भारत के इतिहास में 16 अगस्त की तारीख एक काले अध्याय के तौर पर दर्ज है, साल 1946 में कलकत्ता (अब कोलकाता) चार दिन तक चले भीषण सांप्रदायिक दंगों में जल उठा था और दस हजार से ज़्यादा लोगों की जान चली गई थी. कोलकाता के इतिहास में सांप्रदायिक दंगों और हत्याओं ने उस घटना की शुरुआत की जिसे इतिहासकार सुरंजन दास ने बंगाल के 'विभाजन दंगे' कहा है.
मुस्लिम लीग का 'एक्शन डे'
हमें याद रखना चाहिए कि बंगाल 1905 में ही विभाजन का गवाह बन चुका था. 16 अगस्त 1946 के कलकत्ता दंगों की शुरुआत अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की तरफ से 'डायरेक्ट एक्शन डे' के आह्वान के साथ हुई थी, जिसका मकसद भारत से ब्रिटिशों के जाने के बाद अलग मुस्लिम मातृभूमि की मांग पर जोर देना था.
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बंगाल, एक बड़ी मुस्लिम आबादी होने के अलावा, इतिहासकारों के मुताबिक वह स्थान भी था जहां 'राजनीतिक चेतना की पहली अभिव्यक्ति' देखी गई थी. ढाका में ही 'उपमहाद्वीप के मुसलमानों के हितों की रक्षा' के लिए अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का जन्म हुआ था.
हिंदू-मुस्लिमों के बीच हिंसा
यह तारीख देखते ही देखते देशव्यापी सांप्रदायिक दंगों में बदल गई, जिसके परिणामस्वरूप कलकत्ता में मुसलमानों और हिंदुओं के बीच बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी. शहर कट्टरपंथी भीड़ की गिरफ्त में आ गया, जिसने जमकर उत्पात मचाया, हत्याएं कीं और पूरे शहर में तबाही मचा दी.
कहा जाता है कि बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुसैन शाहिद सुहरावर्दी ने भीड़ को भरोसा दिया था कि 'अगर वे शहर में अपनी गतिविधियां शुरू करने का फैसला लेते हैं तो सशस्त्र मुसलमानों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी.'
हिंसा के बीच गोपाल मुखर्जी की एंट्री
'इंडियाज़ पार्टिशन: द स्टोरी ऑफ़ इम्पीरियलिज़्म इन रिट्रीट' के लेखक डीएन पाणिग्रही ने भी 1946 के ग्रेट कलकत्ता हत्याकांड के शुरुआती दिनों में पुलिस और सेना की निष्क्रियता का ज़िक्र किया है. कहा जाता है कि सेना को इस डर से बुलाया गया था कि कहीं यूरोपीय लोगों पर हमला न हो जाए.
इसी अराजकता के बीच गोपाल चंद्र मुखर्जी का उदय हुआ, जिन्हें गोपाल पाठा के नाम से जाना जाता है. उन्हें हीरो और विलेन दोनों माना जाता है.
बेघरों के मददगार बने मुखर्जी
कलकत्ता में एक गिरोह के नेता, गोपाल मुखर्जी ने मुस्लिम भीड़ की हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में अहम भूमिका निभाई. ऐसा कहा जाता है कि उनकी कोशिशों ने कई हिंदुओं को मौत और अपमान से बचाया, जिसके कारण उन्हें एक महापुरुष का दर्जा हासिल हुआ.
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18 अगस्त से गोपाल मुखर्जी ने हिंदू प्रतिरोध का नेतृत्व किया और हिंदू युवकों को आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए संगठित किया. उन्होंने बेघरों और विधवाओं को सहारा दिया. कहा जाता है कि उनके कार्यों से हज़ारों हिंदुओं की जान बच गई.
मुस्लिम लीग सरेंडर को मजबूर
कोलकाता में, मुसलमानों को हिंसा का सबसे ज़्यादा ख़तरा झेलना पड़ा और कहा जाता है कि वे बड़ी संख्या में शहर छोड़कर भाग गए. गोपाल मुखर्जी और उनके गिरोह ने अन्य लोगों के अलावा, हिंदुओं पर हमला करने वालों को भी निशाना बनाया.
20 अगस्त तक यह साफ हो गया कि कलकत्ता सहित बंगाल को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने का मुस्लिम लीग का सपना साकार नहीं होगा. हिंदू प्रतिरोध की ताकत को समझते हुए मुस्लिम लीग ने गोपाल मुखर्जी से हत्याएं बंद करने की अपील की. वह इस शर्त पर सहमत हुए कि मुस्लिम लीग पहले अपने सदस्यों को हथियार डालने को कहे और हिंदुओं की हत्याएं रोकने का वादा करे.
बंगाल को पाकिस्तान में जाने से रोका
गोपाल मुखर्जी उन कारणों में से एक थे जिन्होंने कलकत्ता को पाकिस्तानी हाथों में जाने से बचाया. कहा जाता है कि उन्होंने महात्मा गांधी के सामने हथियार डालने से इनकार कर दिया था, जिन्होंने दंगों के महीनों बाद हिंदुओं से हथियार डालने को कहा था.
कलकत्ता हत्याकांड भारत के इतिहास की एक दुखद घटना थी, लेकिन इसने गोपाल मुखर्जी जैसे व्यक्तियों की भूमिका को भी उजागर किया, जिन्हें आज उनकी वीरता और बदनामी, दोनों के लिए याद किया जाता है. इतिहासकारों के बीच वह एक विवादित व्यक्ति बने हुए हैं.
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