Israel Palestine conflict: कैसे बनता है एक देश? दुनिया के मानचित्र पर लकीरें कैसे खीचीं जाती हैं? कैसे सालों-साल तक एक राष्ट्र का अंकुरण दिल-दिमाग में होता है फिर उसे जमीन पर उतारकर नैरेटिव और प्रोपगैंडा के खाद-पानी से सींचा जाता है. तब जन्मता है एक शिशु देश. इजरायल के बनने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. इस इजरायल के बनने में एक बेहद ही अहम और कालजयी दस्तावेज है A-4 साइज के मात्र एक पन्ने पर लिखी गई एक चिट्ठी.
106 साल पहले लिखी गई इस चिट्ठी के 67 शब्द ऐसे हैं जो आधुनिक इजरायल राष्ट्र की स्थापना का आधार बन गए. चिट्ठी के मसौदे को अंतिम रूप देने से पहले 1917 में दुनिया के बेहतरीन राजनीतिज्ञों ने इन 67 शब्दों में से हर एक के अर्थ और उसमें छिपे संदेश पर कई कई बार विचार किया फिर आखिरी ड्राफ्ट लेकर आए. ये चिट्ठी लिखी गई थी ब्रिटिश संसद के कुछ टॉप कूटनीतिज्ञों द्वारा.
इस पत्र को दुनिया अपने-अपने नजरिये से देखती है. दिल्ली स्थित इजरायल का दूतावास इस पत्र के 67 शब्दों को यहूदी राष्ट्र की स्थापना की दिशा में वैश्विक ऐलान मानता है. इजरायल का दूतावास अपने वेबसाइट पर लिखता है, "ये घोषणा इस तथ्य को स्वीकार करती है कि यहूदी लोग इजराइल की भूमि के मूल निवासी हैं और सैकड़ों सालों से उनकी वहां निरंतर उपस्थिति रही है."
वहीं अरबी राष्ट्रवाद ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा जारी इस पत्र को अपने साथ छलावा और धोखा मानता है. अरब का तर्क है कि इस पत्र के जरिए अंग्रेजों ने फिलीस्तीन की उस पर जमीन पर एक यहूदी राष्ट्र बनाने का वादा किया जहां की 90 फीसदी आबादी मुस्लिम और स्थानीय ईसाइयों की थी.
अरबों का कहना है कि 1948 में जब फिलीस्तीन की जमीन पर इजरायल वजूद में आया तो ये स्थानीय फिलीस्तिनियों के लिए नक्बा (NAKBA) मोमेंट लेकर आया. अरबी में नक्बा का मतलब 'महाविपत्ति' या 'तबाही' होता है. दरअसल इजरायल बनने के साथ ही फिलीस्तीन में भीषण टकराव हुआ और यहां से पूरे अरब में 5 लाख फिलीस्तिनियों का पलायन हुआ. इसे नक्बा के नाम से जाना जाता है.
ओटोमन साम्राज्य के पतन के साथ मुखर हुआ फिलीस्तीन का सवाल
ये 100 साल से ज्यादा पहले की बात है जब तत्कालीन फिलीस्तीन ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था. ऑटोमन साम्राज्य यानी कि आधुनिक तुर्की. तब तुर्की के शासक को खलीफा कहा जाता था और वो इस्लामिक दुनिया का सर्वमान्य नेता था. संयुक्त राष्ट्र (UN) की वेबसाइट में फिलीस्तीन समस्या का विस्तार से जिक्र है. इसके अनुसार एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दे के रूप में फिलिस्तीन समस्या की उत्पत्ति प्रथम विश्व युद्ध के अंत में होने वाली घटनाओं में निहित है. दरअसल पहले विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य का पतन हो गया. मित्र राष्ट्रों के हाथों तुर्की को हार मिली. इसने फिलिस्तीन में एक राजनीतिक शून्य पैदा कर दिया.
इस स्थिति ने यहूदी और राष्ट्रवाद दोनों के दावों को मजबूत किया. इजरायली फिलीस्तीन की जमीन को अपनी मातृभूमि मानते थे और सदियों से इस स्थान पर यहूदी स्टेट की स्थापना के लिए पूरी दुनिया में सक्रिय थे. लेकिन आधुनिक यहूदी राष्ट्रवाद का उदय 19वीं सदी में हुआ.
इसी के बरक्श 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, अरब राष्ट्रवाद का उदय हुआ, जिसका उद्देश्य अरब लोगों के लिए एक एकीकृत राज्य की स्थापना करना था, इस सिद्धांत ने फिलिस्तीन को अरब राष्ट्र का हिस्सा माना. परस्पर प्रतिद्वंदी इस विचारधारा ने फिलीस्तीन की जमीन पर आने वालों सालों के लिए टकराव का रास्ता खोल दिया.
पंच की भूमिका वहीं निभाते हैं जो...
इतिहास हो या वर्तमान पंच की भूमिका वहीं निभाते हैं जो ताकतवर होते हैं. 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में ब्रिटेन के साम्राज्यवाद का सूरज पूरे विश्व में दमक रहा था. लिहाजा वो पंच की भूमिका में फीट बैठ रहा था. पहले वर्ल्ड वॉर में आटोमन साम्राज्य के खात्मे के बाद ब्रिटेन इस रोल के लिए और भी तैयार हो गया.
इस बीच 19वीं सदी के अंत में दुनिया भर में फैले यहूदी अपने लिए एक राष्ट्र की स्थापना के लिए कूटनीतिक स्तर पर भरपूर कोशिश कर रहे थे. इसी सिलसिले में जाइनिस्ट आंदोलन (Zionist movement) के संस्थापक थियोदर हर्जल ने 1896 में Der Judenstaat (The Jewish State) नाम से एक लेख लिखा. इसमें वो कहते हैं, "मैंने इस पैम्फलेट में जो विचार पैदा किया है वह बहुत पुराना है- यह यहूदी राज्य की स्थापना है."
मात्र एक साल से ही गलत हुई हर्जल की भविष्यवाणी
इसके अगले साल यानी कि 1897 स्विटजरलैंड के बसेल शहर में पहला जाइनिस्ट कांग्रेस आयोजित हुआ. जहां इसका लक्ष्य निर्धारित किया गया- फिलीस्तीन में सार्वजनिक कानून के जरिए यहूदी लोगों के लिए एक 'होम' की स्थापना की जाए. थियोदर हर्जल इस कांग्रेस के महत्व को बताते हुए लिखते हैं- अगर बसेल कांग्रेस को मुझे एक शब्द में कहने के लिए बोला जाए तो मैं कहूंगा कि मैंने बसेल में यहूदी राज्य की स्थापना कर दी है. अगर मैं इसे आज उदघोषणा की तरह कहता हूं तो दुनिया भर में लोग मेरा मजाक उड़ाएंगे. लेकिन शायद 5 सालों में, या फिर 50 सालों में सब कोई इसके बारे में जान जाएंगे."
थियोदर हर्जल की भविष्यवाणी एक साल से ही गलत साबित हुई. अगले 50 सालों में दुनिया में बेतरह उथल-पुथल हुई. 2 महायुद्ध लड़े गए और आखिरकार 1948 में इजरायली स्टेट अस्तित्त्व में आ गया.
लेकिन इसके बीच क्या-क्या हुआ. तत्कालीन परिस्थितियों में यहूदियों को लगा कि इजरायली राज्य की स्थापना में ब्रिटेन ही उसका सबसे बड़ा मददगार साबित हो सकता है. यहूदियों की लॉबी ब्रिटिश सरकार पर इसके लिए लगातार दबाव बनाने लगी.
1917 में आया वो मौका
आखिरकार 1917 में वो मौका आ ही गया. जब ब्रिटिश सत्ता ने पहली बार दुनिया भर में फैले यहूदियों के लिए फिलीस्तीन में एक 'नेशनल होम' बनाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई. दरअसल तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे डेविड लॉयड जॉर्ज और विदेश मंत्री थे आर्थर बॉलफोर. तब ब्रिटेन का ये एलीट वर्ग इजरायली कॉज के प्रति हमदर्दी रखता था. ब्रिटिश पीएम को लगता था कि मौजूदा दुनिया में यहूदी काफी शक्तिशाली हैं और वे युद्ध में इनका इस्तेमाल अपने पक्ष में कर सकते हैं.
2 नवंबर 1917 को ब्रिटेन के विदेश मंत्री आर्थर बॉलफोर ने ब्रिटेन के प्रभावशाली यहूदी नेता लियोनेल वाल्टर रोशचाइल्ड को पत्र लिखा और पहली बार कहा कि ब्रिटेन की सरकार यहूदी आकांक्षाओं के प्रति सहानुभूति रखती है और यहूदियों के लिए 'नेशनल होम' के लिए काम करने को तैयार है.
एक चिट्ठी, एक वाक्य और 67 शब्द
शुरुआती संबोधन के बाद इस पत्र बीच का हिस्सा है जहां ब्रिटेन ने एक वाक्य में 67 शब्दों से अपने मंसूबे स्पष्ट कर दिए. बेलफॉर ने रोशचाइल्ड को लिखा-
"महामहिम की सरकार फिलीस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक नेशनल होम की स्थापना के पक्ष में है और इस उद्देश्य की उपलब्धि को सुविधाजनक बनाने के लिए अपने सर्वोत्तम प्रयासों का उपयोग करेगी, यह स्पष्ट रूप से समझा जाता है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जिससे फिलिस्तीन में मौजूद गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े, इसके अलावा इन प्रयासों से किसी अन्य देश में मौजूद यहूदियों द्वारा प्राप्त अधिकार और राजनीतिक स्थिति पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा."
“His Majesty's Government view with favour the establishment in Palestine of a national home for the Jewish people, and will use their best endeavors to facilitate the achievement of this object, it being clearly understood that nothing shall be done which may prejudice the civil and religious rights of existing non-Jewish communities in Palestine or the rights and political status enjoyed by Jews in any other country.”
क्यों अहम ये पत्र?
इतिहास में इस पत्र को बॉल्फोर घोषणापत्र के नाम से जाना जाता है. इस घोषणापत्र ने यहूदी राष्ट्रवाद के लिए वैधता प्रदान की. उस समय यहूदी राष्ट्रवाद पर एक ऐसी ताकत मुहर लगा रहा था जो दुनिया सर्वेसर्वा था. इस घोषणापत्र ने यहूदियों को एक ऐसे स्थान की तलाश में एक मजबूत दावा दिया जहां वे अपने राज्य का निर्माण कर सकें. बॉल्फोर घोषणापत्र ने इजरायल राज्य की स्थापना के लिए यहूदी लोगों के संघर्ष को वैधता प्रदान की. इस घोषणापत्र को ब्रिटेन ने कानूनी दायित्व (Legal obligation) करार दिया और इजरायल निर्माण को अपनी जिम्मेदारी बनाई.
घोषणापत्र ने यहूदी लोगों को यह विश्वास दिलाया कि वे एक स्वतंत्र राज्य का निर्माण करने के लिए हकदार हैं.
बॉल्फोर घोषणापत्र इजरायल राज्य की स्थापना के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था और यह एक ऐसा दस्तावेज है जिसका आज भी दुनिया भर में यहूदी और अरब लोगों के बीच संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ता है.
संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट में इस घोषणापत्र पर कहा गया है कि ये 67 शब्द यूं ही नहीं लिखे गए थे. इनमें हर शब्द पर विचार किया गया था. UN की वेबसाइट में लिखा गया है, "बॉल्फोर घोषणा के बारे में सबसे पहली बात यह कही जानी चाहिए कि यह एक घोषणा थी जिसे जारी करने से पहले आखिरी समय तक तौला गया था. इसमें केवल सड़सठ शब्द थे, और पारित होने से पहले इनमें से प्रत्येक पर ब्रिटिश कैबिनेट पर विस्तार से विचार किया गया था."
फिलीस्तीन पर ब्रिटेन ने हासिल किया जनादेश
इस घोषणापत्र को आधार बनाकर प्रथम विश्व युद्ध के विजेता ब्रिटेन ने 1923 में फिलिस्तीन पर एक जनादेश प्राप्त किया. इस जनादेश के तहत, ब्रिटेन ने यहूदी और अरब दोनों के लिए अधिकारों को सुरक्षित करने को कथित रूप से कोशिश की लेकिन दोनों पक्षों को संतुष्ट टेढ़ी खीर था.
ये जनादेश 1948 तक प्रभावी रहा जबतक कि इजरायल एक राष्ट्र नहीं बन गया. 1923 से 1948 के बीच दुनिया भर में फैले यहूदी वैध-अवैध तरीके से फिलीस्तीन पहुंचे. जिससे यहां टकरावों का अंतहीन सिलसिला शुरू हुआ.
अल-जजीरा की रिपोर्ट के मुताबिक 1920 से 1946 तक दुनिया भर से 3 लाख 46 यहूदी फिलीस्तीन पहुंचे. इसके साथ ही फिलीस्तीन में उनकी आबादी बढ़कर 33 फीसदी हो गई.
1947 में, संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव को अरबों ने खारिज कर दिया.
इस बीच 15 मई 1948 को इजरायल का गठन हुआ. लेकिन इसके बाद हिंसा-हत्या और विस्थापन का भयंकर सिलसिला शुरू हुआ. अगले ही दिन पहला अरब-इजरायली युद्ध शुरू हुआ. इजरायल ने इस शिकस्त में अरब देशों मिस्र, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया को मात दी. ये युद्ध जनवरी 1949 में एक समझौते के बाद खत्म हुआ.
लेकिन इजरायल-फिलीस्तीन की अदावत यहीं खत्म नहीं हुई. दोनों देश पिछले 70 सालों में कई जंग लड़ चुके हैं और ये सिलसिला अभी भी जारी है.
पन्ना लाल