साल था 1947. ब्रिटिश भारत का विभाजन हुआ था और जन्म हुआ दो नए देशों का, भारत और पाकिस्तान. जब नवगठित पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र संगठन की सदस्यता के लिए आवेदन किया, तो पूरी दुनिया ने उसे नए राष्ट्र के रूप में स्वीकार करने का समर्थन किया. यहां तक कि हिन्दुस्तान जिसके तक्सीम होने से पाकिस्तान का जन्म हुआ था, उसने भी इस नए मुल्क का समर्थन किया था, लेकिन एक ऐसा देश था जिसने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के बनने का विरोध किया और इसके प्रस्ताव में वोट डाला. ये देश था अफगानिस्तान.
स्क्रॉल की एक रिपोर्ट में जिक्र है कि 13 अक्तूबर 1947 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक खबर लगाई और लिखा, "अफगानिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की एंट्री के खिलाफ एकमात्र वोट दिया और पाकिस्तान के नेता इस अमित्रतापूर्ण कृत्य को रूस के रुखे रवैये के साथ जोड़ने के लिए इच्छुक हैं."
अफगानिस्तान द्वारा पाकिस्तान का यह विरोध केवल एक औपचारिक असहमति नहीं थी. यह गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक जटिलताओं का परिणाम थी. इसकी गूंज आज भी दोनों देशों के संबंधों में सुनाई पड़ती है.
बुधवार को पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने एक बार फिर से अफगानिस्तान में घुसकर हमला करने की धमकी दी है. ख्वाजा आसिफ ने कहा है कि अफगान तालिबान टीटीपी के हमलावरों को पनाह दे रहा है. लेकिन अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच दुश्मनी का इतिहास अतीत के पन्नों में छिपा है.
पाकिस्तानी की आजादी की घोषणा और अफगानिस्तान का विरोध
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान अलग देश बना. इसके एक हफ्ते से कम समय के बाद ही काबुल में गतिविधियां तेज हो गई. इस समय अफगानिस्तान में संवैधानिक राजशाही के तहत शासन हो रहा था. अफगानिस्तान के राजा जाहिर शाह ने डूरंड रेखा के दक्षिण में रहने वाले कबीलाई-पश्तून समुदायों पर शासन करने के पाकिस्तान के अधिकार को चुनौती दी.
पाकिस्तान ने 15 सितंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता के लिए आवेदन किया, तो अफगान प्रतिनिधिमंडल ने इसका विरोध दर्ज किया. संयुक्त राष्ट्र 1945 में ही बना था. और यह पहली बार था जब किसी देश ने किसी अन्य देश की UN में सदस्यता का विरोध किया.
अफगानिस्तान का तर्क था कि डूरंड रेखा एक औपनिवेशिक थोपी गई सीमा थी और पाकिस्तान का गठन इस रेखा को वैधता प्रदान करने के समान था, जो उनके लिए अस्वीकार्य था.
क्यों एक दूसरे को नहीं सुहाते अफगानिस्तान-पाकिस्तान
दो पड़ोसी जिनका मजहब समान है, जिनकी संस्कृति और वेशभूषा एक जैसी है और जो सदियों से एक जैसे खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते आए हैं, जिन्हें इस्लामिक उम्माह का सपना एक मंच पर लाता था वो आखिर एक दूसरे को पसंद क्यों नहीं थे?
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दरअसल अफगानिस्तान द्वारा पाकिस्तान का यह विरोध उस भौगोलिक और जनजातीय समीकरण की झलक थी जो अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच गहरे तनाव की जड़ बन गई. पाकिस्तान को न स्वीकार करने के पीछे अफगानिस्तान का मुख्य तर्क यह था कि ब्रिटिश राज की बनाई गई 'डूरंड रेखा' जो दोनों देशों की सीमा तय करती थी, अन्यायपूर्ण और अस्थायी थी. काबुल के पठानों का मानना था कि इस रेखा ने पश्तून और बलूच बहुल क्षेत्रों को दो हिस्सों में बांट दिया जिनका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्ता हमेशा से अफगानिस्तान से जुड़ा रहा था.
डूरंड रेखा अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच 2640 किलोमीटर लंबी सीमा है. पर्वतों, पहाड़ों और नदियों, घाटियों से गुजरती हुई ये रेखा सदियों से एक जमीन पर रहने वाले लोगों को दो भागों में बांट देती है.
उत्तरी भाग में यह वाखान गलियारे के पास ऊंचे पर्वतों से शुरू होती है, जो ताजिकिस्तान और चीन की सीमा के निकट है. मध्य में यह खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के पहाड़ी और घाटी वाले क्षेत्रों, जैसे ऐतिहासिक खैबर दर्रा से गुजरती है. दक्षिण में यह बलूचिस्तान के शुष्क रेगिस्तानी और अर्ध-रेगिस्तानी इलाकों को पार करती है, जहां कम घनी आबादी है क्योंकि यहां का भूगोल जिंदगी को सख्त बना देता है.
इसके एक ओर अफगानिस्तान के 12 प्रांत हैं, और दूसरी ओर पाकिस्तान का खैबर पख़्तूनख़्वा, बलूचिस्तान और गिलगित-बाल्टिस्तान जैसे क्षेत्र हैं.
अफगान का मतलब ही पश्तून है
फारसी भाषा में 'अफ़ग़ान' शब्द दरअसल 'पश्तून''पख्तून', या ज़्यादा पुराने जमाने में 'पठान', का पर्यायवाची है. अफगानिस्तान का मतलब ही पश्तूनों की जमीन है. लेकिन डूरंड लाइन ने जब पश्तूनों की जमीन को हिस्सों में काट दिया तो ये अफगान नेशन के लिए वजूद का सवाल हो गया. इसलिए अफगानों ने कभी भी डूरंड लाइन को स्वीकार नहीं किया.
पश्तूनों की कहानी और इतिहास
स्वतंत्रता, आतिथ्य और युद्धकौशल पश्तूनों की शान है. पश्तून कबीले के लोग आधुनिक अफगानिस्तान के दक्षिणी-पूर्वी हिस्से, पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा, बलूचिस्तान के उत्तरी भाग और फाटा क्षेत्र में कम से से कम 3,000–3,500 वर्षों से रहते आए हैं. इस क्षेत्र को ही पश्तूनिस्तान कहते हैं.
यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही पश्तून संस्कृति, भाषा और कबीलाई व्यवस्था का केंद्र रहा है. और पीछे चले जाएं तो ऋग्वेद में "पक्त्य" नाम की एक जनजाति का उल्लेख है, जो सरस्वती नदी के पश्चिमी क्षेत्र यानी कि आधुनिक पश्तूनिस्तान में रहती थी. ये लोग अविभाजित भारत के गंधार सभ्यता के वारिस हो सकते हैं. पश्चिमी पुरतातत्व विद और इतिहासकार जैसे माइकल विट्ज़ेल, असको पारपोला के अनुसार यह प्राचीन पश्तूनों का सबसे पुराना लिखित उल्लेख हो सकता है.
इस्लाम अरब से एशिया इसी रास्ते से आया. इस्लामिक आक्रांताओं के सैंकड़ों वर्षों का आक्रमण झेलते झेलते ये पूरा इलाका अपनी मूल पहचान से दूर चला गया और इस्लाम की सरपरस्ती में आ गया.
मध्यकाल में इसी भूभाग पर अब्दाली, घिलजाई, यूसुफजई जैसी जनजातियां उभरीं. 1747 में अहमद शाह दुर्रानी ने अफगान साम्राज्य स्थापित किया.
डूरंड की लकीर
अंग्रेज दुनिया में जहां भी रहे, अपने फायदे के लिए तमाम सौदेबाजियां की और स्थानीय हितों को कुचलकर रख दिया. पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच 2640 किलोमीटर लंबी सीमा की कहानी भारत-पाकिस्तान के बीच पड़ने वाली रेडक्लिफ लाइन जैसी है.
इस रेखा को 1893 में ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि सर मोर्टिमर डूरंड और अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान खान के बीच एक समझौते के बाद खींचा गया था. सीमा रेखा खींचने का काम 1894 से 1896 के बीच हुआ. लेकिन डूरंड रेखा ने पश्तून पहचान को, पश्तूनों के सामूहिक मादरे वतन को हिस्सों में तक्सीम कर दिया.
मिडिल ईस्ट इनसाइट्स प्लेटफ़ॉर्म की संस्थापक डॉक्टर शुभदा चौधरी ने बीबीसी के साथ बातचीत में कहा है कि खोस्त (अफ़ग़ानिस्तान) से पाकिस्तान की सुलेमान पर्वत श्रृंखला तक का कबीलाई इलाका, ओरकजई का एक बड़ा हिस्सा, स्पिन बोल्डक से गजनी तक कई इलाकों में सीमा साफ तौर पर तय न होने से दोनों पक्षों के बीच विवाद और तनाव लगातार बने रहते हैं.
पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान स्पिन बोल्डक में लगातार हमले कर रहा है. पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच शांति स्थापित करने की तीसरे दौर की वार्ता भी फेल हो चुकी है.
हमारे लोग कभी नहीं भूलेंगे कि...
1900 में प्रकाशित अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान खान की जीवनी The Life of Abdur Rahman, Amir of Afghanistan जिसका संपादन सुल्तान मोहम्मद खान ने किया है, से एक चर्चित बयान निकल सामने आता है. इस बयान में वो कहते हैं- "मैं इस लाइन को दबाव में स्वीकार कर रहा हूं, लेकिन मेरे लोग यह कभी नहीं भूलेंगे कि ये लाइन हमारी कबीले के लोगों को और हमारी जमीन को बांटती है."
इस बयान में ही वो कसक है जिसकी वजह से अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी इतने लंबे समय से कायम है.
डूरंड रेखा को क्यों नहीं मानते हैं अफगानी
अफगानिस्तान के शासक तर्क देते हैं कि डूरंड लाइन को मानने का कोई आधार नहीं है. क्योंकि डूरंड लाइन पर समझौता ब्रिटेन के दबाव में हुआ था, इसकी वजह ये थी कि एंग्लो-अफ़ग़ान लड़ाइयों के बाद अब्दुर रहमान की शक्ति कमजोर हो गई थी और उन्होंने मजबूरी में इस समझौते को माना.
अब्दुर रहमान खान के इस बयान को अफगानिस्तान के दूसरे शासकों ने दूसरे तरीके से लगातार दोहराया है. हामिद करजई ने 2017 में कहा था कि वे डूरंड रेखा को कभी भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान की सीमा रेखा नहीं मानेंगे.
दरअसल जब 1947 में पाकिस्तान बना तो यहीं डूरंड रेखा अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच की आधिकारिक रेखा बन गई. ये रेखा अबतक अविभाजित ब्रिटिश भारत को अफगानिस्तान से अलग करता था. इस रेखा को अमेरिका ने भी मान्यता दी है.
पश्तून पहचान का सवाल
अफगानिस्तान की ओर से डूरंड रेखा को न मानने की बड़ी वजह पश्तून कबीलाई समुदाय का सवाल है. पश्तून, जो अफगान और पाकिस्तानी सीमा के दोनों ओर रहते थे, अपनी सांस्कृतिक और भाषाई एकता को बनाए रखना चाहते थे. अफगान सरकार ने दावा किया कि पश्तूनों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाना चाहिए और यदि वे चाहें तो वे अफगानिस्तान में शामिल हो सकते हैं. या पश्तूनिस्तान बना सकते हैं. खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें बाचा खान के नाम से जाना जाता है, जैसे नेता ने पश्तून एकता और स्वायत्तता की वकालत की थी. लेकिन 1947 और इससे पहले जिन्ना ने इन नेताओं की मांगों को कुचल दिया. स्वायतत्ता की मांग कर रहे खान अब्दुल गफ्फार खान को पाकिस्तान ने जब नजरबंद कर दिया तो अफगानिस्तान में भी प्रदर्शन हुआ.
कुछ पश्तून राष्ट्रवादी एक स्वतंत्र पश्तूनिस्तान चाहते हैं, जबकि अन्य अफगानिस्तान के साथ एकीकरण की मांग करते हैं. पाकिस्तान इसे अपनी संप्रभुता के खिलाफ मानता है.
इस मसले को हल करने के लिए 1947 में एक जनमत संग्रह हुआ, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (NWFP) के निवासियों ने पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया. लेकिन पश्तूनों ने इस जनमत संग्रह का बहिष्कार किया. वे इसे ब्रिटिश प्रभाव में किया गया जनमत संग्रह मानते थे. क्योंकि इसमें पश्तूनिस्तान के स्वतंत्र विकल्प को शामिल ही नहीं किया गया था. तब से लेकर अबतक इन इलाकों में स्वतंत्र पश्तून स्टेट की मांग सुलगती रहती है.
पाकिस्तान को UN से मिली मान्यता और PAK एयरफोर्स का हमला
अफगानिस्तान के विरोध के बावजूद संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 30 सितंबर 1947 को पाकिस्तान को 51-5 के मतों से सदस्यता दी. अफगानिस्तान के अलावा, भारत, सोवियत संघ, पोलैंड और यूक्रेन ने भी शुरुआती असहमति जताई, लेकिन बाद में समर्थन दिया था.
पाकिस्तान तो बन गया था लेकिन अफगानिस्तान के साथ इसका टकराव जारी रहा.
अफगानिस्तान ने पश्तून क्षेत्रों में सशस्त्र समूहों का समर्थन शुरू किया. इन कबीलाई समूहों ने पाकिस्तान की सेना हमला करना जारी रखा और उनके छक्के छुड़ा दिए. ये हमले हमें आज भी देखने को मिलते हैं.
आखिरकार पाकिस्तान ने भी जवाबी हमला किया. जून 1949 में पाकिस्तान वायु सेना के 14 स्क्वाड्रन के दो हॉकर टाइफून लड़ाकू बमवर्षकों ने पंक्तिया और नंगरहार प्रांत के मुगलगई गांव पर हमला किया, जिसमें कथित तौर पर कई नागरिक मारे गए.
1949 के अलावा 1955, 1960 और 1976 में भी ऐसे मौके आए जब दोनों देश इस मुद्दे को लेकर युद्ध के कगार पर पहुंच गए.
पाकिस्तान-अफगानिस्तान का ये टकराव आज भी जारी है और हर टकराव के बाद दोनों ही मुल्कों के जख्म हरे हो जाते हैं.
पन्ना लाल