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इंडिगो उड़ेगा या उड़ान के रूल? वैसे इंड‍िया में 'नियम' पहले लैंड कर जाते हैं!

फ्लाइट-ड्यूटी लिमिट लागू कर दीजिए- एविएशन डगमगा जाएगा. बिल्डिंग बाई-लॉ लागू कर दीजिए तो रियल एस्टेट का साम्राज्य धूल खाने लगेगा. संपत्ति का सच-सच ब्योरा मांग लीजिए, कैश में हुआ हिसाब मांग लीजिए, फिर देखिए रियल एस्टेट के बुलबुले से कैसे हवा निकलती है. वित्तीय पारदर्शिता लागू करने की सोचिए और देख‍िए कैसे आधे अरबपति तो लंदन की इकोनॉमी क्लास पकड़ने को तैयार मिलेंगे.

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एक तरफ वैश्विक नियम लागू करने की सरकार की कोशिश, दूसरी तरफ इंडिगो की अड़चनें (Image: India Today/Arun Prakash Uniyal)
एक तरफ वैश्विक नियम लागू करने की सरकार की कोशिश, दूसरी तरफ इंडिगो की अड़चनें (Image: India Today/Arun Prakash Uniyal)

भारत के आसमान में हांफती हवाई सेवा पिछले हफ्ते दवाई से मरते-मरते बच गई. नागरिक उड्डयन महानिदेशालय को अचानक ज़िम्मेदारी का दौरा पड़ा और उन्होंने ऐलान कर दिया कि पायलट इंसान हैं, रात-दिन नहीं उड़ा करते, उनको साप्ताहिक आराम भी मिलना चाहिए. 48 घंटे में हंगामा हो गया. उड़ानें रद्द, यात्री फंसे, मंत्री पसीने-पसीने, इंडिगो के चेहरे पर हवाईयां. एअर इंडिया पहले से स्वयं से जूझ रहा है. 

गुरुवार को फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन (FDTL) नियम को “पुनर्विचार” के नाम पर दफना दिया गया. दिल्ली में “पुनर्विचार” का मतलब होता है, अभी के लिए गड्ढा खोदकर दफनाओ, बाद में देखा जाएगा. याद रखिए, FDTL यात्रियों की जान बचाने के लिए है. दुनिया में यह नॉर्म है. भारत में नॉर्म ही अब-नॉर्मल है.

ये बग नहीं है जनाब, ये तो महान भारतीय ऑपरेटिंग सिस्टम का परमानेंट फीचर है. जड़ें भ्रष्टाचार और जुगाड़ में गहरी धंसी हुईं. भ्रष्टाचार की नींव पर ही ये इमारत खड़ी है. 

हमारा पूरा गणतंत्र इसी पवित्र सिद्धांत पर टिका है कि नियम तोड़ने के लिए बने हैं, पालन करने के लिए नहीं. वे सेमिनार में दिखाने, संसद में चिल्लाने और फिर लांघ कर आगे जाने के लिए होते हैं. एक भी नियम सख्ती से लागू कर दो,  ये निज़ाम और सारा ताम-झाम भरभराकर ज़मीन पर आ जाएगा.

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पायलट की ड्यूटी सीमा लागू करो तो हवाई यात्रा ठप. बिल्डिंग बायलॉज़ लागू करो तो रियल एस्टेट का साम्राज्य रातोंरात धूल. मकान मालिकों की फेहरिस्त जांच में आ जाए और काले नकद लेन-देन का हिसाब मांगो तो बूमिंग रियल्टी सेक्टर ज़मीन पर लोट लेगी. फाइनेंशियल ट्रांसपेरेंसी लाओ तो आधे अरबपति लंदन भागेंगे अगर कैरिबियन देशों ने मना कर दिया तो. 

ये बीमारी सिर्फ पुलिस और आरटीओ तक सीमित नहीं, जिन्हें हम रोज़ कोसते हैं. ये तो हर क्षेत्र का गोंद है. भ्रष्टाचार ही सबको जोड़े रखता है. फेविकोल तो बस बदनाम है.

हमने नियमों और निर्देशों और कुप्रशासन की कला को परफेक्ट कर लिया है. हज़ारों कानून, दर्जनों प्राधिकरण, सौ-सौ फॉर्म. सबका एकमात्र उद्देश्य है कि सामान्य मानविकी थक-हारकर “सुविधा शुल्क” दे दे. आम आदमी कानून नहीं तोड़ता, कानून उसे तोड़ता है. धीरे-धीरे, प्यार से, सालों तक. तब उसे समझ आ जाता है कि सही हथेली में थोड़ा कैश डालना दिमाग बचाने से सस्ता है.

न्याय में देरी स्वयं एक अन्याय है. अगर ये कहावत सच है तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा न्याय-मुक्त क्षेत्र है. हमारे फास्ट-ट्रैक कोर्ट भी इतने फास्ट नहीं कि समय पर न्याय दे सकें. अभी कल ही माननीय मुख्य न्यायाधीश साहब को पता चला कि एक तेज़ाब पीड़िता को न्याय की कतार में लगने में दस साल लग गए. अब तो बैकलॉग ऐसा है कि न्याय का हनन नियम है, न्याय अपवाद.

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सबको पता है. सरकार को भी पता है. मोदी जी ने पुराने कानून हटाने का वादा किया और कुछ हटाए भी. नई दंड संहिता भी लाए: भारतीय न्याय संहिता. लेकिन संगीत वही कर्कश कोलाहल है, बस बोल अब संस्कृत में हैं. सही शुभंकर है अब भी वही हाथी है: भव्य, बुद्धिमान, पांच सौ का नोट देखकर ही हिलता है.

क्रिकेट बोर्ड से बिजली बोर्ड तक, नियम पुस्तिका वज़नदार है और नियम तोड़ना उससे भी ज्यादा. यहाँ घूस समस्या नहीं, समाधान है. न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन एक नारा है पर ढीला है.

भ्रष्टाचार के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति भी एक खूबसूरत नारा है. याद करने से पहले ही नीति खुद टॉलरेंस डेवलप कर लेती है: सटीक कैलिब्रेशन के साथ, ताकि पूरा सिस्टम स्मूथ चलता रहे. १९४७ से नस में रिश्वत का ड्रिप लगा है, अचानक हटा देंगे  तो मर जाएंगे. भ्रष्टाचार निरोधक शाखा में भी वही प्रजाति भरी पड़ी है जो भ्रष्टाचार शाखा में है. कौन किसे पकड़ेगा.

भारतीय चरित्र को दोष देना भी ग़लत है. व्यक्तिगत तौर पर हम स्वच्छ हैं. घर चकाचक, रोज़ नहाते हैं, पड़ोसी को पान थूकने पर डांटते हैं. लेकिन जैसे ही सार्वजनिक चौबारें में कदम रखा, वही शख्स गुटखे का खाली पैकेट सड़क पर फेंकेगा, सिपाही को घूस देगा, ग्राहक को लूटेगा. क्योंकि देना-लेना तो चलता है. सिस्टम वैसा ही है. थोड़ा एडजस्ट कीजिए कहते कहते हम सीट से उतर गए. थोड़ी-बहुत जुगाड़ से कौन मरा है? बड़े मगरमच्छ बस बड़े एडजस्टमेंट करते हैं. वही सिद्धांत, मोटा लिफाफा.

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अंग्रेज़ हमें बहुत कुछ देकर गए. रेलवे, क्रिकेट और खा-खिलाकर नियम-तोड़ने की यह शानदार मशीनरी. अंग्रेज़ चले गए, सिस्टम रह गया. सतहत्तर साल बाद हमने इसे देसी बना लिया, मसाला डाल दिया और अपना बना लिया.

तो एयरलाइंस से उम्मीद मत करो कि वो सुरक्षा नियम मानेंगी जब बाकी कोई नहीं मानता. नियामक अंत में वही निगलेगा जो एयरलाइन थमाएगी, सिंगल माल्ट से गटक जाएगा और प्रेस रिलीज़ जारी कर देगा. पैसेंजर सेफ्टी और मुनाफ़ाखोरी में बैलेंस.
आसमान फिर रजगज होगा. पायलट थके हुए होंगे पर निर्धारित घंटों से ज्यादा उड़कर जेब उनकी भी गरम रहेगी. यात्री देर से पहुंचेंगे पर ज़िंदा पंहुचे तो ईश्वर का धन्यवाद करेंगे. और वो शानदार, चरमराती, घूस के तेल से चिकनाई मशीन वैसे ही दौड़ेगी. धीरे धीरे रे मना. बिलकुल डिज़ाइन के मुताबिक.
जय हो!

(कमलेश सिंह, एक स्तंभकार और व्यंग्यकार हैं और लोकप्रिय 'तीन ताल' पॉडकास्ट के 'ताऊ' हैं.)

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(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)
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