठता की छाया में ही जीते आ रहे हैं. फिर भी उनका समर्पण, रातभर जागकर मैच देखना, हार-जीत की भावनाएं, जश्न और जुनूनी चर्चाएं- कभी कम नहीं हुईं. अब, जब मेसी भारत की धरती पर कदम रखने जा रहे हैं, तो बरसों का जुनून आखिरकार पहचाना, सराहा और सम्मानित सा लगता है.
मेसी इस पीढ़ी के सिर्फ सर्वश्रेष्ठ फुटबॉलर नहीं हैं, बल्कि उससे कहीं अधिक हैं. लगभग दो दशकों से भारतीय प्रशंसक उन्हें स्क्रीन पर देखते आए हैं. चाहे वह अल क्लासिको की भिड़ंत हों, वर्ल्ड कप की रोमांचक कहानियां, कोपा की निराशाएं हों या भावनाओं से भरे ऊंचे पड़ाव. अब जबकि वे भारत पहुंचेंगे, तो वह लम्हा एक पुराने सपने के सच होने जैसा होगा. मेसी ऐसे शख्स हैं जिनका रोसारियो (अर्जेंटीना में मेसी का जन्मस्थल) से निकलकर वर्ल्ड चैम्पियन बनने तक का सफर उन असंख्य भारतीय युवाओं की आकांक्षाओं को दिखाता है, जो सीमित अवसरों के बावजूद बड़ा बनने का सपना देखते हैं. लगभग दो दशकों से भारतीय प्रशंसकों के लिए टीवी पर मेसी को खेलते देखना एक रिवाज़ जैसा रहा है. मेसी की मौजूदगी महज एक प्रतीक भर नहीं बल्कि जिस देश में क्रिकेट के जुनून के आगे सबकुछ फीका लगता है, वहां उन फुटबॉल प्रेमियों के लिए गर्व का पल होगा, जिन्होंने अपने खेल को बड़े स्तर पर पहचान दिलाने का सपना लंबे समय से संजो रखा है.
खुद मेसी भी भारत में अपने प्रशंसकों को संदेश देना चाहते हैं, जो उनकी हर हार-जीत में उनके साथ रहे. मेसी ने लिखा है, 'भारत से मिले प्यार के लिए धन्यवाद! GOAT टूर कुछ ही हफ्तों में शुरू हो रहा है... मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि हैदराबाद को कोलकाता, मुंबई और दिल्ली के साथ मेरी इस सूची में शामिल कर लिया गया है. जल्द मिलेंगे, इंडिया!'
कुल मिलाकर कहें तो भारत में क्रिकेट के लिए 1983 वर्ल्डकप मोमेंट के बाद, फुटबॉल में मेसी का भारत आना 1911 का वो लम्हा साबित हो सकता है जब मोहन बागान की नंगे पैर उतरी टीम ने ईस्ट यॉर्कशायर रेजिमेंट को हराकर IFA शील्ड जीती थी. वह एक ऐतिहासिक ‘अंडरडॉग’ कहानी थी. यह उस भावना का भी प्रतीक थी कि भारत किसी भी मैदान पर ब्रिटिशों से बराबरी से मुकाबला कर सकता है. यह मैच एक किंवदंती बन गया और, फ़ुटबॉल सांस्कृतिक पहचान में बदल गया. शायद फिर वह दौर आए. भारत में एक मेसी न सही... भारत में ही कई बाइचुंग भूटिया और सुनील छेत्री जैसे खिलाड़ी उभरें और अपने जुनून से देश को उस मुकाम तक ले जा सकें, जहां आज यूरोप और लैटिन अमेरिकी देश इस खेल में हैं.