क्या अमेरिका के बाद कनाडा से भी गायब हो जाएगा वामपंथ, क्यों सारे बड़े देश अब लिबरल के टैग से बच रहे?

इंटरनेशनल मंच पर बेतुकी बयानबाजियों के चलते जस्टिन ट्रूडो अपने ही देश में ऐसे घिरे कि इस्तीफा देना पड़ गया. कयास हैं कि विपक्षी पार्टी के नेता पियरे पोइलिवरे ट्रूडो की जगह ले सकते हैं. पोइलिवरे दक्षिणपंथी सोच के लिए जाने जाते हैं. अमेरिका में भी डोनाल्ड ट्रंप के साथ वामपंथ किनारे हो गया. यूरोप में भी कमोबेश यही हाल है. तो क्या लेफ्ट की राजनीति से विदाई हो जाएगी?

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कनाडा में दक्षिणपंथी सरकार आने की चर्चा है. (Photo- Pexels) कनाडा में दक्षिणपंथी सरकार आने की चर्चा है. (Photo- Pexels)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 08 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 12:27 PM IST

सोमवार को जस्टिन ट्रूडो ने कनाडाई पीएम के पद से इस्तीफा देने का एलान किया. खुद को फाइटर बताते हुए ट्रूडो ने लंबी भूमिका रची लेकिन किसी के लिए भी इस्तीफा चौंकाने वाला नहीं था. अमेरिका से लेकर भारत तक से रिश्ते बिगाड़ चुके ट्रूडो अपने देश में भी साख गंवा चुके थे. माना जा रहा है कि अब कनाडा में दक्षिणपंथ आएगा. कंजर्वेटिव नेता पियरे पोइलिवरे खुद को कट्टर दक्षिणपंथी मानते हैं और अक्सर ही वोक लीडरशिप के खिलाफ बोलते रहे. इसका एक मतलब ये भी है कनाडा से लेकर अमेरिका समेत तमाम देशों में फिलहाल दक्षिणपंथ की हवा तेज है. क्या है इसकी वजह?

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क्या है दक्षिण और वामपंथ? 

आजकल ये दोनों ही शब्द खूब कहे जा रहे हैं. इनकी शुरुआत फ्रांस से हुई. 18वीं सदी के आखिर में वहां के 16वें किंग लुई को लेकर नेशनल असेंबली के सदस्य भिड़ गए. एक हिस्सा राजशाही के पक्ष में था, दूसरा उसके खिलाफ. जो लोग राजसत्ता के विरोध में थे, वे लेफ्ट में बैठ गए, जबकि सपोर्टर राइट में बैठ गए. विचारधारा को लेकर बैठने की जगह जो बंटी कि फिर तो चलन ही आ गया. यहीं से लेफ्ट विंग और राइट विंग का कंसेप्ट दुनिया में चलने लगा.

काफी महीन है दोनों का फर्क 

जो भी लोग कथित तौर पर उदार सोच वाले होते हैं, माइनोरिटी से लेकर नए विचारों और LGBTQ का सपोर्ट करते हैं, साथ ही अक्सर सत्ता का विरोध करते हैं, वे खुद को वामपंथी यानी लेफ्ट विंग का बोल देते हैं. इसके उलट, दक्षिणपंथी अक्सर रुढ़िवादी माने जाते हैं. वे देशप्रेम और परंपराओं की बात करते हैं. धर्म और धार्मिक आवाजाही को लेकर भी उनके मत जरा कट्टर होते हैं. यूरोप के संदर्भ में देखें तो वे वाइट सुप्रीमेसी के पक्ष में, और चरमपंथी मुस्लिमों से दूरी बरतने की बात करते हैं.

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इन देशों में दक्षिण सोच आगे

यूरोप की बात करें तो फिलहाल वहां इटली, फिनलैंड, स्लोवाकिया, हंगरी, क्रोएशिया और चेक रिपब्लिक में दक्षिणपंथ की सरकार है. स्वीडन और नीदरलैंड में लिबरल सरकारें लगभग बैसाखी पर हैं. यहां तक कि यूरोपियन पार्लियामेंट में भी राइट विंग का दबदबा दिख रहा है. अमेरिका में तो खुले तौर पर ट्रंप लिबरल्स से दूरी बताते हैं. 

कब कमजोर पड़ने लगा था राइट विंग

दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी समेत दक्षिणपंथी सोच को तगड़ी पटखनी मिली थी, जिसके बाद ये विचारधारा पीछे छूटने लगी. शीत युद्ध के खत्म होते-होते यानी नब्बे के दशक में सोवियत संघ टूटकर कई टुकड़े हो चुका है. अब अमेरिका दुनिया का लीडर था और उसकी छाया तले लिबरल्स फलने-फूलने लगे. यहां तक कि रूस से टूटे देश भी लिबरल हो गए. 

बीच-बीच में एक और विचारधारा भी जोर मारती है, जिसे रेडिकल सेंट्रिज्म कहते हैं. ये लोग दावा करते हैं कि वे न तो पूरी तरह राइट हैं, न लेफ्ट. वे खुद को ज्यादा संतुलित बताते हैं. लेकिन इस सोच को मानने वालों की स्थिति दो पाटों के बीच फंसे हुओं से ज्यादा नहीं. इसका कोई लीडर भी नहीं है, ग्लोबल स्तर पर दिखाई दे सके. 

कुल मिलाकर सारी दुनिया का वामपंथीकरण हो चुका था

लगता था कि अब कभी दक्षिण की वापसी नहीं होगी. लेकिन इसी दौर में एक राजनैतिक लेखक फ्रांसिस फुकुयामा ने कुछ और ही दावा कर दिया. उन्होंने कहा कि जल्द ही दूसरी सोच वापस लौटेगी. ये कब होगा, इसकी कोई मियाद तय नहीं थी लेकिन खदबदाहट जल्द ही दिखने लगी. यूरोप में ही असंतुष्टों के दल बनने लगे. बस, एक बात अलग थी. अब भी कोई खुद का सीधा दक्षिणपंथी नहीं कहता था. कट्टर सोच पर मोम की हल्की परत चढ़ी हुई थी. 

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साल 2010 तक ऊपर की परत पूरी तरह उतर गई. अब अमेरिका, इजरायल,  ब्राजील और पोलैंड से लेकर भारत में भी फार-राइट दल मजबूत हो चुके थे और जीतने भी लगे थे. साल 2017 में प्यू रिसर्च सेंटर का एक सर्वे हुआ जिसके मुताबिक, 38 बड़े देशों में 78 फीसदी आबादी ने वामपंथ पर नाक-भौंह सिकोड़ते हुए नई विचारधारा को मौका देने की बात की. 

क्यों होने लगा लेफ्ट से मोहभंग

नब्बे के दशक से  लगभग दो दशक पूरा होते-होते कई चीजों ने ट्रिगर का काम किया. इस दौरान दुनिया में कई बड़े आतंकी हादसे हो चुके थे. साथ ही आतंकवादी तेजी से फैल रहे थे. वे भी कट्टरपंथी थे, जिन्हें लिबरल्स और बढ़ावा दे रहे थे. यहां तक कि इस्लामिक स्टेट के दौरान तो पश्चिमी देशों से ही सबसे ज्यादा युवा आतंकी बनने के लिए जाने लगे. तब जाकर अब तक खुद को रिएक्शनरी कह रहे दल सीधे बोलने लगे. वे मानने लगे कि लोहे का काट लोहा ही है. यानी टैररिज्म को कमजोर करना है तो नरम रवैए से कुछ नहीं होगा. 

सीरिया और अफगानिस्तान में मचे कत्लेआम ने आग को और हवा दी. अकेले इन दो देशों की वजह से इतने शरणार्थी दुनिया में फैले, जितने दूसरे विश्व युद्ध के समय विस्थापति हुए थे. ज्यादातर यूरोप पहुंच गए, जहां तक वामपंथी सरकारें थीं. बस, फिर क्या था. नौकरी और सड़कें बंटने के साथ गुस्सा भड़क उठा. 

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लगभग सारे यूरोप में शरणार्थियों के खिलाफ आंदोलन चल पड़े, जिनके लीडर थे दक्षिणपंथी दल. अब वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच सीधी लड़ाई है, जिसमें जाहिर तौर पर वामपंथ कई कदम पीछे लग रहा है. सुपर पावर अमेरिका में रिपबल्किन्स की जीत के साथ फार-राइट को एकदम से एनर्जी-बूस्ट मिल गया. याद दिला दें कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद भी इसी देश के चलते तस्वीर बदली थी. 

आम लोग क्यों हैं नाराज 

यूरोप में फिलहाल सबसे ज्यादा गुस्सा सरकार की शरणार्थियों पर उदारता को लेकर है. लोगों का मानना है कि सरकार अपनी इमेज के लिए मुस्लिम देशों के रिफ्यूजियों को आने दे रही है. इससे उनपर टैक्स का भी बोझ बढ़ा. साथ ही हिंसा की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. फ्रांस में बीते साल हिंसा और जबर्दस्त आगजनी हुई, जिसके पीछे शरणार्थियों का हाथ माना गया. जर्मनी और स्कैंडिनेविया में भी यही हाल है.

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