ऑफिस के बाद बॉस ने डिस्टर्ब किया तो...! जानिए क्यों चर्चा में है ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’

भारत में इस वक्त ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ को लेकर चर्चा तेज है. इसका मतलब यह है कि वर्किंग क्लास को कानूनी हक मिल जाएगा कि ऑफिस टाइम के बाद कर्मचारी से काम की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन फिलहाल यह सिर्फ चर्चा तक सीमित है, इसे कानूनी जामा पहनाना आसान नहीं होगा. ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि दुनिया के कौन-से देशों में यह कानून पहले से लागू है, जहां कर्मचारियों का निजी समय सच में सुरक्षित माना जाता है.

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भारत में इस वक्त राइट टू डिसकनेक्ट की बात हो रही है (सांकेतिक तस्वीर:Pexel) भारत में इस वक्त राइट टू डिसकनेक्ट की बात हो रही है (सांकेतिक तस्वीर:Pexel)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 08 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 1:20 PM IST

भारत में वर्किंग आवर खत्म होने के बाद भी काम पीछा नहीं छोड़ता. एक तरफ देश में 70 घंटे काम करने की बहस छिड़ी हुई है, तो दूसरी तरफ इंसानों की प्रोडक्टिविटी की तुलना अब AI से की जा रही है. वहीं, AI के चलते नौकरियां छिनने की खबरें भी रोज-ब-रोज सामने आ रही हैं. ऐसे माहौल में भारत के वर्किंग क्लास के लिए एक नया बिल पेश किया गया है, जिसे गर्म हवाओं के बीच ठंडी हवा का एक झोंका माना जा रहा है.हालांकि यह झोंका फिलहाल सिर्फ दिलासा देने वाला ही लगता है.

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इस बिल का नाम है ‘राइट टू डिस्कनेक्ट बिल 2025’. इसे संसद में एनसीपी (शरद पवार गुट) की सांसद सुप्रिया सुले ने पेश किया है. इस बिल में एम्प्लॉई वेलफेयर अथॉरिटी बनाने का प्रस्ताव रखा गया है.

सबसे अहम बात यह है कि इस बिल में हर कर्मचारी को यह अधिकार देने की बात कही गई है कि वह ऑफिस टाइम के बाहर, छुट्टियों में या अपने निजी समय में काम से जुड़े कॉल, मैसेज या ईमेल का जवाब देने से इनकार कर सकता है.यानी अगर ऑफिस टाइम खत्म हो गया है, तो फोन की रिंगटोन आपकी निजी ज़िंदगी में खलल न डाले और ऑफिस कॉल आपके प्राइवेट टाइम में दखल न दे सके.

हालांकि, यहां एक बात समझना बेहद जरूरी है कि यह एक प्राइवेट मेंबर बिल है. नाम से ही साफ है कि ऐसा बिल सरकार की ओर से नहीं, बल्कि किसी सांसद द्वारा व्यक्तिगत तौर पर पेश किया जाता है. लोकसभा और राज्यसभा के किसी भी सदस्य को ऐसे बिल पेश करने का अधिकार होता है, जिन्हें वे जरूरी मानते हैं.

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लेकिन इसका असर क्या होता है? आमतौर पर ऐसे बिल संसद में पेश होने के बाद चर्चा के लिए आते हैं, सरकार जवाब देती है और फिर अधिकतर मामलों में इन्हें वापस ले लिया जाता है. यानी कुल मिलाकर ऐसे बिल नीति बदलने से ज्यादा एक मजबूत संदेश देने के लिए लाए जाते हैं.

इसके बावजूद ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ बिल पर सोशल मीडिया से लेकर वर्किंग प्रोफेशनल्स के बीच चर्चा तेज हो गई है. लोग इसे भारत के वर्क कल्चर में बदलाव की एक संभावित शुरुआत मान रहे हैं.

अब सवाल यह है कि जब भारत में यह अभी सिर्फ एक प्रस्ताव भर है, तो दुनिया के उन देशों में क्या सिस्टम है, जहां यह नियम सख्ती से और व्यवस्थित तरीके से लागू किया जा चुका है? आइए आपको बताते हैं, उन देशों के बारे में जहां कर्मचारियों का निजी समय सचमुच उनका अपना माना जाता है.

फ्रांस
राइट टू डिस्कनेक्ट’ कानून सबसे पहले फ्रांस में 2017 में लागू हुआ था. यह कदम वहां वर्क-लाइफ बैलेंस सुधारने और मेंटल हेल्थ बचाने के लिए उठाया गया था.ऑफिस टाइम खत्म होने के बाद कोई भी कर्मचारी किसी कॉल, ईमेल या मैसेज का जवाब देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.इस कानून के तहत फ्रांस की कंपनियों को यह भी तय करना पड़ा कि कर्मचारी कब उपलब्ध रहेगा और कब उसका समय पूरी तरह निजी माना जाएगा.यही कानून आज दुनिया के कई दूसरे देशों के लिए मॉडल बन चुका है.

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जर्मनी
जर्मनी में काम के घंटे पहले से ही दुनिया के सबसे संतुलित माने जाते हैं, जहां औसतन कर्मचारी हफ्ते में सिर्फ 34 से 36 घंटे ही काम करते हैं. खास बात यह है कि यहां छुट्टी को सच में छुट्टी माना जाता है. Volkswagen, BMW और Daimler जैसी दिग्गज कंपनियों में सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि ऑफिस टाइम खत्म होते ही कर्मचारियों के ऑफिस ईमेल अपने आप बंद हो जाते हैं. यानी बॉस चाहकर भी छुट्टी के दिन या रात में काम से जुड़ा कोई मैसेज नहीं भेज सकता. जर्मनी में यह माना जाता है कि कर्मचारी का निजी समय उसकी सेहत, परिवार और मानसिक संतुलन के लिए उतना ही जरूरी है, जितना काम के घंटे में उसकी जिम्मेदारी.

स्पेन
स्पेन में वीकेंड और छुट्टी का मतलब सच में निजी समय होता है. यहां कानून साफ तौर पर यह अधिकार देता है कि कर्मचारी अपने ऑफ टाइम में बॉस के कॉल, मैसेज या ईमेल को इग्नोर कर सकता है. कंपनी या मैनेजमेंट इस बात के लिए उस पर कोई दबाव नहीं बना सकती कि वह छुट्टी के दिन भी काम से जुड़ी बातों का जवाब दे.

नॉर्वे और डेनमार्क

नॉर्वे और डेनमार्क में वर्क कल्चर पूरी तरह इंसान-केंद्रित माना जाता है, जहां लोग दिन में औसतन सिर्फ 6 से 7 घंटे ही काम करते हैं. यहां काम के बाद की ज़िंदगी को उतनी ही अहमियत दी जाती है, जितनी ऑफिस के समय की जिम्मेदारियों को. ऑफिस खत्म होते ही लोग परिवार के साथ समय बिताते हैं, घूमने निकलते हैं, फिटनेस पर ध्यान देते हैं और अपनी निजी ज़िंदगी को पूरी आजादी से जीते हैं. यही वजह है कि ये दोनों देश दुनिया के सबसे खुशहाल देशों की सूची यानी ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ में हमेशा टॉप पर बने रहते हैं. यहां माना जाता है कि खुश कर्मचारी ही सबसे बेहतर काम कर सकता है.

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